वन्य जीव एवं जैव विविधता

तेंदु पत्ते पर जीएसटी कितना जरूरी?

क्या तेंदु पत्तों से मिलने वाले राजस्व के लालच में इसका व्यापार जंगल में रहने वाले लोगों के हवाले नहीं किया जा रहा है?

Jitendra, Ishan Kukreti

भारत में तेंदु पत्तों का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य उथलपुथल का साक्षी बन रहा है। जब 26 जून को मध्य प्रदेश लोकायुक्त ने राज्य में लघु वन उत्पाद (एमएफपी) के व्यापार और विकास के लिए जिम्मेदार एमएफपी को-ऑपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड के खिलाफ मामला दर्ज किया, तो कई लोग सकते में आ गए। इसी के साथ एक पुरानी बहस छिड़ गई कि सरकार तेंदु पत्तों के व्यापार से अपने हाथ खींचकर क्यों नहीं इसे जंगल में रहने वालों को सौंप देती? आखिरकार, बीड़ी लपेटने के काम आने वाले ये पत्ते 12 राज्यों में जंगलों में रहने वाले 75 लाख लोगों को सबसे अधिक मौसमी आय मुहैया कराते हैं।

मध्य प्रदेश लोकायुक्त द्वारा दायर मामले के अनुसार, राज्य के एमएफपी संघ ने 16 वर्ष से अधिक समय अवधि के दौरान 2014 तक लगभग 365 करोड़ रुपए अपनी तिजोरी में भरे हैं। यह राशि इस अवधि के दौरान तेंदु पत्ते, साल के बीज और कुल्लू गोंद जैसे एमएफपी की बिक्री से संघ को प्राप्त आय का केवल 30 प्रतिशत है, जिसमें तेंदु के पत्तों ने 99 प्रतिशत राजस्व सृजित किया है। एमएफपी संघ को यह राशि जंगल में रहने वाले समुदायों के विकास संबंधी परियोजनाओं पर खर्च करनी चाहिए जो इस उत्पाद को एकत्र करते हैं। किंतु उसने ऐसा नहीं किया। यह अनियमितता अप्रैल में तब सामने आई जब भोपाल स्थित गैर-लाभकारी संस्था, किसान जागृति संगठन से जुड़े कार्यकर्ता इरफान जाफरी ने आवाज उठाई। जाफरी ने कहा कि यदि पिछले तीन वर्षों के दौरान राज्य के एमएफपी संघ द्वारा अर्जित राजस्व पर ध्यान दिया जाए तो यह 500 करोड़  रुपए से अधिक होगा।

विशेषज्ञों का कहना है कि तेंदु के पत्तों के राष्ट्रीकृत होने के बाद से ये अनियमितताएं मानक बन गई हैं। ओडिशा में स्थायी आजीविका के संबंध में काम कर रहे एक गैर-लाभकारी संगठन वंसुधरा के मानस रंजन मिश्रा कहते हैं “यह दुर्भाग्यपूर्ण है।” 1960 के दशक में, जब राज्य सरकारों ने तेंदु पत्तों के व्यवसायिक मूल्य को समझा और इसके व्यापार का राष्ट्रीकरण शुरू किया, तब उनका मकसद बीनने वाले लोगों को बीड़ी विनिर्माताओं और तेंदु के पत्तों के खरीदारों के शोषण से बचाना था। वास्तव में सरकार ने एमएफपी से जंगल में रहने वाले समुदायों और आदिवासी लोगों  के अधिकारों की रक्षा के लिए पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (पीईएसए) और वन अधिकार अधिनियम, 2006 लागू किए थे।  किंतु वन विभाग ने तेंदु जैसे एमएफपी पर से अपना अधिकार कभी नहीं छोड़ा। मिश्रा समझाते हैं कि इस कारण, जंगल में रहने वाले किसी और को ये पत्ते नहीं बेच सकते, फिर चाहे उन्हें इसके कम दाम ही क्यों न मिल रहे हों। वह बताते हैं कि वन विभाग फिर इन पत्तों को वाणिज्यिक व्यापारियों को बेचता है।

ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में तेंदु के व्यापार से अर्जित राजस्व का 70-100 प्रतिशत हिस्सा पत्ते बीनने वालों को बोनस के रूप में देने का प्रावधान है। गैर-लाभकारी संगठन क्षेत्रीय विकास सहयोग केंद्र के सुधांशु शेखर देव कहते हैं कि राज्य यह कहकर इसका एक हिस्सा अपने पास रख लेते हैं कि इसे समुदाय के विकास पर खर्च किया जाएगा। देव आगे बताते हैं, “यह पैसा कभी उन तक नहीं पहुंचता।” जनजातियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए मध्य प्रदेश सरकार के कई ऐसे कार्यक्रम हैं किंतु निधि का उचित संवितरण न होने के कारण ये कार्यक्रम शुरू नहीं हो सके।

राजस्थान में वन उत्पाद एकत्रित करने वालों की सोसायटी समर्थक समिति के कमलेंद्र सिंह राठौड़ बताते हैं कि राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में, जहां वन विभाग तेंदु की पत्तों को एकत्र करने के अधिकार की नीलामी करता है, वहां पैसा सीधे जिला पंचायत को हस्तांतरित होता है, जो आगे इसे ग्राम सभा को वितरित करती हैं। राठौड़ आगे बताते हैं, “इस प्रावधान के तहत, पत्ते बीनने वाले समुदायों को सारा लाभ नहीं मिलता। न्यायसंगत भुगतान को योजनाओं के रूप में पुन: प्रदान करने के बजाय पत्ते बीनने वालों को बेहतर मूल्य देना चाहिए।”

उचित मूल्य प्राप्त करने के लिए, ओडिशा के कालाहांडी जिले में छ: ग्राम सभाओं के पत्ते बीनने वालों ने इस वर्ष मई में व्यापारियों को तेंदु के पत्ते सीधे तौर पर बेचने की कोशिश की थी। तेंदु के 60 पत्तों के लिए सरकारी दर 2.40 रुपए है, व्यापारी ने इसके लिए उन्हें 7.50 रुपए की पेशकश की थी। ओडिशा के वन विभाग ने इसे गैर-कानूनी माना। जिला कलेक्टर अंजन मलिक का कहना है, “कालाहांडी में तेंदु के पत्तों को नियंत्रण मुक्त करने के संबंध में हम वन विभाग से बात कर रहे हैं।”  3 जुलाई को केंद्रीय जनजाति मंत्री जुआल ओराम ने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को पत्र लिखकर इस मामले में हस्तक्षेप करने को कहा।

ऐसे ही एक अन्य मामले में, राज्य के नबरंगपुर जिले में तेंदु पत्ते इकट्ठा करने वालों ने 2013 में इस उत्पाद के निजीकरण की मांग की थी। तेंदु की नीलामी शुरू होने से ठीक एक महीने पहले अप्रैल में सरकार ने व्यापार से हाथ खींच लिए। इससे तेंदु के पत्ते इकट्ठा करने वालों को झटका लगा, जिन्हें यह नहीं पता था कि संग्रह केंद्र कैसे बनाए जाए या नीलामी कैसे की जाए। इस प्रकार सरकार ने यह कहते हुए तेंदु पर अधिकार पुन: स्थापित कर लिया कि समुदाय व्यापार पर नियंत्रण रखने में नाकाम रहे।

रास्ता क्या है?

भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ ने इस वस्तु का कुल बाजार मूल्य 1,040 करोड़ रुपए होने का अनुमान लगाया है। पारिस्थितिकी और पर्यावरण अनुसंधान अशोक न्यास, बेंगलुरु के वरिष्ठ फेलो शरतचंद्र लेले का कहना है, “चूंकि यह बाजार बहुत बड़ा है, इसलिए इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार के सहयोग की जरूरत है।”

पूर्ववर्ती योजना आयोग के पूर्व सदस्य सचिव एन.सी. सक्सेना तेंदु के पत्ते इकट्ठा के वालों के लिए सरकार के सहयोग की आवश्यकता के कारणों का उल्लेख करते हैं। तेंदु की झाड़ियों की नियमित रूप से छंटाई करना आवश्यक है ताकि नई पत्तियां समान रूप से बढ़ सकें। संग्रह केंद्रों की मरम्मत, रखरखाव और नीलामी का आयोजन जरूरी है। वर्तमान में वन विभाग ये सभी क्रियाकलाप मुफ्त में करता है। इस व्यापार में सरकार की भागीदारी को कम नहीं किया जा सकता किंतु सरकार को एकमात्र प्राधिकरण नहीं होना चाहिए। सरकार को तेंदु के लिए एक न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करना चाहिए।

मिश्रा कहते हैं कि तेंदु के पत्ते इकट्ठा करने वालों के हितों को सुरक्षित करने का एक तरीका यह है कि ग्राम सभा को यह चुनने का अधिकार दिया जाए कि वे सरकार द्वारा तेंदु के पत्तों की बिक्री चाहते हैं अथवा स्वयं नीलामी चाहते हैं। महाराष्ट्र की कुछ ग्राम सभाओं में ऐसा हो रहा है (‘तेंदु में उतार-चढ़ाव’ में देखें)। तेंदु के पत्ते इकट्ठा करने वालों का शोषण रोकने के लिए समाधान के रूप में मिश्रा दो विकल्प सुझाते हैं।

पहला तेंदु के पत्तों को इकट्ठा करने वालों का समूह बनाना जहां वे सरकार की मदद से संगठित रूप से बिक्री कर सकते हैं। दूसरा सुझाव संगठनों के जरिए बिक्री करना है जिसमें कई ग्राम सभाएं शामिल हों। संभवत:  कालाहांडी में तेंदु के पत्ते इकट्ठा करने वाले अपने अधिकारों के प्रति दृढ़ न रह पाए हों,  किंतु ये उपाय यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके साथ धोखा न हो।

तेंदु में उतार-चढ़ाव
 
पिछले कई वर्षों के दौरान इस लघु वन उत्पाद पर नियंत्रण हासिल करने के लिए कई बड़ी लड़ाइयां हुई हैं।
  • 1964 से पहले: वन विभाग तेंदु के पत्ते इकट्ठा करने के अधिकार की नीलामी ठेकेदारों को करता है, जो बाद में जंगल के निवासियों को पत्ते इकट्ठा करने का काम देते हैं। उन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है।
  • 1964 के बाद: वर्ष 1964 में मध्य प्रदेश पहला ऐसा राज्य बना जिसने तेंदु के पत्ते इकट्ठा करने वालों का शोषण रोकने के लिए तेंदु के पत्तों को राष्ट्रीकृत किया। अन्य राज्यों ने भी इसका अनुसरण किया। इसका 1969 में महाराष्ट्र में, 1971 में आंध्र प्रदेश में, 1973 में ओडिशा में, 1979 में गुजरात में और 1974 में राजस्थान में राष्ट्रीयकरण हुआ।
  • 1996: पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम पारित हुआ। यह ग्राम सभा और पंचायत को लघु वन्य उत्पाद (एमएफपी) पर अधिकार देता है। तेंदु के पत्तों को नियंत्रण मुक्त करने की मांग शुरू हुई।
  • 2006: अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों को मान्यता) अधिनियम अस्तित्व में आया। यह जंग में रहने वाले व्यक्तियों और समुदायों को एमएफपी के स्वामित्व, उन्हें इकट्ठा करने और उनका इस्तेमाल करने के लिए उन पर पहुंच का अधिकार देता है। इससे जंगल के निवासियों का तेंदु के पत्तों पर अधिकार और मजबूत होता है।
  • 2011: बांस को एमएफपी के रूप में मान्यता दी गई। तेंदु के पत्तों का नियंत्रण मुक्त करने की मांग को मजबूती मिली।
  • 2013: ओडिशा ने नबरंगपुर में तेंदु के पत्तों के व्यापार को नियंत्रण मुक्त कर दिया किंतु इसे इकट्ठा करने वाले इसे संभाल नहीं पाए। महाराष्ट्र ने 18 ग्राम सभाओं को अधिकार हस्तांतरित किए तथा इसे संभालने के लिए उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान की। आज ग्राम सभाएं इन्हें उच्चतम दरों पर बेचती हैं।
  • 2017: तेंदु के पत्तों पर वस्तु व सेवा कर लगाया गया है। ऐसा पहली बार है जब एमएफपी पर कोई केंद्रीय कर लगाया गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि कर का भार पत्ते तोड़ने वालों पर पड़ेगा जिन्हें पत्तों का कम मूल्य मिलने की संभावना है।