वन्य जीव एवं जैव विविधता

लैंटाना हटाकर एक तीर से कई निशाने साध रहे मंडला के ग्रामीण

भारत समेत दुनियाभर में आक्रामक प्रजातियों के फैलाव के बीच मध्य प्रदेश के मंडला जिले में लैंटाना उन्मूलन और प्रबंधन का व्यापक कार्यक्रम चल रहा है। यह कार्यक्रम बताता है कि आक्रामक प्रजातियों को सामूहिक प्रयासों और नियमित निगरानी से नियंत्रित किया जा सकता है। साथ ही इस काम से कई आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक लाभ भी लिए जा सकते हैं

Bhagirath

निर्मला मरावी के करीब सात एकड़ के खेत में 20 साल बाद फसल लहलहाई है। इस साल अगस्त महीने में उन्होंने अपने इस खेत में कुटकी बोई है। इसकी कटाई दिवाली के बाद हो गई। हालांकि उन्हें अंदाजा नहीं है कि उपज कितनी होगी क्योंकि अब तक उसकी थ्रेसिंग नहीं हुई है लेकिन वह आश्वस्त हैं जो भी उपज होगी, वह निश्चित रूप से उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने में मददगार होगी।

मध्य प्रदेश के मंडला जिले के मानिकपुर रैयत गांव में रहने वाली 55 वर्षीय निर्मला का खेत 2019 तक लैंटाना से अटा पड़ा था। इस खेत को जोतना तो दूर, घुसना भी मुश्किल था। वह अपने इस खेत को लगभग भूल ही चुकी थीं लेकिन 2020 में लैंटाना हटने के बाद उन्हें जमीन के इस टुकड़े से कुछ अर्जित करने की आस जगी। 2021 और 2022 में उन्होंने खेत को परती छोड़ दिया था। इस साल जाकर उनका खेत तैयार हुआ तो उन्होंने परंपरागत रूप से बोई जाने वाली कुटकी से खेती की शुरुआत की।

खेत से लैंटाना का हटना उनके लिए एक तीर से कई निशाने लगाने जैसा था। इससे जहां पुन: खेती संभव हुई, वहीं खेत में लगे हर्रा, बहेरा, आंवला, महुआ जैसे पेड़ों तक उनकी पहुंच भी बनी। निर्मला के खेत से हर साल करीब 250 किलो महुआ निकल रहा है। 35 रुपए प्रति किलो औसत भाव के हिसाब से देखें तो केवल महुआ बेचकर ही उन्हें करीब 8,750 रुपए की अतिरिक्त आमदनी होने लगी है। तीन साल पहले और मौजूदा स्थिति की तुलना करते हुए निर्मला कहती हैं कि उनके खेत में महुआ के पांच पेड़ हैं, लेकिन लैंटाना के सघन फैलाव के चलते महुआ के पेड़ों तक पहुंचना नामुमकिन था। यही स्थिति अन्य फलदार पेड़ों की थी। लेकिन अब काफी सहूलियत हो गई है। अब वह सारा का सारा महुआ आसानी से चुनकर बाजार में बेच देती हैं।

निर्मला के खेतों के अलावा मानिकपुर रैयत गांव के 20 किसानों के करीब 30 हेक्टेयर खेतों से लैंटाना हटाई जा चुकी है। कुछ किसान अभी खेती तो नहीं कर रहे हैं लेकिन वनोपज और लकड़ी जरूर हासिल कर रहे हैं। गांव के ही एक किसान सूबेलाल धुर्वे अपने 12 एकड़ के खेत से 2018 में लैंटाना हटने के बाद 50 हजार रुपए सालाना महुआ, 20 हजार रुपए बल्ली और करीब 2,000 रुपए तेंदुपत्ता बेचकर कमा रहे हैं (देखें, “लाभदायक उन्मूलन”)।

मंडला जिले में ऐसे किसानों की भरमार है जिन्हें पिछले एक दशक में खेतों, पंचायती भूमि और वन विभाग की जमीन से लैंटाना हटने से काफी फायदा पहुंचा है। उदाहरण के लिए बिछिया ब्लॉक में करीब 370 गौंड आदिवासियों के परिवार वाले बरखेड़ा गांव में कुल 77 हेक्टेयर वन विभाग की जमीन को लैंटाना मुक्त कराने के बाद पशुओं के लिए चारा सुलभ हो गया है। बरखेड़ा के ग्राम विकास समिति के अध्यक्ष रायसिंह कुशराम डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि 2018-19 में सबसे पहले 25 हेक्टेयर जमीन से यह काम शुरू हुआ। दो हफ्ते तक चले इस काम में 103 लोग जुटे और उन्हें 185 रुपए दिहाड़ी के हिसाब से मजदूरी का भुगतान किया गया। 25 हेक्टेयर जमीन से लैंटाना हटाने में कुल पौने दो लाख रुपए का खर्च आया।

इसके बाद 2022 में शेष 52 हेक्टेयर में यह पहल की गई और तीन हफ्ते में 115 मजदूरों की मदद और 3.67 लाख रुपए खर्च करके जमीन से लैंटाना हटा दी गई। रायसिंह कुशराम के अनुसार, इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि चारे के साथ ही पलाश, जामुन, रैला, धवा, करौंदा आदि के पेड़ विकसित होने लगे। ये सभी स्थानीय पेड़ लैंटाना के चलते पहले पनप नहीं पा रहे थे। इसके अतिरिक्त फसलों पर जंगली सुअर, हिरण और चीतल जैसों जानवरों का हमला भी काफी हद तक कम हुआ है क्योंकि लैंटाना हटने के बाद उन्हें छुपने की जगह मिलनी बंद हो गई है। ग्राम विकास समिति में जुड़े बिसेन मरावी के 4 एकड़ के खेत हैं। वह कहते हैं कि गांव में जंगली जानवरों का खौफ इतना ज्यादा था कि लगभग हर खेत में मचान बनाकर दिन-रात खेतों की रखवाली करनी पड़ती थी, लेकिन अब मचान की जरूरत नहीं रह गई है।

मंडला जिले के बिछिया ब्लॉक में हजारों हेक्टेयर राजस्व भूमि, वन विभाग की जमीन व पंचायती भूमि लैंटाना से मुक्त कराकर बहाल की जा चुकी है। जिले में यह काम पिछले एक दशक से जारी है। ग्रामीणों को इस काम के लिए प्रेरित करने वाली गैर लाभकारी संस्था फाउंडेशन फॉर ईकॉलोजिकल सिक्योरिटी (एफईएस) से जुड़े प्रद्युमन आचार्य डाउन टू अर्थ को अपने अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि हम कान्हा टाइगर रिजर्व से आसपास के करीब 200 गांवों में काम कर रहे हैं और अब तक 7,000 हेक्टेयर से आसपास जमीन से लैंटाना का उन्मूलन किया जा चुका है।

व्यापक फैलाव

अक्टूबर 2023 में जर्नल ऑफ अप्लाइड इकोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, लैंटाना मूलत: भारत का नहीं है। इसे 18वीं शताब्दी में अंग्रेज सजावटी पौधे के रूप में भारत लाए थे। तब से यह भारत के 5,74,186 वर्ग किलोमीटर में फैलकर प्राकृतिक क्षेत्रों के 50 प्रतिशत हिस्से में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है। 2020 में ग्लोबल ईकोलॉजी एंड कन्जरवेशन जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि यह आक्रामक प्रजाति भारत के टाइगर रिजर्व सहित 40 प्रतिशत जंगलों में फैल चुकी है।

लैंटाना मंडला जिले के जंगलों और उसके आसपास के गांवों में बड़े पैमाने पर फैल चुकी है। इसका पारिस्थितिक, सामाजिक और आर्थिक लाभ नहीं है। आचार्य बताते हैं कि लैंटाना का बीज इतना हल्का होता है कि हवा में उड़कर एक जगह से दूसरी जगह आसानी से पहुंच जाता है। यह आक्रामक प्रजाति धीरे-धीरे निजी, सामुदायिक और वन विभाग की जमीन पर फैल चुकी है। इसके व्यापक फैलाव को देखते हुए 2012 में कान्हा टाइगर रिजर्व की मदद से सर्वप्रथम इंद्रावन गांव में 15 हेक्टेयर में लैंटाना हटाने का कार्यक्रम शुरू किया गया। उस समय साढ़े चार हजार रुपए प्रति हेक्टेयर खर्च आया था। यह पूरा काम हाथ से हुआ। निकाली गई लैंटाना को उल्टा रखकर सुखाया गया फिर उसकी चारदीवारी बना दी गई। इसके बाद इस 15 हेक्टेयर भूमि पर आंवला, आम, हर्रा, बहेरा जैसी स्थानीय प्रजातियों के पौधे रोपे गए।

इंद्रावन से मिले अनुभवों का इस्तेमाल दूसरे गांवों में किया गया। शुरुआत में सामुदायिक जमीन से ही लैंटाना उन्मूलन हुआ। आचार्य ने अनुसार, जब लोगों ने सामुदायिक जमीन से लैंटाना हटाने के नतीजे देखे तो उन्होंने हमसे संपर्क कर अपनी निजी जमीनों से लैंटाना हटाने का अनुरोध किया। आचार्य के अनुसार, जिस-जिस जमीन से लैंटाना निकाली गई, वहां कुछ नियम बनाकर पौधे और चराई पर कुछ सालों के लिए रोक लगा दी गई। मसलन इंद्रावन में 2013 में पौधों की सुरक्षा हेतु बनाई गई नियमावली में पशु चराते पकड़े जाने पर 500 रुपए के दंड का प्रावधान किया गया और इसकी सूचना देने वाले को 100 रुपए बतौर इनाम देने की पहल की गई। लगाए गए पौधों को नुकसान पहुंचाने पर प्रति पौधे 200 रुपए की राशि वसूलने का प्रावधान के साथ ही यह भी सुनिश्चित किया गया कि दंड राशि से ही पौधों की सुरक्षा एवं बचाव पर आने वाला खर्च वहन किया जाए। इंद्रावन एवं ऐसे अन्य गांवों में इस प्रकार के प्रावधानों से पौधों और घास को पनपने में मदद मिली और देखते ही देखते पौधे बड़े होकर फल देने लगे।

ऐसा ही एक बड़ा काम कन्हारी खुर्द, कन्हारी कलां, झुरुप, सरहेला और उमरिया गांव ने मिलकर किया। इन गांवों के ग्रामीणों ने 63 हेक्टेयर में फैले सिद्ध बाबा मंदिर क्षेत्र से लैंटाना हटाकर और पौधारोपण कर पिछले 10 साल में हरा भरा जंगल तैयार कर दिया है। इसके लिए सिद्ध बाबा समिति बनाई गई है। इस समिति में पांचों गांवों के करीब 20 लोग शामिल हैं। इसके अतिरिक्त हर गांव की अपनी एक समिति है और उसका अलग बैंक खाता है। आज भी सिद्ध बाबा मंदिर क्षेत्र में पेड़ों को काटने पर 5,000 रुपए का जुर्माना है। झुरुप गांव की गोमती यादव बताती हैं कि 2010 में श्रमदान से लैंटाना हटाने का काम हुआ था। इस काम के दौरान रोज हर गांव से 10-15 लोग आते थे। करीब एक महीने तक काम चलने के बाद पूरा सिद्ध बाबा क्षेत्र लैंटाना मुक्त हो गया। इसके बाद बेल, आंवला, बांस, हर्रा, बहेरा, आम के पौधे रोपे गए जो आज फल दे रहे हैं और इन फलों को बेचकर समिति को आय हो रही है।

अनेक फायदे

लैंटाना उन्मूलन का सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक प्रभाव समझने के लिए एफईएस ने जुलाई 2023 में “रेस्टोरेशन एंड एनहेंस्ड गवर्नेंस ऑफ कॉमंस थ्रू कन्यूनिटी बेस्ड अडेप्टिव मैनेजमेंट ऑफ इनवेसिव स्पीसीज” नामक रिपोर्ट की जिसमें 18 गांवों के 191 किसानों के साक्षात्कार के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि जिन बर्रा भूमि से लैंटाना हटाई गई वहां 50 प्रतिशत किसान खेती कर रहे हैं। 94 प्रतिशत किसान इस भूमि का इस्तेमाल खुली चराई अथवा चारे के संग्रहण के लिए कर रहे हैं।

कान्हा टागर रिजर्व के आसपास के गांवों से 3,279 हेक्टेयर बर्रा भूमि से लैंटाना उन्मूलन का काम किया है। बर्रा भूमि हल्की ढालू होती है और उसमें मिट्टी की मात्रा कम (60 सेंटीमीटर से अधिक नहीं) होती है। साथ ही इसमें पत्थर भी होते हैं इसलिए आमतौर पर मोटे अनाज अथवा तिलहन की खेती के मुफीद रहती है। रिपोर्ट के अनुसार, सर्वेक्षण में शामिल 46 प्रतिशत किसानों ने माना कि बहाल की गई भूमि से उन्हें महुआ और तेंदु पत्ता जैसी वनोपज हासिल होने लगी है। लैंटाना उन्मूलन के बाद प्रबंधित भूमि से चारे की उपलब्धता (0.64 टन प्रति हेक्टेयर) में भी गैर प्रबंधित भूमि (0.08 टन प्रति हेक्टेयर) के मुकाबले 8 गुणा वृद्धि हुई है।

जैव विविधिता में सुधार का स्तर भी पुनर्स्थापित भूमि पर बेहतर हुआ है। बर्रा और सामुदायिक जमीनें अन्य पौधों की प्रजातियों के फलने-फूलने के लिए खुली हैं। इससे स्थानीय समुदाय लाभान्वित हुए हैं। एनटीएफपी (गैर लकड़ी वनोत्पाद) संग्रहण करने वाले 87 किसानों के बीच हुए सर्वेक्षण में पाया गया है कि इनमें से 98 प्रतिशत ने माना कि लैंटाना उन्मूलन के बाद संसाधनों तक उनकी पहुंच आसान हुई है।

लैंटाना हटाने का एक सुखद परिणाम यह भी रहा कि फसलों की क्षति कम हुई है। उदाहरण के लिए धुटका गांव में 80-90 प्रतिशत धान की फसल जंगली जानवरों के हमले से नष्ट हो जाती थी लेकिन बर्रा और सामुदायिक भूमि से इसके हटने के बाद नुकसान काफी कम हो गया है। सर्वेक्षण में शामिल 191 में से 145 किसानों ने माना कि नुकसान में कमी आई है। बिसेन मरावी के अनुसार, ये जानवर मक्का और धान को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाते थे। जो फसल काटकर सूखने के लिए खेत में रखी जाती थी, जानवर उसे तक नहीं छोड़ते थे। उनका कहना है कि गांव में मार्च 2022 जंगली सुअरों का हमला हुआ था। उसके बाद से खेत सुरक्षित हैं।

कान्हा टाइगर रिजर्व से सटे पटपरा गांव की गोलवती उइके भी मानती हैं कि लैंटाना उन्मूलन से फसलों के नुकसान में काफी कमी आई है। उनके करीब चार एकड़ खेत जंगल से सटे हैं। खेत के पास जंगल में फैली लैंटाना में अक्सर जानवर छुप जाते थे और रात को हमला कर पूरी फसल तहसनहस कर देते थे लेकिन 2020 में लैंटाना हटने से स्थितियां काफी बेहतर हुई हैं। गौंड जनजाति बहुल आबादी वाले इस गांव में करीब 40-45 हेक्टेयर निजी जमीन और 122 हेक्टेयर वन विभाग की भूमि से लैंटाना हटाया जा चुका है।

कुछ गांव ऐसे हैं जहां कृषि भूमि पुनर्स्थापित होने के बाद लोगों की वनोपज पर निर्भरता कम हुई है। कान्हा टाइगर रिजर्व के कोर से सटा बंटवार गांव में 2018-19 में 20 किसानों की करीब 50 हेक्टेयर भूमि से लैंटाना और एक अन्य आक्रामक प्रजाति वन तुलसा हटने के बाद बड़े पैमाने पर कृषि गतिविधियां शुरू हुई हैं। बंटवार गांव कटोरे के आकार का है जिसकी अधिकांश भूमि बर्रा है और धान उपजाने वाली समतल भूमि सीमित मात्रा में है। एफईएस से जुड़े रामकुमार यादव बताते हैं कि इस जमीन पर लोगों को परंपरागत मोटे अनाज की खेती के लिए प्रेरित किया गया। 2021 में केवल पांच किसान खेती के लिए तैयार हुए। 2022 में 10 किसान और 2023 में सभी 20 किसान खेती में जुट गए हैं। गांव में कुल 150 हेक्टेयर बर्रा भूमि है, जबकि सामान्य भूमि 100 हेक्टेयर के आसपास है। रामकुमार बताते हैं कि बर्रा भूमि अब जीवनयापन का बड़ा स्रोत बन रही है और इस जमीन से लैंटाना उन्मूलन ने वनोपज पर निर्भरता भी कम की है।



लगातार निगरानी जरूरी

लैंटाना उन्मूलन एक श्रमसाध्य काम है। एक बार इसे हटाने के बाद उसकी नियमित निगरानी जरूरी है, विशेषकर अगले दो साल तक इसके फिर से पनपने की संभावना काफी रहती है। उन्मूलन के बाद दो साल तक लैंटाना लगातार हटाना पड़ता है जिसे ‘मोपिंग’ कहते हैं। यह भी देखा गया है कि अपर्याप्त निगरानी और देखभाल और निगरानी के अभाव में कुछ जमीनों पर लैंटाना कुछ वर्षों बाद फिर पनप गई। पन्ना जिले के सेवानिवृत्त जिला वन अधिकारी (डीएफओ) श्रीनिवास मूर्ति डाउन टू अर्थ को लैंटाना उन्मूलन में सावधानी बरतने की सलाह देते हुए कहते हैं कि अगर कोई दीर्घकालीन योजना नहीं है तो इस कवायद से कुछ हासिल नहीं होगा। उनके अनुसार, लैंटाना वहीं आता है जहां से आप देसी प्रजातियां का कवर हटा देते हैं। अगर आपके पास लैंटाना हटाकर देसी प्रजातियां को पनपने देने की क्षमता है तभी आपको इसका लाभ मिलेगा। उनके अनुसार, लैंटाना मिट्टी और नमी को संरक्षित करता है लेकिन अवांछित होने के नाते वह अपनी जड़ों से कुछ ऐसे रसायन जमीन पर पहुंचाता है जिससे दूसरे पौधे पनप नहीं पाते।

मूर्ति के अनुसार, उसका आवरण इतना घना रहता है कि अगर कोई बीज पेड़ से गिर भी जाए तो वह जमीन तक नहीं पहुंच पाता। लैंटाना का एक लाभ यह है कि इससे जानवरों को छुपने और घात लगाने में मदद मिलती है। इसलिए इसे काफी सोच समझकर हटाने की जरूरत है, अन्यथा इच्छित परिणाम हासिल नहीं होंगे। केंद्रीय वनों में अगर आप इसे हटाकर देसी प्रजातियों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से हटाना चाहते हैं तो इसमें कोई दिक्कत नहीं है। आचार्य लैंटाना के उचित प्रबंधन के लिए मानते हैं कि यह काम मनरेगा और ग्राम पंचायत की निधि से करवाया जाए तो इसका फैलाव रोकने में काफी मदद मिलेगी, लेकिन अब तक ऐसी व्यवस्था नहीं है।

मंडला में पिछले कई दशकों से पर्यावरण के मुद्दे उठाने वाले रमण भास्कर लैंटाना को बड़ी समस्या मानते हैं लेकिन साथ ही कहते हैं, “जब तक इसका वैकल्पिक उपयोग नहीं होगा, यह समस्या खत्म नहीं होगी। फर्नीचर बनाकर लैंटाना का वैकल्पिक उपयोग संभव है।” इसका फर्नीचर बहुत टिकाऊ बनता है और इसका कच्चा माल भी लगभग मुफ्त में उपलब्ध है। युवाओं को प्रशिक्षण देकर जहां रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जा सकते हैं, वहीं इससे कुछ हद तक वनों पर दबाव भी कम किया जा सकता है।