पटकल बेड़ा छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र के कांकेर जिले में स्थित एक छोटा सा गांव है। दूर से इस गांव को देखना या पता लगाना बहुत मुश्किल है। यह बस्तर और कांकेर जिले को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग से चंद किलोमीटर की दूरी पर है। साल, तेंदु और महुआ के घने जंगल से घिरे इस गांव में मुरिया जनजाति के करीब 150 लोग रहते हैं। कोई कह सकता है कि गांव में इंसानों से ज्यादा पेड़ और वन्यजीव हैं।
गांव में घुसना आसान नहीं है। इसके लिए सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) से इजाजत लेनी पड़ती है। यूं तो बीएसएफ की तैनाती मुख्यत: अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के लिए होती है लेकिन यहां सशस्त्र विद्रोहियों यानी माओवादियों से लड़ने के लिए उनकी तैनाती की गई है। गांव में प्रवेश के लिए इनकी अनुमति जरूरी है, भले ही आप गांव के निवासी हों या न हों।
जब मैं यहां पहुंचा, एक ऑटोमैटिक राइफल धारी संतरी ने मेरी तरफ बंदूक करके मुझसे करीब आधे घंटे तक पूछताछ की। उसका सवाल था, “क्या आप गांव में किसी को जानते हो? उसका नाम बताओ?” मेरा जवाब “नहीं” था। इसके बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी मेरे पत्रकार होने का पहचान पत्र बीएसएफ की बैराक में भेज दिया गया। यहां आधे घंटे तक हुई पूछताछ के दौरान संतरी के पीछे से आए एक नकाबपोश व्यक्ति ने फिर वही सवाला दागा “क्या आप गांव में किसी को जानते हो? अगर नहीं तो वहां क्यों जाना चाहते हो?” सब लोग जानते हैं कि नकाबपोश व्यक्ति स्थानीय होते हैं जो बीएसएफ के लिए काम करते हैं। ये लोग मुख्यत: लोगों की पहचान और जंगल व गांवों में मार्गदर्शन के लिए रखे जाते हैं।
मैंने गांव में अपने आने का उद्देश्य समझाते हुए बताया, “मुझे यह रिपोर्ट करना है कि जंगलों की रक्षा कैसे की जाती है।” इसके बाद मुझे गांव में घुसने और लौटने की इजाजत दे दी गई। साथ में यह हिदायत भी मिली, “जंगल के भीतर मत जाना। आज सुबह ही वहां माओवादी घूमते देखे गए हैं।”
पटकल बेड़ा को हाल ही में विकास ने छुआ है। इसे बाहर की दुनिया से जोड़ने के लिए रेलवे लाइन बिछाई गई है जो इसे राजधानी रायपुर से जोड़ती है। माओवादियों से इसी रेल लाइन की सुरक्षा के लिए बीएसएफ की तैनाती हुई है।
इस गांव की तरह क्षेत्र के अन्य बहुत से गांव भी 235 किलोमीटर लंबी दल्लीराझरा-रोघट-जगदलपुर रेल परियोजना चालू होने के बाद बाहरी दुनिया के संपर्क में आ गए हैं। 13 अगस्त को इस लाइन पर पहली बार ट्रेन भी चली। यह ट्रेन अंतागढ़ नगर में रुकी जो गांव से चंद किलोमीटर की दूरी पर है। इस रेल लाइन का प्राथमिक उद्देश्य सवारी ढोना नहीं बल्कि रोघट की खदानों से लौह अयस्क की ढुलाई है। सितंबर में इस लाइन से लौह अयस्क की पहली खेप की ढुलाई भी हो चुकी है।
स्थानीय समुदाय पिछले एक दशक से इस रेलवे लाइन और रोघट खदानों को खोलने का विरोध कर रहे हैं। बहुत से लोग परियोजना में अपनी जमीन खो चुके हैं। उनका आरोप है कि इसके बदले उन्हें मुआवजा भी नहीं मिला। अधिकांश लोगों के लिए रेलवे लाइन द्वारा निगला गया जंगल उनकी आर्थिक दुनिया थी। वे मानते हैं कि इनके बिना उनकी जिंदगी तेजी से गरीबी की दलदल में धंस रही है। जिन गांवों ने अपने नजदीकी जंगल खोए हैं, वहां यह अध्ययन हो सकता है कि एक भारतीय गांव की अर्थव्यवस्था में पारिस्थितिकी की क्या भूमिका है। यह भी देखा जाना चाहिए ऐसे संसाधन के अभाव में क्या होता है।
पटकल बेड़ा में कोई नहीं जानता कि बाहरी दुनिया में क्या हो रहा है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की महानिदेशक नगोजी ओकोंजो इवेला ने जिस पॉलीक्राइसिस (यानी एक साथ जलवायु परिवर्तन, आर्थिक मंदी, अवसाद का डर, रूस-यूक्रेन युद्ध से हुई खाद्य असुरक्षा और दशक में पहली बार गरीबी बढ़ने से बढ़ती असमानता) का जिक्र किया है, गांव के लोग उससे अनजान हैं।
गांव का अपना पॉलीक्राइसिस है, जिसके निशान रेलवे लाइन के लिए काटे गए हर पेड़ के रूप में दिखाई देते हैं। गांव के 35 में से 17 परिवारों ने रेलवे परियोजना के कारण अपनी जमीन गंवाई है। इतना ही नहीं, उनका उस जंगल में जाना भी बंद हो गया है, जो परियोजना के लिए लिया गया है। परियोजना के लिए कितने तेंदु के पेड़ काटे गए, इसका कोई लेखा जोखा नहीं है। सभी मौद्रिक गणना के हिसाब किताब में लगे हैं।
गांव से कभी बाहर न निकलने वाले 80 वर्षीय संगनाथ दूगा बताते हैं, “हम सभी के पास पूर्वजों द्वारा तय किया गया तेंदु का जंगल था।” उनकी एक हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया गया था। जमीन पर बने घर के लिए ही केवल 3 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया। अपना दर्द साझा करते हुए वह बताते हैं, “मैंने अपने आसपास के तेंदु पेड़ों को खो दिया, साथ ही नियमित आय का स्रोत भी।”
गांव की अर्थव्यवस्था जंगल पर टिकी है। यहां आजीविका के मुख्य साधन एक फसल, तेंदु, महुआ और साल के पेड़ ही हैं। खेती उपभोग का खयाल रखती है जबकि तेंदु पत्ता, महुआ और साल के फूल व बीज सालभर के लिए जरूरी नगदी का इंतजाम करते हैं। अनुमान है कि गांव की 80 प्रतिशत अर्थव्यवस्था का आधार वन हैं। शेष कृषि आधारित है।
गांव में किसी व्यक्ति की अमीरी या गरीबी जंगल से अर्जित आय से परिभाषित होती है। अगर इसे दूसरे शब्दों में कहें तो गांव में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद इस पर निर्भर है कि वन उपज तक उसकी पहुंच कितनी है। गांव के 28 वर्षीय युवक दुगुराम गोड़े कहते हैं, “रेलवे लाइन के कारण आसपास से तेंदु पेड़ों के खत्म होने से गांव को हर साल 24 लाख रुपए का नुकसान हो रहा है।”
अगर आधुनिक अर्थशास्त्रियों की मानें तो पिछले दो वर्षों में गांव की अर्थव्यवस्था मंदी में प्रवेश कर चुकी है और अवसाद के मुहाने पर पहुंच गई है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि अगर अर्थव्यवस्था लगातार छह तिमाहियों में कमजोर होती है तो मंदी की स्थिति मानी जाती है। दीर्घकालीन मंदी को अवसाद यानी डिप्रेशन माना जाता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री जूलियस शिस्किन सकल घरेलू उत्पाद में लगातार दो तिमाहियों में गिरावट को मंदी के रूप में परिभाषित करते हैं।
साल 2020-21 की चार तिमाहियों में गांव की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट हुई है। यह मुख्य रूप से तेंदु पत्तों के संग्रह में गिरावट से कम हुई आय का नतीजा है। ग्रामीणों के अनुभव बताते हैं कि 2022-23 की पहली दो तिमाहियों में तो जंगल से उनकी आमदनी बंद ही हो गई है।
गांव घने जंगल से घिरा है। यहां साल, तेंदु और महुआ के हजारों पेड़ हैं। लेकिन अब ग्रामीण इन पेड़ों तक नहीं पहुंच पाते क्योंकि अर्द्धसैनिक बल उनका रास्ता रोक देते हैं। बहुत से लोगों ने तेंदु पत्तों को इकट्ठा करने के लिए नए वन क्षेत्र में जाने की कोशिश की तो उन्हें गिरफ्तार कर पुलिस थानों में पहुंचा दिया गया। हाल ही में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत दिहाड़ी मजदूरी का काम करने वाले दुगुराम कहते हैं, “हमारी पुरानी दुनिया में जंगल की मुक्त अर्थव्यवस्था थी।”
कांकेर जिले में रेलवे लाइन के कारण कम से कम 20 गांवों ने अपने तेंदु के जंगल खो दिए हैं। ये पेड़ समुदाय के साझे संसाधन थे। आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने व पड़ोसी गांव मदापा में रहने वाले मोहन सिंह डारो बताते हैं, “सरकार के लिए वन अर्थव्यवस्था का अस्तित्व नहीं है। हम या तो बेराजगार हैं या गरीब हैं। आदिवासियों के लिए तेंदु पेड़ का नुकसान बड़ा है। इससे वंचित होकर उन्हें सालाना 10 हजार रुपए का नुकसान पहुंच रहा है। इसके बिना मैं कृषि में भी निवेश नहीं कर पाऊंगा। कृषि के बिना मैं पर्याप्त भोजन से वंचित रहूंगा और आय की कम होगी। मैं अपने बच्चों को स्कूल भी नहीं भेज पाऊंगा और अपने स्वास्थ्य की जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाऊंगा।”
मोहन वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत सामुदायिक अधिकारों का दावा करने के लिए समुदायों की मदद कर रहे हैं। यह कानून वन क्षेत्रों में लोगों की खेती और निवास के अधिकार के दावों को मान्यता प्रदान करता है और जंगल पर उनके पारंपरिक अधिकारों को स्वीकार करता है। इस अधिकार के साथ एक समुदाय कानूनी रूप से वनों के डायवर्जन को रोक सकता है। साथ ही तेंदुपत्ता और साल के बीज व पत्तियों जैसे वन उत्पादों का मालिक भी हो सकता है। मोहन के अनुसार, “इस दिशा में हमने ज्यादा प्रगति नहीं की है क्योंकि सरकार हमें ये अधिकार देने में दिलचस्पी नहीं ले रही है।”
गोडेकासगांव कांकेर जिले के अंतागढ़ विकास खंड में गोंध जनजाति के 250 घरों वालों अपेक्षाकृत बड़ा गांव है। नई रेल लाइन इस गांव से होकर भी गुजरती है। यहां की निवासी संध्या कांडो कहती हैं, “रेल परियोजना ने जंगल (ज्यादातर साल, तेंदु और महुआ के पेड़ों) को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। इस जंगल पर ही हम आजीविका के लिए पारंपरिक रूप से निर्भर थे। हमने एफआरए के तहत इस जंगल के लिए सामुदायिक अधिकारों का दावा किया। लेकिन इससे पहले कि इसे सुलझाया जाता, जंगल को ही साफ कर दिया गया।” जंगल का यह हिस्सा वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में है, इसलिए निवासियों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया। लेकिन, यह गांव के लिए आय का मुख्य स्रोत था। गांव में वन सुरक्षा समिति के अध्यक्ष व पुजारी रंजू राम गोड़े कहते हैं, “हर साल गांव जंगलों के इस हिस्से से एकत्र किए गए तेंदु पत्ते से लगभग 20 लाख रुपए कमाता था।”
महुआ के फूल और बीज बेचने से होने वाली सालाना 5 लाख रुपए की आमदनी भी कम हुई है। वह कहते हैं, “प्रत्येक परिवार जंगल से औसतन 40,000 रुपए प्रति वर्ष कमाता था। इसके बिना हम रातोंरात गरीब हो गए।” हालांकि पिछले कुछ समय में गांव की अर्थव्यवस्था में उछाल आया था। सब्सिडी वाले चावल से खाद्य व्यय में कमी हुई है। राज्य में चावल को दिए जाने वाले बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) ने यह सुनिश्चित किया कि खेती से लाभ हो। साथ ही तेंदु पत्ता और साल के बीज जैसे गैर-लकड़ी के वनोपजों के लिए राज्य के उच्च खरीद मूल्यों ने निवासियों को वानिकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। रंजू कहते हैं, “हमारी आय में वानिकी की हिस्सेदारी करीब 90 प्रतिशत है। जंगल के खत्म होने का नुकसान बहुत बड़ा है।” जंगलों से घिरे निवासी इस प्रकार के नुकसान के लिए मुआवजा नहीं हासिल कर पाते। स्थानीय निवासी बंजू राम नूरती कहते हैं, “आसपास के सभी जंगलों को एफआरए के तहत सामुदायिक वनों के रूप में आसपास के गांवों को दिया गया है।”
यहां के कुछ निवासी जिंदगी में पहली बार 12 अगस्त को छोटी दूरी तय करने के लिए ट्रेन में सवार हुए थे। इस साल मार्च में, लॉकडाउन के दौरान गांव लौटे बहुत से लोगों ने फिर से पलायन का फैसला किया। इस पलायन में निराशा का भाव गहरा है। संध्या कहती हैं, “वानिकी ने एक अच्छी कमाई सुनिश्चित की। पलायन से अतिरिक्त आय मिलती थी। लेकिन अब हम मजबूरी में ऐसा करेंगे। हो सकता है कि पलायन के लिए हम इस बार अपने गांव से ट्रेन पकड़ें। हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारे लिए दुनिया के दरवाजे इस तरह खुलेंगे।”