वन्य जीव एवं जैव विविधता

देश के वन प्रबंधन और प्रशासन की दिशा में कार्य-बल का प्रवेश और आशंकाएं

टास्क फोर्स के गठन को वन संसाधनों के बाजारीकरण की दिशा में सरकार की एक और पहल माना जा रहा है

Satyam Shrivastava

भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 31 मार्च को एक कार्य-बल गठित किया है।इस कार्य-बल को मौजूदा भारतीय वन नीति 1988, प्रस्तावित वन नीति और वन संरक्षण कानून में प्रस्तावित संशोधनों का अध्ययन करना है। साथ ही, पूरे देश में वनों के बाहर मौजूद पेड़ों /कृषि वानिकी के लिए मौजूदा नियामक व्यवस्थाओं की भी पड़ताल करनी है। और ऐसे दिशा निर्देश तैयार करने हैं, ताकि इन सबके बीच तालमेल बना रहे।

कार्य-बल की अध्यक्षतता डाइरेक्टर जनरल ऑफ फॉरेस्ट एंड स्पेशल सेक्रेटरी करेंगे। जो अपनी सिफ़ारिशें दो माह के भीतर देंगे। 19 सदस्यीय इस कार्य-बल में वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधिकारियों के अलावा मंत्रालय से बाहर के मात्र तीन विशेषज्ञों को ही शामिल किया गया है। 

मंत्रालय के इस कदम से उन आशंकाओं को बल मिलता है जिनके बारे में 2014 में ही इसी पूर्व कैबिनेट सचिव सचिव टी.एस.आर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षतता में बनी एक उच्च स्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट व सिफ़ारिशें दी थीं।

इन सिफ़ारिशों में मुख्य रूप से वन प्रशासन की अब तक चली आ रही व्यवस्था को आमूलचूल ढंग से केंद्रीकृत करने व प्राकृतिक संसाधनों को सरकार के नियंत्रण में लेने के लिए पृष्ठभूमि तैयार की गई थी। 

इसके अलावा निवेश और वाणिज्य को बढ़ावा देने के लिए वन प्रशासन को कमजोर करने की भी पैरवी की गई थी। अश्विनी कुमार की अध्यक्षता में संसद की विज्ञान, प्रौद्योगिकी की स्थायी समिति ने इन सिफारिशों को नकारते हुए यह बात कही भी थी। स्थायी समिति ने मौजूदा कानूनों की समीक्षा के लिए एक नई विशेषज्ञ समिति गठन करने की सिफ़ारिश की थी। 

उल्लेखनीय है कि इस समिति को वन प्रबंधन, संरक्षण और वन प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण मौजूदा छह मुख्य कानूनों मसलन, पर्यावरण संरक्षण कानून,1986, वन संरक्षण कानून,1980, वन्य जीव संरक्षण कानून, 1972, जल (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम,1974, वायु (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) कानून, 1981 की समीक्षा करनी थी। भविष्य के लिए इनमें संशोधनों की ज़रूरत को लेकर सिफ़ारिशें देना था। बाद में इस समिति को भारतीय वन कानून,1927 की समीक्षा का काम भी दिया गया। 

हम देख रहे हैं कि हालिया दौर में जिस तरह से वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने तमाम मौजूदा कानूनों में संसोधन किए हैं या संशोधनों के प्रस्ताव पेश किए हैं। जिससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भले ही टी.एस.आर सुब्रह्मण्यम समिति की सिफ़ारिशों को संसद की स्थायी समिति ने नकार दिया हो, लेकिन भाजपा नीत सरकार में अंतत: इसी समिति की सिफ़ारिशों को अमली जामा पहनाया जा रहा है। 

वन संरक्षण कानून, 1980 में प्रस्तावित बदलाव, जैव विविधतता संरक्षण, 2002 या वन्य जीव संरक्षण कानून 1972, 2016 में प्रकाश में आयी नई वन नीति और 2017 में भारतीय वन कानून में संशोधन की पहल जैसे वन प्रशासन या नियमन से जुड़े कानूनों में हुए बदलावों ने इस धारणा को और पुष्ट ही किया है कि यह मंत्रालय वन और वन संसाधनों में सदियों से जंगलों में निवासरत समुदायों व सामुदायिक संसाधनों को अपने कब्जे में लेने को आतुर है और अपने देश के पर्यावरण और वन संसाधनों की कीमत पर मौजूदा नीतिगत संरचनाओं को लचीला बनाया जा रहा है। 

इसी कड़ी में हमें खनिज और कोयले से जुड़े कानूनों में हुए बदलावों को भी देखना चाहिए जिनका अंतिम मकसद कॉर्पोरेट्स को आसानी से संसाधन मुहैया कराना ही है और जिनमें वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की निर्णायक भूमिका है।   

इस कार्य-बल में नौकरशाहों की ही केंद्रीय भूमिका होने जा रही है यह आशंका इसके गठन और इसमें शामिल सदस्यों से पैदा होती है। यह अंतत: वन प्रशासन की दिशा में एक ऐसा कदम है जो लंबे समय से लंबित है और अब सरकार इन बदलावों को लंबे समय तक टाल नहीं सकती। 

हाल ही में भारतीय वन सर्वेक्षण की वनों की स्थिति पर जो रिपोर्ट आयी है उसमें प्राकृतिक जंगलों में कमी के साथ साथ वन प्रशासन के दायरे से मुक्त वृक्षों की संख्या में अपेक्षाकृत वृद्धि दर्ज़ की गयी है। इस रिपोर्ट को लेकर गंभीर आलोचनाएँ भी सामने आयी हैं।

इस कार्य-बल के जरिये मंत्रालय वन क्षेत्रों से बाहर मौजूद पेड़ों और हरियाली को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने अधीन लाना चाहती है ताकि देश में मौजूद समस्त पेड़ों और हरियाली को इसके खाते में ही गिना जाये। 

वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इस कार्य-बल के गठन से ऐसे पेड़ों और कृषि वानिकी को भी वन प्रबंधन और प्रशासन के दायरे में लाने की मंशा जता रहा है। हालांकि यह सवाल अनुत्तरित ही है कि क्या मौजूदा वन नीति, वन संरक्षण कानून और कृषि वानिकी के बीच तारतम्य नहीं है या वो एक-दूसरे के विरोध में हैं? 

देश में वनों के प्रबंधन और मौजूदा प्रशासन और इस ताज़ा पहल को लेकर इन विषयों के अध्येयता एडवोकेट अनिल गर्ग कहते हैं कि “यह इतिहास में हुए अन्यायों को दुरुस्त करने की जगह नए नए अन्यायों की इबारत लिखने जैसा है। इस नवउदारवादी और कॉर्पोरेट परस्त सरकार से यह उम्मीद करना मुनासिब नहीं है कि ये तमाम बदलाव व्यापक जन हितैषी होंगे”। हालांकि वो इस पूरे फ्रेमवर्क में बदलाव की हिमायत तो करते हैं।  

अनिल गर्ग बताते हैं कि कैसे धीरे धीरे हर नए वने कानून ने समुदायों के परंपरागत रूप से चले आ रहे अधिकारों को गंभीर ठेस पहुंचाई है और उन्हें वन प्रबंधन की ऐतिहासिक भागीदारी से बाहर किया है। “उदाहरण के लिए देश कि वन नीति जो सबसे पहले 1950 में बनी थी और उसके बाद 1988 में इसमें व्यापक बदलाव हुए और एक नयी वन नीति अमल में आयी।

लेकिन इन दोनों वन नीतियों की अगर तुलना करें हम पाते हैं कि 1988 की वन नीति ने 1980 में अमल में आए वन संरक्षण कानून के बाद हुईं गंभीर विसंगतियों को दुरुस्त करने के वजाय उन्हें मान्यता ही प्रदान की। अब जब फिर से नई वन नीति बनाए जाने और उसे प्रस्तावित वन संरक्षण कानून और कृषि वानिकी से जोड़ने की पहल की जा रही है तब पहले हो चुकी गलतियों को दुरुस्त किए जाने की संभावना न के बराबर है क्योंकि इसका उद्देश्य ही भिन्न है”। 

इसके अलावा अनिल गर्ग इस पहल को लेकर एक आशंका व्यक्त करते हैं कि टिकाऊ विकास के लिए किए जा रहे इन बदलावों में वन क्षेत्रों के बाहर मौजूद पेड़ों व हरियाली पर वन विभाग के नियंत्रण की कोशिशें भी तेज़ होंगीं जो कार्बन क्रेडिट और वनीकरण के लिए वैश्विक स्तर पर उपलब्ध अपार धन राशि को आकर्षित करने में सहायक होगा।