किसी समाचार पत्र की सुर्खियां नहीं बनती हैं - उनकी अकाल मौतें। उनके लिये त्रासदी, अस्वाभाविक मौतें नहीं, बल्कि अभावग्रस्त जिंदगी का अधूरा फ़लसफ़ा है - जो सरकारी शब्दावलियों में दर्ज़ महज एक शब्द ‘अनुसूचित जनजाति’ है, जिसे भारत के संविधान नें अधिकार संपन्न तो माना, लेकिन पूरा देश उनके अधिकारों के अवमानना का अपराधी है।
बुधियारिन बैगा, सुमति गोंड, सुरेश पंडो और चंदन कुजूर केवल संज्ञाएं नहीं, बल्कि उस आदिवासी समाज के तथाकथित 'अधिकार संपन्न' प्रतिनिधि थे, जो कोरोना महामारी की आपदा में असमय समा गये। बहरहाल सरकार द्वारा जारी अकाल मौतों के आंकड़ों में वो भी केवल एक संख्या बनकर दर्ज़ हो गये जिनके दंश को देश कभी महसूस नहीं कर पाया।
महामारी के इस संक्रमणकाल में उनके और आदिवासी समाज के असामयिक मौतों का मातम कदाचित रोका जा सकता था/है, यदि मौजूदा महामारी को नहीं, बल्कि राज्यतंत्र - अपनी संवैधानिक, राजनैतिक और नैतिक "जवाबदेही को अवसर" मानती। वाकई में राज्यतंत्र के लिए आपदाओं बनाम अवसरों का यह संक्षिप्त इतिहास, भारत की स्वाधीनता के बाद स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर घोषित और पोषित क़ानूनों, नीतियों, योजनाओं और वित्तीय आबंटनों के बरअक्स देखा-समझा जा सकता है।
आदिवासी उपयोजना के मूल दस्तावेज़ कहते हैं कि इस योजना पद्धति का मूल लक्ष्य, आदिवासी समाज के मध्य और अनुसूचित क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे उन बुनियादी सुविधाओं का विस्तार है या होगा, जिसके अभाव में बहुसंख्यक आदिवासी समाज आज भी प्रतीक्षारत है। लेकिन, आदिवासी उप-योजना के एक स्वतंत्र मूल्यांकन का मानना है कि स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के नाम पर आबंटित राशि के अनुपात में एक-चौथाई लाभ भी आदिवासियों तक नहीं पहुँच पाया।
राज्य और केंद्रीय सेवाओं के अंतर्गत नियुक्त अधिकांश स्वास्थ्यकर्मी भी अपने दायित्वों का पूरी तरह वहन नहीं कर पाये। सरकार द्वारा जारी बजट प्रावधानों में स्वास्थ्य मद का आबंटन लगातार सिकुड़ता रहा । और सरकारी अभिलेखागार, आदिवासियों के स्वास्थ्य से संबंधित चिंतनीय शोधग्रंथों और रिपोर्टों से लबालब भरते रहे। इन सबके मध्य आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवायें, सरकारी-असरकारी महामारियों का शिकार बनते रही।
भारत सरकार के स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी वर्ष 2020 की ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट, आदिवासी क्षेत्रों के स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का सबसे नया बयान है। यह रिपोर्ट साफगोई से कहती है कि आदिवासी क्षेत्रों के 82 प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञों की असाधारण कमी है। मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में 44 प्रतिशत उप स्वास्थ्य केंद्र, 57 प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तथा 61 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, अभी भी संस्थागत सुविधाओं के साथ स्थापित किये जाने बाकी हैं।
राजस्थान के आदिवासी भूमि पर 46 प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 60 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सरकारी कागज़ों से निकलकर जमीन पर स्थापित होना शेष हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि पूरे भारत के आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों की औसत कमी 27-50 प्रतिशत है।
केरल जैसे अपेक्षाकृत प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य, जहाँ मात्र 1 फ़ीसदी आदिवासी जनसंख्या है वहां भी आदिवासी क्षेत्रों में 23 प्रतिशत उप स्वास्थ्य केंद्रों को एक अदद भवन की प्रतीक्षा है। अर्थात भारत में आजादी के सात दशकों के बाद भी स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों दोनों ही दृष्टि से आदिवासी क्षेत्र, अक्षम्य उपेक्षा के आखेट बने हुये हैं।
भारत सरकार की रिपोर्ट यह भी बताती है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में कुल 798 पदों की आवश्यकता है, लेकिन शासन द्वारा मात्र 248 पद ही स्वीकृत किया गया - जिसके तहत 128 लोगों की नियुक्तियां हुईं और 120 पद आज भी रिक्त हैं। अर्थात 670 (लगभग 84 प्रतिशत ) नई नियुक्तियों के अभाव में स्वास्थ्य सेवायें, व्यवस्थाजनित महामारी से संक्रमित है।
वर्ष 2020 की रिपोर्ट के माध्यम से भारत सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि असम के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों के स्वास्थ्य केंद्रों में 32 शल्य चिकित्स्कों (सर्जन) की आवश्यकता है ताकि गंभीर परिस्थितियों में आदिवासिओं का उचित इलाज़ हो सके लेकिन दुर्भाग्य से एक भी शल्य चिकित्सक, इन स्वास्थ्य केंद्रों में उपलब्ध नहीं है।
बिहार जैसे तथाकथित सुशासित राज्य के बदहाल आदिवासी क्षेत्रों में जहाँ 33 चिकित्सकों की ज़रूरत है वहां मात्र 5 चिकित्सक ही शासन द्वारा पूरे राज्य के आदिवासियों के लिये अभावग्रस्त अव्यवस्था के मध्य धकेल दिये गये हैं। पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 283 लैब टेक्नीशियनों की आवश्यकता है किन्तु अब तक 74 प्रतिशत पदों पर नियुक्तियां हुई ही नहीं हैं।
वर्ष 2020 में भारत सरकार के स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी इसी रिपोर्ट मे औपचारिक रूप से स्वास्थ्य कर्मियों की प्रशंसा की गयी है कि किस तरह कोरोना महामारी के संक्रमणकाल में उन्होंने साहस और समर्पण के साथ अपनें दायित्वों का वहन किया। लेकिन बाद के पृष्ठों पर दिये आंकड़े बेबाकी से कह देते हैं कि सरकारें, स्वास्थ्य कर्मियों के साहस और समर्पण को और अधिक प्रभावी बनाने लायक उन्हें संसाधन और सुविधायें दोनों ही दे पाने में न केवल असफ़ल रहीं बल्कि अयोग्य भी/ही साबित हुई हैं।
बहरहाल आदिवासी क्षेत्रों के स्वास्थ्य सेवाओं के विकेन्द्रीकरण के नाम पर अनियमित कर्मचारी, पूरी तरह कल्याणकारी राज्य व्यवस्था पर आश्रित 'अस्थायी जवाबदेही' का नायाब नमूना है। इस प्रकरण में अनियमित कर्मचारियों को पहले से ही ख़स्ताहाल स्वास्थ्य सेवाओं के केंद्र में निहत्था खड़ा कर दिया गया है, जहाँ उन्हें अपने मुट्ठी भर समर्पण की क़ीमत चुकानी होती है।
मध्यप्रदेश की लता टेकाम कुछ बरस पहले जब स्वास्थ्यकर्मी बनी तो उसका सपना था कि अपने समाज के लिये आगे आकर वो कुछ लोगों की तो बीमारियों से रक्षा कर ही पायेगी। तमाम सरकारी अभावों के बावज़ूद अपने हौसले से उसने यह कर दिखाया। उनके सहकर्मी बताते हैं कि स्वास्थ्य केंद्र में जब उसे कोविड महामारी के विरुद्ध जागरूकता अभियान का दायित्व दिया गया तो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
एक हफ़्ते के भीतर ही लता इस महामारी के संक्रमण से ग्रस्त हो गयी। विडंबना देखिये कि उसे अपने ही विभाग में ख़ुद के इलाज़ के लिये प्रतीक्षा करनी पड़ी - इसके बाद की कहानी उसकी असामयिक मौत से समाप्त होती है।
भारत के आदिवासी क्षेत्रों के स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की पटकथा तो कोविड महामारी के कुछ दशकों पहले ही लिखी जा चुकी है। यथार्थ तो यह है कि आदिवासी क्षेत्रों में दो-तिहाई से अधिक स्वास्थ्य केंद्र, सुविधाओं और संसाधनों की दृष्टि से ख़स्ताहाल हैं। मंडला जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र के जिला चिकित्सालय में वैंटिलेटर तो हैं, लेकिन उन्हें चलाने वाले टेक्नीशियन की ही नियुक्ति अब तक नहीं हुई है।
बोलांगीर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में दवाइओं का अकाल, एक चिरस्थायी आपदा है। कोडरमा के ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में संख्या की दृष्टि से आधे ही स्वास्थ्यकर्मी पूरे स्वास्थ्य सेवाओं का भार उठाये हैं। बारां जिले के अधिकांश स्वास्थ्य केंद्र जर्ज़र हो चुके हैं। इन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में तमाम विविधताओं के बावज़ूद एक बात जो समान है, वह है अभावों का उनका साझा इतिहास।
दुर्भाग्य है, अभावों के इस इतिहास को जिसने समझा-लिखा वो राज्यतंत्र के जवाबदेहियों की परिधि से हमेशा बाहर रहे - और जो राज्यतंत्र के जवाबदेहियों के केंद्र में थे उनमें इतिहास के यथार्थ को न तो स्वीकारने और न ही सुधारने का सामर्थ्य था/है।
लता टेकाम और उन जैसे अनगिनत आदिवासियों की असामयिक मौत के लिये महज़ एक अदृश्य वाइरस जवाबदेह नहीं है - बल्कि उनकी मौतों का गुनाहगार वह पूरी गैर-जवाबदेह अ(व्यवस्था) है जो हमारे-आपके सामने साक्षात खड़ी है।
काश, आपदा को अवसर कहने और मानने वाले संपन्न सरकारों में इतना साहस भी होता कि वो बोलांगीर, बस्तर, बालाघाट और बोकारो के आदिवासी क्षेत्रों स्वास्थ्य सेवाओं के अभावों की अराजकता, देख और समझ भी पाते तो विपन्न आदिवासी समाज को अवसरों के लिये, आपदाओं को प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। लता के वृद्ध माता-पिता को लगता है कि सरकार और समाज दोनों के लिये आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं के इस सनातन आपदा को स्वीकारने और सुधारने का अंतिम अवसर आज आ ही गया है।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)