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वन्य जीव एवं जैव विविधता

झारखंड में हाथियों की मौत का सिलसिला कब थमेगा?

अपने जंगलों के लिए विख्यात झारखंड में लगातार हाथियों की मौत हो रही हैं, लेकिन इसके लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा रहा है

Deepak Ranjeet

2025 में झारखंड और उसके सीमावर्ती क्षेत्रों में हाथियों की मौत की कई चिंताजनक घटनाएं घटी हैं, जो राज्य के पर्यावरणीय असंतुलन और लापरवाही की गवाही देती हैं। जून में सरायकेला-खरसावां जिले (झारखंड) के चांडिल क्षेत्र के हेवन गांव में एक 26 वर्षीय मादा हाथी की अवैध बिजली बाड़ से करंट लगने से मौत हो गई।

इसके कुछ सप्ताह बाद, पश्चिमी सिंहभूम (झारखंड) के सरंडा जंगल में दो हाथियों (एक छह साल की मादा और एक पंद्रह वर्षीय मखना) के क्षत-विक्षत शव मिले, जिनके शरीर पर आईईडी ब्लास्ट के घाव थे, जिससे नक्सल क्षेत्र में विस्फोट से उनकी मौत की आशंका जताई गई।

जुलाई मध्य में झाड़ग्राम (पश्चिम बंगाल) में हावड़ा-बारबिल जनशताब्दी एक्सप्रेस से टकराकर एक वयस्क हाथी और दो शावकों की जान चली गई, जो झारखंड सीमा से लगे जंगल क्षेत्र से गुजर रहे थे। इन घटनाओं ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि क्या राज्य में हाथियों के लिए कोई सुरक्षित भविष्य बचा भी है या नहीं।

झारखंड बनने के बाद से अब तक, करीब 25 सालों में बहुत सारे हाथियों की जान चली गई है। इनमें से करीब 140 हाथी रेलवे ट्रैक पर कटकर मरे हैं, और 90 से ज़्यादा बिजली के करंट से। यह सिर्फ आंकड़ा नहीं, जंगल की एक करुण सच्चाई है।

हाथी झारखंड का राजकीय पशु है। उसके नाम पर वन विभाग को विशेष फंड मिलता है। लेकिन अफसोस की बात है कि उसका सही उपयोग नहीं होता। हाथी के नाम पर जो पैसा आता है, वह कागज़ों में खर्च दिखाया जाता है, और असल में बड़े अधिकारी उसे अपनी जेब में भर लेते हैं।

जंगल में काम करने वाले कर्मचारी भी कभी-कभी सिर्फ खानापूर्ति करते हैं। हाथियों के लिए जो चारा, नमक तालाब, या निगरानी की योजना होती है, वह सिर्फ फाइलों तक सीमित रह जाती है।

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, झारखंड का वन विभाग हर साल हाथियों के संरक्षण पर करोड़ों रुपए खर्च दिखाता है। लेकिन जब जमीनी हकीकत देखी जाती है, तो न तो निगरानी सही से होती है, न चारा पहुंचता है, न ही जंगलों में कोई सुधार दिखता है। सवाल उठता है कि इतनी बड़ी राशि आखिर जा कहां रही है?

कई बार बिजली का तार नीचे लटका होता है, या टूटे हुए पोल से करंट बह रहा होता है। इस लापरवाही की वजह से हाथी करंट की चपेट में आकर मर जाता है। कई ग्रामीण खेत बचाने के लिए जानबूझकर करंट बिछा देते हैं, जिससे हाथियों की जान जाती है।

बिजली विभाग को चाहिए कि हाथी वाले क्षेत्रों में समय-समय पर निरीक्षण करे, तार ऊंची करे, पोल मजबूत करे और हर महीने चेकिंग की व्यवस्था बनाए। रेलवे की स्थिति भी अलग नहीं है।

कई जगह जंगलों के बीच से रेल लाइन गुजरती है, लेकिन हाथियों के आने-जाने का कोई पक्का इंतजाम नहीं किया गया है। ट्रेनें तेजी से गुजरती हैं और हाथी को न तो हरा सिग्नल दिखता है, न लाल। उसे क्या पता ट्रेन कब आएगी? जंगल में ट्रैक बना देने से वह रोज मौत का रास्ता पार करता है।

कई जगह हाथी अंडरपास भी बनाए गए हैं, जैसे चांडिल (सरायकेला-खरसावां, झारखंड) के आसनबनी और बोड़ाम क्षेत्र (पूर्वी सिंहभूम, झारखंड) के लायलोम पंचायत में। लेकिन वे इस तरह बनाए गए हैं कि हाथी उधर से कभी नहीं जाता। रास्ता इतना संकरा या गड्ढेदार होता है कि हाथी को डर लगता है। वह फिर अपना पुराना रास्ता पकड़ता है, जो अब रेलवे ट्रैक बन चुका है।

कुछ मामलों में वन विभाग और रेलवे विभाग एक-दूसरे पर दोष डालते हैं, जबकि दोनों का काम मिलकर समाधान निकालना होना चाहिए। कभी अंधेरे में हाथी ट्रैक पार करता है, और मालगाड़ी की रफ्तार इतनी तेज़ होती है कि ब्रेक लगाने का मौका तक नहीं मिलता। कई बार ट्रेन ड्राइवरों को बताया तक नहीं जाता कि यह इलाका हाथी प्रभावित क्षेत्र है और रफ्तार कम करनी है।

झारखंड के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में हाथी को सिर्फ एक जानवर नहीं माना जाता। आदिवासी समुदाय हाथी को अपने क्षेत्रीय नाम से जानते है, वे उसे अपना पूर्वज मानते हैं, इसलिए वे हाथी को आदर से देखते हैं, और सीधे नाम से नहीं बुलाते।

कई गांवों में तो हाथी के लिए खाना-पानी अलग से रखा जाता है, और उसके रास्ते को खाली छोड़ दिया जाता है। 

ऐसे में जब कोई हाथी मरता है, तो वह सिर्फ एक वन्यजीव की मौत नहीं होती, बल्कि एक सांस्कृतिक चोट भी होती है। कई आदिवासी समुदाय उस मौत को अपने पूर्वज की मौत के तौर पर देखते हैं, और शोक मनाते हैं। कुछ गांवों में बाकायदा रस्म भी की जाती है, और स्थानीय देवी-देवताओं से माफी मांगी जाती है कि वे हाथी की रक्षा नहीं कर पाए। 

कौन है जिम्मेदार?

इन सबके बीच सबसे जरूरी चीज है — जवाबदेही। अगर हाथी की मौत बिजली विभाग की लापरवाही से होती है, या रेलवे की अनदेखी से, या वन है विभाग की असावधानी से, तो उस विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों पर तत्काल प्रभाव से कार्रवाई होनी चाहिए। सिर्फ मुआवजा या कागजी जांच से कुछ नहीं होगा। जो अधिकारी दोषी हैं, उन्हें निलंबित किया जाए, उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही हो। रेलवे के अधिकारियों पर भी वही सख्ती होनी चाहिए, जो अन्य विभागों पर लागू होती है।

 झारखंड, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ — इन चारों राज्यों के जंगलों में हाथियों का आवागमन स्वाभाविक है, लेकिन हमने इंसानी सीमाओं के अनुसार राज्य विभाजित कर दिए हैं, जिससे हर राज्य की नीतियाँ हाथियों को लेकर अलग-अलग हो गई हैं।

कहीं हाथी को संरक्षित माना जाता है, तो कहीं खतरनाक; कहीं मुआवज़ा मिलता है, तो कहीं नहीं; कहीं विभाग सक्रिय होता है, तो कहीं लापरवाह। लेकिन हाथियों के लिए न तो जंगल की सीमा बदलती है और न ही उनकी जरूरतें।

इसी असंतुलन की कीमत ग्रामीण जनता को फसल, मकान और जान-माल की क्षति के रूप में चुकानी पड़ती है। इस चुनौती से निपटने के लिए ज़रूरी है कि इन चारों राज्यों में हाथियों के संरक्षण और मानव-हाथी संघर्ष को लेकर एक समान और समन्वित नीति बनाई जाए, जिसमें वन विभाग, बिजली विभाग, रेलवे और स्थानीय प्रशासन सभी की स्पष्ट भूमिका तय हो। हाथी सिर्फ झारखंड का नहीं, बल्कि पूरे पूर्वी भारत का साझा उत्तरदायित्व है — और इसका समाधान भी साझा प्रयास से ही निकलेगा।

जंगल हाथियों का घर है। अगर हम उनकी राह छीन लेंगे, तो वे हमारे रास्ते में आ ही जाएंगे। और फिर टकराव होगा, जानें जाएंगी। ज़रूरत इस बात की है कि सरकार, बिजली विभाग, रेलवे विभाग, वन विभाग, भारतीय रेल और आम लोग — सब मिलकर इस समस्या को समझें और सुलझाएं। जब तक हम हाथियों के लिए जगह नहीं बनाएंगे, तब तक वो हमारे लिए खतरा बनते रहेंगे। जबकि सच यह है कि हाथी खतरा नहीं, जंगल का रखवाला है।

झारखंड में कई जगहों पर पर्यावरणीय मंजूरी के बिना जंगल काटे गए हैं, जिससे हाथियों के रहने और घूमने की जगह कम होती गई है। अब हाथियों के झुंड को 50 किलोमीटर तक घूमना पड़ता है, और इसमें जोखिम बढ़ता है। अगर वे सही रास्ता भूल जाएं या कहीं फंस जाएं, तो न तो उन्हें खाना मिलता है, न पानी — और वे बेकाबू हो जाते हैं।

जब हम कहते हैं कि झारखंड जंगलों का राज्य है, तो इसका मतलब सिर्फ पेड़ नहीं होता। इसका मतलब है कि यहां का जीवन हाथियों, हिरणों, भालुओं, पक्षियों और सैकड़ों वन्य जीवों से जुड़ा है। अगर हम उनमें से एक को भी खोते हैं, तो हम अपना हिस्सा खो रहे हैं, अपने भविष्य से समझौता कर रहे हैं।

अगर हमें झारखंड को बचाना है — तो सबसे पहले हमें हाथियों को बचाना होगा।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं