वन्य जीव एवं जैव विविधता

लुप्त होती प्रजातियों को सहेजने में जुटा उत्तराखंड वन विभाग

Varsha Singh

नैनीताल-चंपावत की पहाड़ियों पर बेशुमार उगने वाला औषधीय पटवाडंगर बर्फ कम गिरने से कब खत्म होने के संकट तक पहुंच गया, वहां के लोग भी इसका अनुमान भी नहीं लगा सके। टिहरी में नरेंद्रनगर और कद्दूखाल की 90 डिग्री झुकी पहाड़ियों पर त्रायमाण लीवर-किडनी की बीमारियों का रामबाण इलाज करता था। लेकिन यही वजह इसके खात्मे तक पहुंच गई। औषधीय गुणों से भरपूर वनसतवा भी अवैध निकासी और जलवायु परिवर्तन जैसी वजहों से जंगल से अपना परिवार समेटने लगी। ऐसी कितनी ही जड़ी-बूटियां, पेड़-पौधे हैं जो बदलते मौसम के साथ धरती से विदा हो रहे हैं।

उत्तराखंड वन विभाग की रिसर्च विंग ने राज्य के मैदानी हिस्सों, मध्य हिमालय से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र की वनस्पतियों के संरक्षण का अभियान चलाया है। हल्द्वानी, लालकुआं, पिथौरागढ़, रानीखेत, नैनीताल, गोपेश्वर, देहरादून और उत्तरकाशी के रिसर्च रेंज में वनस्पतियों की 1145 प्रजातियां सहेजी हैं। इनमें 70 प्रजातियां आईयूसीएन (अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ), बीएसआई और उत्तराखंड जैवविविधता बोर्ड की लुप्तप्राय या खतरे की जद में शामिल हैं। 46 ऐसी प्रजातियां हैं जो सिर्फ उत्तराखंड में ही पायी जाती हैं। 386 औषधीय पौधे संरक्षित किए गए हैं। इनके बारे में आईयूसीएन समेत अलग-अलग एजेंसियों का कहना है कि हर साल 5-10 प्रतिशत पौधों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। 

उत्तराखंड वन विभाग की रिसर्च विंग के मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी कहते हैं कि आईयूसीएन खतरे की नौ श्रेणियों के आधार पर पेड़-पौधों की सूची बनाता है, लेकिन उनकी भी सीमाएं हैं। जंगल में हालात ज्यादा बिगड़े हैं। ऐसी बहुत सी जंगली प्रजातियां दिखना बंद हो गई हैं, जो पहले हमारे लिए बहुत काम की हुआ करती थीं। 

प्लांट ब्लाइंडनेस थ्योरी कहती है कि बाघ-हाथी समेत अन्य जीवों के संरक्षण की बात की जाती है, लेकिन पेड़-पौधों पर हमारा बहुत ध्यान नहीं जाता। जबकि जीवन के लिए जरूरी ऑक्सीजन, हवा साफ करने, भोजन, मिट्टी-पानी को बांधने जैसी तमाम वजहों से पेड़-पौधे हमारे लिए ज्यादा अहम होते हैं। 

पिछले तीन वर्षों से पेड़-पौधों के संरक्षण पर कार्य कर रहे संजीव चतुर्वेदी बताते हैं कि ये राज्य का सबसे बड़ा संरक्षण कार्यक्रम तो है ही, देश के बड़े कंजर्वेशन प्रोग्राम्स में से भी एक है। जिसमें पेड़, जड़ी-बूटी, झाड़ी, बांस, ऑर्किड, घास, फर्न, केन, लता, ताड़, कैक्टस, सरस, जलीय पौधे, कीटभक्षी, जंगली फूल, ऊंचे पहाड़ों के फूल, काई, कवक, शैवाल तक को संरक्षित किया गया है। मैदानी क्षेत्र से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र तक के पौधों का शोध केंद्र बनाया गया है। 

वह बताते हैं कि औषधीय गुणों की वजह से टिहरी के त्रायमाण पौधे का इतना अधिक दोहन हुआ कि इसके अस्तित्व पर ही संकट आ गया। देवबन, मंडल और मुनस्यारी के शोध केंद्र में इसके 100 पौधे तैयार किए गए हैं। जंगल से गायब होते वनसतवा का किसी भी तरह का इस्तेमाल उत्तराखंड में पूरी तरह प्रतिबंधित है। इसके पौधों को नैनीताल, मंडल और देवबन में सहेजा गया है। पटवाडांगर के 500 मध्यम आकार के पेड़ तैयार कर लिए गए हैं। जो नैनीताल के जंगलों से गायब ही हो चले थे। ऐसे भी पौधे हैं जो एक, दो या तीन की संख्या में ही मौजूद हैं। इन्हें भी संरक्षित किया गया है।

पिथौरागढ़ के मुनस्यारी में रिसर्च विंग का ट्यूलिप गार्डन पौधों को सहेजने के लिहाज से तो अनूठा प्रयोग था ही ये पर्यटन के लिए भी आकर्षण का नया केंद्र बन गया है। इसी तरह उच्च हिमालयी क्षेत्र से ब्रह्मकमल को थोड़ा नीचे लाकर उगाना भी मेहनत और धैर्य की परीक्षा सरीखा था।

संजीव बताते हैं कि समुद्रतल से करीब 3500 मीटर की ऊंचाई पर वेदिनी बुग्याल से ब्रह्मकमल के बीज लाकर चमोली के मंडल सर्कल (2300 मीटर की ऊंचाई पर) लगाया गया। यहां ब्रह्मकमल के छोटे-छोटे पौधे निकल आए। जिससे सभी बेहद ख़ुश हुए। लेकिन तीन-चार महीने के बाद सारे पौधे एकाएक खत्म हो गए। एक बार फिर से इस रहस्यमयी फूल को उसके प्राकृतिक वास से बाहर लाने की कोशिश की गई।

इस बार विशेषज्ञों से बात करके अलग तकनीक और जगह आज़माई गई। चमोली के माणा (3300 मीटर की ऊंचाई) में इसके राइज़ॉम (प्रकंद) मिट्टी समेत लाए गए। ब्रह्मकमल को आसपास चट्टानी क्षेत्र और जल स्रोत चाहिए। माणा वन पंचायत में ऐसी जगह तलाश ली गई। जहां पास ही गदेरा था। इसके साथ ही कम से कम 4-5 महीने की अच्छी बर्फ़बारी। जो कि माणा में भरपूर होती है। सर्दियों में बर्फबारी के समय यहां कोई नहीं रहता। अप्रैल में जब इसका निरीक्षण किया गया तो ये अंकुरित हो रहे थे। बह्मकमल के फूल अमूमन जुलाई अंत या अगस्त- सितंबर में खिलते हैं लेकिन माणा में जून में ही खिलने लगे।

इसी तरह हत्थाजड़ी या सालमपंजा (इसकी जड़ें इंसानी पंजे जैसी होती हैं) जैसे स्थानीय नाम वाले ऑर्किड की नेपाल-चीन में बहुत तस्करी हुई है। जिससे इनका वजूद खतरे में आ गया। कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाले थुनेर के खत्म होने के पीछे भी यही वजह है। अल्पाइन मीडोज के आखिरी वृक्ष कहे जाने वाले भोजपत्रों को सहेजना भी इसमें शामिल है।

ब्रह्मकमल, रक्तचंदन, संजीवनी, कुटकी, वज्रदंती, जटामासी, सतवार, बद्री तुलसी, सीता अशोक, मीठा विष, किलमोदा, घिंघारू, तिमुर, सर्पगंधा, ब्राह्मी, पटवा, अतीस, थुनेर, भोजपत्र, सालमपंजा (ऑर्किड), त्रायमाण, कांसी, कलिहारी, गिलोय, अमेश, कूठ, बुरांश, तुलसी की 12 प्रजातियां, कृष्णा वट, द्रौपदीमाला (ऑर्किड), वन सतवा, तिमूर, अर्जुन, कासनी, हडीजोड़, हसराज, लिमोदा, चिरायता, वन ककड़ी, दमाबूटी,  हिमालयन लिली, प्योली फूल, पटवा, रुद्राक्ष, वन पलाश, अग्नि पंठा, वन अजवायन, मुसली जैसी कई मशहूर वनस्पतियां हैं जो समय के साथ खतरे में आ गई है। वन विभाग के ये शोध केंद्र इन पेड़-पौधों की दुनिया को करीब से देखने का मौका देते हैं।

बीएसआई और एफआरआई ने पेड़-पौधों को संरक्षित किया है लेकिन इनमें उच्च हिमालयी क्षेत्र की वनस्पतियां नहीं हैं। उत्तराखंड वन विभाग की रिसर्च विंग का ये अनूठा प्रयास है। संजीव कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन जैसी वजहों से यदि इन पौधों पर यदि लुप्त होने का खतरा आता है तो हमारे शोध परिसरों में ये जीवित रहेंगे। शोधार्थी इन पर अध्ययन कर सकते हैं। इनके प्रसार के लिए काम किया जा सकेगा। इसका मकसद लोगों में पेड़-पौधों की दुनिया में दिलचस्पी जगाना भी है।