वन्य जीव एवं जैव विविधता

उत्तराखंड: अप्रैल में जंगल में आग की घटनाएं बढ़ने की वजह लोकसभा चुनाव तो नहीं?

चुनाव में वन कर्मचारियों की तैनाती को भी जंगल में आग की घटनाएं बढ़ने का कारण बताया जा रहा है

Rajesh Dobriyal

उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव के लिए 19 अप्रैल को मतदान होते ही राज्य सरकार वनाग्नि को लेकर एक्शन में आती दिखी। 20 अप्रैल को मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने वन विभाग के आला अधिकारियों के साथ एक वर्चुअल बैठक कर सतर्कता बरतने को कहा। हालांकि वन विभाग के अनुसार वनाग्नि का मौसम 15 फरवरी से 15 जून तक होता है और इस तरह सीएम के निर्देश आने में दो महीने की देर हो चुकी है। इससे पहले 14 अप्रैल को उत्तराखंड की मुख्य सचिव राधा रतूड़ी ने वन विभाग की एक उच्च स्तरीय बैठक में वनाग्नि को रोकने की तैयारियों की समीक्षा की थी।

गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड के जंगल धधकने लगे हैं. एक नवंबर, 2023 से 22 अप्रैल 2024 तक वनाग्नि की 431 घटनाएं दर्ज  हो चुकी हैं और इनसे 516.92 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। खास बात यह है कि 31 मार्च तक जंगलों में आग लगने की सिर्फ 34 घटनाएं हुई थीं और इनसे 35.25 हेक्टेयर वन क्षेत्र ही प्रभावित हुआ था। लेकिन अप्रैल के 22 दिन में वनाग्नि और उससे होने वाला नुकसान करीब 13 गुना बढ़ गया।

सवाल यह है कि क्या यह संयोग है कि इसी समय लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया उसी समय तेज हुई थी और उसमें बड़ी संख्या में वनकर्मियों को भी लगना पड़ा था। वन विभाग के आला अधिकारी तो चुनाव ड्यूटी की वजह से किसी तरह की दिक्कत होने से इनकार कर रहे हैं, लेकिन जंगल में आग बुझाने के लिए जिम्मेदार अधिकारी मान रहे हैं कि असर पड़ा है।

उत्तराखंड वन विभाग ने निर्वाचन आयोग को कई चिट्ठियां लिखकर पीक फायर सीजन में फील्ड कर्मचारियों को चुनाव ड्यूटी से मुक्त करने का आग्रह किया था। मुख्य वन संरक्षक कुमाऊं, पीके पात्रो कहते हैं कि चुनाव करवाना भी एक जरूरी ड्यूटी है, लेकिन यह कहना कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, गलत होगा। पहले ही विभाग में आवश्यकता से कम कर्मचारी हैं।

हालांकि वह विभाग का बचाव करते हुए वह कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि कुछ कर्मचारी चुनाव ड्यूटी पर हैं इसीलिए आग लग रही है. जब आग लगती है तो आमतौर पर बाहर से लोगों को काम पर लिया जाता है. जिस फ़ॉरेस्ट गार्ड की बीट होती है उसके साथ 20-25 लोग रहते हैं... मैनेज तो हो ही रहा है।

लेकिन चुनाव की वजह से फॉरेस्ट फायर मैनेजमेंट में दिक्कतें भी आई हैं। चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद मार्च के तीसरे हफ्ते में एक स्थानीय अखबार में खबर छपी कि उत्तरकाशी में जंगल जलते रहे और वन विभाग उन्हें बुझाने नहीं जा पाया, क्योंकि वन कर्मचारी चुनाव ड्यूटी में लगे हुए थे। टौंस वन प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी डीपी बलूनी ने डाउन टू अर्थ से कहा कि वनाग्नि बुझाने की पूरी कोशिश की गई, लेकिन कई बार पहाड़ों में आग बुझाना बहुत मुश्किल साबित होता है।

हालांकि उन्होंने माना कि शुरुआत में सौ फीसदी कर्मचारियों की ड्यूटी चुनाव में लगा दी गई थी। इसके बाद उन्होंने जिलाधिकारी से बात की और फिर 25-30 फीसदी कर्मचारियों को मुक्त किया गया। बलूनी कहते हैं कि हाल ही हुई नई भर्तियों को भी वनाग्नि रोकने के काम में लगाया गया है। पूरी कोशिश की जा रही है कि वनाग्नि की कोई भी घटना कर्मचारियों से छूट न जाए।

लॉकडाउन के दौरान कम लगी आग

पिछले साल यानी 2023 में वनाग्नि की 773 घटनाएं हुई थीं। इससे 933.55 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ था। 3 लोगों की मौत हुई और तीन घायल हुए। इस लिहाज से देखें तो वर्तमान साल वनाग्नि की घटनाएं बहुत ज़्यादा नहीं हैं। हालांकि पीक फायर सीज़न अब शुरू ही हुआ है।

बीते 10 साल के वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि वनाग्नि की सबसे ज़्यादा घटनाएं और नुकसान 2021 में हुआ था। उस साल वनाग्नि की 2813 घटनाओं में कुल 3943.88 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। 2021 में वनाग्नि से 10 साल में सबसे ज़्यादा, आठ लोगों की मौत हो गई थी और तीन घायल हुए थे।

2022 में 2186 वनाग्नि की घटनाओं में 3425.5 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ और 2 लोगों की मौत हुई जबकि 7 घायल हो गए।  2018 में वनाग्नि की कुल घटनाएं तो 2150 हुईं, लेकिन इनसे नुकसान सबसे ज्यादा 4480.04 हेक्टेयर वन क्षेत्र का हुआ। इस साल 6 लोग घायल हुए। 2016 में वनाग्नि की घटनाएं 2074 हुईं और 4433.75 हेक्टेयर वन क्षेत्र का नुकसान हुआ। 6 लोग मारे गए थे और 31 घायल हो गए थे।

इन आंकड़ों के उलट 2020 में कोविड-19 की वजह से लगे लॉकडाउन से वनों को सीधा लाभ मिलता दिखा। इस साल वनाग्नि की घटनाएं रिकॉर्ड कम, मात्र 135 हुईं और उनसे सिर्फ़ 172.69 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। हालांकि उस साल भी 2 लोगों की मौत हो गई थी और एक घायल हुआ था.

सामुदायिक प्रयास जरूरी

वन विभाग के आंकड़े एक और उल्लेखनीय बात की ओर इशारा करते हैं और वह यह कि वन पंचायतों में वनाग्नि की घटनाएं आम तौर पर आरक्षित वन क्षेत्र की तुलना में आधे से भी कम रही हैं। विशेषज्ञ भी यह बात मानते हैं।

उत्तराखंड वन विभाग में वनाग्नि और आपता प्रबंधन के प्रमुख मुख्य वन संरक्षक निशांत वर्मा भी कहते हैं कि वनाग्नि रोकने में सामुदायिक सहभागिता बहुत ज़रूरी है और इसे मज़बूत करने पर ज़ोर दिया जा रहा है। हाल ही में वन पंचायत नियमावली में संशोधन किया गया है और स्थानीय लोगों को वन उपज पर अधिकार दिए गए हैं।

इसके अलावा जंगल से लगे क्षेत्रों में वनाग्नि सुरक्षा समितियां बनाकर उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपी जा रही है कि वह आग न लगने दें। इसके लिए इन समितियों को बजट भी दिया जाएगा और जो वनाग्नि को रोकने में सफल होंगीं उन्हें प्रोत्साहन राशि देने पर भी विचार किया जा रहा है, इसकी कार्ययोजना बनाई जा रही है।