वन्य जीव एवं जैव विविधता

तेजी से विलुप्त हो रही हैं भारतीय पेड़ों की यह प्रजातियां

भारत को आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण पेड़ों की उन स्थानिक प्रजातियों को बचाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो तेजी से लुप्त होती जा रही हैं

धरती पर मौजूद सभी रचनाओं में पेड़ सबसे सुंदर और परिचित हैं। इनसे धरती की पहचान है। यहां मौजूद पेड़ों की करीब 60 हजार विविध प्रजातियां पृथ्वी के बायोमास का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। ये पृथ्वी के वन आवरण के वितरण, संयोजन और संरचना को नियंत्रित करने के अलावा पारिस्थितिकी सेवाएं भी मुहैया कराते हैं। पृथ्वी की जैव विविधता के विकास के साथ-साथ पेड़, जीवों व वनस्पतियों को आवास उपलब्ध कराने और भोजन, ईंधन, लकड़ी, औषधीय उत्पादों व अन्य चीजों के जरिए जीवन व आजीविका को बनाए रखने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

धरती की संवहनीयता को बनाए रखने में पेड़ों के महत्व को लेकर काफी जागरुकता के बाद भी इनकी विविधता, वितरण और संरक्षण की स्थिति को लेकर लंबे समय से हैरान कर देने वाली दूरी बनी हुई है। इस दूरी को भरने के प्रयास के तौर पर सितंबर 2021 में पहली बार “द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स ट्रीज” रिपोर्ट प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट का प्रकाशन यूके में वनस्पति संरक्षण पर काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था बोटैनिक गार्डेंस कंजरर्वेशन इंटरनेशनल (बीजीसीआई) और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर्स स्पीशीज सर्वाइवल कमिशन (आईयूसीएन/एसएससी) के तहत काम करने वाले वैज्ञानिकों और संगठनों के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क ग्लोबल ट्री स्पेशलिस्ट ग्रुप ने किया है।

यह रिपोर्ट दुनियाभर में लुप्त होने के खतरे का सामना कर रहे 58,497 पेड़ों की प्रजातियों पर 5 साल तक किए गए गहन अध्ययन का परिणाम है। रिपोर्ट का सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि दुनियाभर में 17,510 (30 प्रतिशत) पेड़ों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं, जिनमें से 142 पहले ही जंगलों में विलुप्त हो चुकी हैं। अगर इन आंकड़ों में किसी ऐसी प्रजाति को शामिल किया जाए, जिसके बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है (रिपोर्ट में “अपर्याप्त डेटा” के तौर पर वर्गीकृत) तो यह अनुमान बढ़कर 38.1 प्रतिशत हो जाता है। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में समशीतोष्ण क्षेत्रों की तुलना में सबसे ज्यादा वृक्ष विविधता है। अधिकतर प्रजातियां नियोट्रोपिक्स (40.4 प्रतिशत) में स्थित हैं, इसके बाद इंडो-मलाया क्षेत्र (23.5 प्रतिशत), एफ्रोट्रोपिक्स (15.8 प्रतिशत), ऑस्ट्रालेशिया (12.7 प्रतिशत), पेलीआर्कटिक क्षेत्र (10.2 प्रतिशत), नीआर्कटिक और ओशिनिया (प्रत्येक में 3 प्रतिशत से कम) का नंबर आता है (देखें, वैश्विक हरित क्षेत्र,)।

महत्वपूर्ण प्रजातियों को खो रहा है भारत

इंडो-मलाया और पेलीआर्कटिक क्षेत्र में आने वाला भारत दुनिया के 17 अत्यधिक विविधता वाले देशों में से एक है। हालांकि दुनियाभर के बाकी देशों की तुलना में यहां पेड़ों की प्रजातियां औसत संख्या में हैं। स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स ट्रीज रिपोर्ट के विश्लेषण और आईयूसीएन की सप्लिमेंट्री इंफॉर्मेशन से पता चलता है कि देश में पेड़ों की कुल 2,608 प्रजातियां हैं, जिनमें से 651 स्थानिक हैं। इनमें से कुल 413 प्रजातियां (18 प्रतिशत) विलुप्त होने की कगार पर हैं, 2 स्थानिक प्रजातियां-होपिया शिंगकेंग और स्टरकुलिया खासियाना पहले ही विलुप्त हो चुकी हैं। कोराइफा टैलिएरा जंगलों में लुप्त हो चुकी है। बाकी आईयूसीएन की गंभीर रूप से लुप्तप्राय (55 प्रजातियां), संकटग्रस्त (136), संवेदनशील (113), खतरे के निकट (49), कम से कम चिंता (736), अपर्याप्त डेटा (57) और मूल्यांकित नहीं की गईं (1,459) श्रेणियों में आती हैं। केवल 55 संकटग्रस्त प्रजातियां अपने प्राकृतिक आवास के बाहर संरक्षण के लिए एक्स-सीटू कलेक्शन में मिलीं और लगभग 57 संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क जैसे पार्क और रिजर्व में पाई गईं।

गंभीर रूप से लुप्तप्राय सूची में कुछ महत्वपूर्ण स्थानिक प्रजातियों में से इलेक्स खासियाना, आदिनांद्रा ग्रिफिथआई, पायरेनेरिया चेरापुंजियाना और एक्विलरिया खासियाना शामिल हैं, जो पूर्वोत्तर राज्य मेघालय में पाई जाती हैं। इसके साथ ही केरल की अगलिया मालाबेरिका, डायलियम ट्रैवनकोरिकम, सिनामोमम ट्रैवनकोरिकम व बुकाननिया बरबेरी भी इस सूची में हैं, जबकि तमिलनाडु की बर्बेरिस नीलगिरिएंसिस व मेटियोरोमिर्टस वायनाडेन्सिस के साथ ही अंडमान क्षेत्र की शायजिअम अंडमानिकम और वेंडलांडिया अंडमानिकम शामिल हैं। इन प्रजातियों से न सिर्फ लकड़ी, अगर और ईंधन के जरिए आर्थिक लाभ मिलते हैं, बल्कि इनका सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व भी है। ये प्रजातियां देश के अक्षय वनों का अभिन्न अंग हैं। 2015 से चल रहे बीजीसीआई के ग्लोबल ट्री असेसमेंट में भी इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि भारत आजीविका और पारिस्थितिक सेवाओं के लिहाज से महत्वपूर्ण पेड़ों की प्रजातियों को तेजी से खो रहा है।

इनमें मसाले (जैसे इलिसियम ग्रिफिथआई), इत्र (एक्वीलेरिया मैलाकेंसिस), दवा (कमिफोरा वाइटी), लकड़ी (मैगनोलिया लैनुगिनोज), फल (एलियोकार्पस प्रुनिफोलियस), सजावटी उत्पाद (रोडोडेंड्रोन वाटी) और ईंधन (उल्मस विलोसा) का उत्पादन करने वाली प्रजातियां शामिल हैं। इन प्रजातियों के लिए प्रमुख खतरों में वनों की कटाई, आवास को क्षति, लकड़ी और गैर-लकड़ी उत्पादों के लिए अत्यधिक दोहन, कृषि गतिविधियां और विदेशी कीटों और बीमारियों का प्रसार शामिल हैं। अत्यधिक दोहन ने देश के कुल वन क्षेत्र को काफी हद तक बदल दिया है। दुर्भाग्य से बहुत से लोग पेड़ों को “पैसे कमाने की मशीन” के रूप में देखने लगे हैं।

इससे गैर-उत्पादक प्रजातियों के स्थान पर तेजी से बढ़ने और ज्यादा मार्केट वैल्यू वाले पेड़ों को बढ़ावा मिलने से वनों के कम होने की दर तेज हो गई है। विविधता और वितरण में बदलाव से जलवायु परिवर्तन पर भी असर पड़ता है। पेड़ों की कटाई से एल्बिडो और कार्बन डाईऑक्साइड सांद्रता में बढ़ोतरी होती है, वाष्पीकरण में कमी के कारण मौसम शुष्क और गर्म होता है, जिससे जैव विविधता व खाद्य उत्पादन में कमी आती है और मरुस्थलीकरण और ग्लेशियरों के पिघलने की दर तेज होती है।

लुप्तप्राय प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित करें

स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स ट्रीज रिपोर्ट ने संरक्षण प्रयासों के लिए डेटाबेस मुहैया कर सूचनाओं की कमियों को कम करना शुरू कर दिया है। अब समय आ चुका है कि हम और अधिक प्रजातियों को विलुप्त होने से रोकें और बिगड़े हुए पारितंत्रों को फिर से बहाल करें। प्रभावी संरक्षण कार्यों के लिए पर्यावरण के लिए समर्पित नीतिगत ढांचे की आवश्यकता होती है। केंद्र सरकार ने वन संसाधनों की रक्षा के लिए तो लगातार पर्याप्त प्रयास किए, लेकिन संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण पर बहुत कम ध्यान दिया। वनवासियों को अपना दायरा बढ़ाना चाहिए।

महज सामान्य प्रजातियों के वृक्षारोपण से आगे बढ़कर वनीकरण और पुनर्जनन गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए दुर्लभ, संकटग्रस्त स्थानिक प्रजातियों को विलुप्त होने से रोकने और उनके उत्थान को बढ़ावा देने का काम करना चाहिए। इसके लिए गैर-वन उपयोगों के लिए दी गई वन भूमि की भरपाई के तौर पर स्थापित कॉम्पनसेटरी अफॉरेस्ट्रेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी (कैम्पा) जैसे विभिन्न संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। सिर्फ एक या फिर कई तरह की प्रजातियों के संरक्षण के लिए धरातल पर कार्रवाई की जा सकती है।



जैव विविधता संरक्षण, वानिकी, जलवायु परिवर्तन और संबंधित तंत्र के संबंध में नीतियां पहले से ही मौजूद हैं लेकिन दृढ़ संकल्प और प्रतिबद्धता के साथ उनका पालन और निष्पादन करने की आवश्यकता है। इस तरह की कार्रवाई न केवल जैव विविधता संकट के संरक्षण में मदद करेगी, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को भी कम करेगी। संरक्षित क्षेत्रों के औपचारिक नेटवर्क को और मजबूत किया जाना चाहिए, क्योंकि प्रजातियों की विविधता के संरक्षण के लिए अपने मूल आवास में पेड़ों के इन-सीटू संरक्षण को सर्वोत्तम विधि के रूप में जाना जाता है। प्रजातियों से संबंधित अनुसंधान गतिविधियों को भी बढ़ावा देना चाहिए और इन-सीटू संरक्षण कार्यों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

चूंकि वृक्ष संरक्षण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नीतियों और कानूनों के तहत अनिवार्य किया गया है, इसलिए संरक्षण को प्राथमिकता देने के लिए इन नीतियों में सुधार की आवश्यकता है। अधिकारियों को पारिस्थितिकी तंत्र, प्रजातियों और आनुवंशिक स्तर पर जैव विविधता के लिए एक व्यापक संरक्षण ढांचा प्रदान करने वाले कन्वेंशन ऑन बायलॉजिकल डाइवर्सिटी (सीबीडी) के लक्ष्यों का पालन करना चाहिए। अन्य संदर्भित किया जा सकने वाले स्थापित ढांचों में से एक सीबीडी की ग्लोबल स्ट्रैटेजी फॉर प्लांट कंजर्वेशन 2011-2020 है, जो विश्व स्तर पर प्रजातियों की पहचान, खतरे के आकलन और संरक्षण के लिए सबसे सफल कार्यक्रम के रूप में उभरा है।

वनों के लिए वन कानून प्रवर्तन और उन्नत शासन, अवैध कटाई और संबद्धता में कमी की बात करने वाले द यूएन स्ट्रैटिजिक प्लान फॉर फॉरेस्ट 2017-2030, ग्लोबल फॉरेस्ट गोल 5 पर भी विचार किया जाना चाहिए। इसके अलावा लुप्तप्राय जीवों व पौधों की सुरक्षा के लिए आईसीयूएन की कन्वेन्शन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इंडेंजर्ड स्पीशीज ऑफ वाइल्ड फॉना एंड फ्लोरा (सीआईटीईएस) को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। (आबिद हुसैन मीर कश्मीर विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टरल फेलो हैं और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ग्लोबल ट्री स्पेशलिस्ट ग्रुप के सदस्य हैं। अजरा एन कामिली कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर हैं)