भारत में वन कानूनों का चरित्र मूलतः औपनिवेशिक था और है। वर्ष 1865 में ब्रितानिया हुक़ूमत द्वारा लिखित और लागू प्रथम वन क़ानून में 'वन संसाधनों के दोहन' को वन प्रशासन का मूल दायित्व घोषित किए जाने के बाद खड़ा हुआ पूरा महकमा लगभग 156 बरस पुरानी रीतियों और नीतियों को आज भी ढो रहा है।
आजा-पुरखा के जंगलों में जनमे आदिवासियों और परंपरागत वन निवासियों के कौम से उनकी अपनी भूमि और वन संसाधनों के मालिकाना हकों को छीनकर वन विभाग को जंगलों का थानेदार बना देना तब भले ही औपनिवेशिक हुकूमत का राजनैतिक-आर्थिक ध्येय रहा होगा, लेकिन 156 बरस बाद भी उसी चरित्र के साथ खड़े औपनिवेशिक वन-प्रशासन के वजूद पर आज तो सवाल खड़े किए ही जाने चाहिए।
यकीनन यदि वन विभाग बनाने का वैधानिक लक्ष्य हरित क्षेत्र का संरक्षण रहा होता तो सघन वनों के क्षेत्रफल में आखिर लगातार गिरावट क्यों जारी है? यदि वन विभाग का प्रशासनिक दायित्व वन भूमि की रक्षा थी/है तो लाखों हेक्टेयर वनभूमि के अधिग्रहण पर वो मौन क्यों हैं ?
यदि वन विभाग का वित्तीय दायित्व वन संसाधनों से अधिकाधिक राजस्व अर्जित करना है तो स्वयं विभाग द्वारा किये जाने वाले निर्वनीकरण पर वे आंखे क्यों मूंदे हुए हैं?
और फिर यदि वन विभाग का नैतिक दायित्व समस्त जीवों की रक्षा है तो आदिवासियों के विरुद्ध विभाग के अमानवीय व्यवहारों के लिए आखिर ज़िम्मेदार कौन हैं?
ज़ाहिर है, अक्सर कठिन सवालों के सरल जवाब नहीं होते। भारत में वनाधिकार कानून (2006) को लिखे जाने और लाये जाने और लागू किये जाने के जद्दोजहद में हुये आंदोलनों के संक्षिप्त इतिहास के बरअक्स इसे देखा-समझा जा सकता है।
वर्ष 1927 के भारतीय वन अधिनियम की वैधानिक मंशा, समस्त वन संसाधनों को राजस्व के रूप में अपघटित किए जाने की थी/है। बाद के बरसों में वन प्रशासन के आक्रामक रवैये से लाखों आदिवासियों को वनग्रामों के नाम पर गुलाम बनाकर बेगारी के लिये मजबूर किये जाने की अनगिनत कथाओं में वन विभाग का औपनिवेशिक चरित्र समझा जा सकता है।
वास्तव में तत्कालीन औपनिवेशिक क़ानूनों के विरुद्ध अनेक आदिवासी नेतृत्व ने बगावत की थी। छत्तीसगढ़ के नगरी-सिहावा क्षेत्र (धमतरी) में वर्ष 1922-30 के जंगल सत्याग्रहों के दौरान आदिवासी समाज ने एकजुट होकर इसी बेगारी प्रथा को सार्वजनिक चुनौती दी, जिसके परिणामस्वरूप तत्कालीन वन प्रशासन को बेगारी प्रथा समाप्त करना पड़ी।
लेकिन स्वाधीन भारत में वर्ष 1980 में भारतीय वन संरक्षण अधिनियम के नाम पर आदिवासी (और परंपरागत वन निवासी) तथा जंगल के मध्य जो लक्ष्मणरेखा खींच दी गई, उसके पीछे का आधा-अधूरा सच बरसों बाद ही बाहर आ पाया।
दरअसल अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के तथाकथित 'सरल ऋण' के एवज में पूरे आदिवासी समाज को ही 'अतिक्रमणकर्ता' मान लिए जाने के लिए नये सिरे से वैधानिक प्रावधान सुनिश्चित किए गए, वन्यजीव संरक्षण के नाम पर आदिवासियों को जंगलों से बलपूर्वक खदेड़ा गया।
वनसंपदा के बंदरबाट के लिये संयुक्त और सामुदायिक वन प्रबंधन का प्रपंच रचा गया। और फिर इन सबका समग्र परिणाम यह रहा कि लगभग 80 लाख आदिवासियों को उनके अपने जंगलों से हमेशा के लिए जुदा कर दिया गया।
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में वर्ष 1983 में स्थापित उदंती अभ्यारण्य में छत्तीसगढ़ के राजकीय पशु - वनभैंसे के संरक्षण के लिए कई गांवों की जंगल और जमीन को चिन्हांकित किया गया।
वनभैंसा विलुप्ति के कगार पर है, इसीलिये इसे इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर द्वारा बेहद संवेदनशील लाल-सूची में रखा गया है और जिनके संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है।
बहरहाल, वन महकमे में वनभैंसों के संरक्षण के नाम पर नई योजनाए आईं, विभाग बने, नई नियुक्तियां हुईं, बजट बने और जंगल के मालिक कमार, भुंजिया और गोंड आदिवासियों को 'लाभार्थी' का नया नाम दिया गया।
एक अनुमान के मुताबिक़ विगत 28 बरसों में उदन्ती अभ्यारण्य के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च कर दिए गए। उदन्ती अभ्यारण्य संघर्ष समिति के टीकम सिंह नागवंशी कहते हैं कि वनभैंसे के संरक्षण के नाम पर विगत 38 बरसों से लगभग 17 गावों के हजारों लोगों के निस्तार के अधिकार को वन विभाग ने प्रतिबंधित कर रखा है, ऐसे में इस षड्यंत्र के लिए क्यों नहीं वन विभाग को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए?
वन विभाग, मौजूदा वन क़ानूनों के नैतिक-राजनैतिक तर्कों और प्रशासनिक समीकरणों से अपने आपको निर्दोष साबित करने की कोशिश करता रहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि सरकारी संस्थानों की बुनियाद पर टिके वन प्रशासन में स्थानीय समाज का स्थान हमेशा से दूसरे दर्ज़े का ही रहा है।
वर्ष 1996 के पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम और वनाधिकार क़ानून (2006) के संविधानसम्मत प्रावधानों में आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के अधिकारों को वैधानिक मान्यता दी गयी थी/है, उसे औपनिवेशिक भारतीय वन अधिनियम (1927) और भारतीय वन संरक्षण अधिनियम (1980) पर आधारित वन प्रशासन लगातार खारित करता रहा है।
यही कारण है इन वन क़ानूनों और उसके लाभार्थी -वन विभाग के पूर्वाग्रहों के चलते जंगलों के मालिक और संरक्षणकर्ता आदिवासी (और अन्य परंपरागत वनवासियों) को न्याय और अधिकार मिलना लगभग असंभव है।
पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (1996) के आधे-अधूरे प्रशासनिक तंत्र और वनाधिकार क़ानून के क्रियान्वयन में वन प्रशासन की वांछित-अवांछित भागीदारी का ही परिणाम है कि आज ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति दिलाने के वैधानिक वायदों के डेढ़ दशक के बाद भी बहुसंख्यक आदिवासी समाज अपने अधिकारों के लिए आवेदकों की कतार में बेबस खड़ा है।
वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायलय की टिप्पणियों के बाद वनों की क्षति के एवज में प्राप्त वित्तीय राशि के प्रबंधन और उपयोग हेतु 'क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण अधिनियम' (कैम्पा क़ानून) लिखा और लागू किया गया।
प्रारंभ से ही यह विचार व्यक्त किया गया कि समाज से अधिग्रहित ज़मीन और जंगल के एवज में प्राप्त क्षतिपूर्ति राशि का अधिकार भी समाज का ही है और होना चाहिये। लेकिन कैम्पा क़ानून का तंत्र - औपनिवेशिक तर्कों के आधार पर गढ़ते हुए क्षतिपूर्ति राशि के नियोजन और नियामन का दायित्व वन विभाग को दे दिया गया।
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के वन विभाग द्वारा कैम्पा फण्ड का दुरूपयोग करते हुए अपने स्वयं के हितों की पूर्ति हेतु चौपहिया वाहन ख़रीद लिए गए। सत्य तो यह है कि ऐसी व्यवस्था में आदिवासी समाज के न्याय और अधिकार हमेशा सवालों के घेरे में बने रहेंगे।
आज वनों की रक्षा के लिये आदिवासी और वन विभाग दोनों ही अपने-अपने दावों और दायित्वों के साथ खड़े हैं। और जंगल बचाने की जिद में दोनों के मध्य उन क़ानूनों की स्थापित इबारतें हैं, जहां उन्हें एक दूसरे को सहयोगी नहीं, वरन प्रतिद्वंदी मानना जरूरी हो चला है।
वन विभाग और आदिवासी दोनों का परस्पर विश्वास इतना खंडित हो चुका है कि आदिवासी और वन विभाग दोनों एक दूसरे के बिना ही जंगल को एक दूसरे से बचाने आमने-सामने खड़े हैं।
वन विभाग का संदर्भ यदि औपनिवेशिक 'भारतीय वन अधिनियम 1927' है तो आदिवासी समाज की नई उम्मीद आजाद भारत का अपना लिखा नया 'वनाधिकार क़ानून 2006' है।
जाहिर है नए द्वंद ‘समुदाय केंद्रित वनाधिकार क़ानून’ द्वारा स्थापित और मान्यता प्राप्त ग्रामतंत्र तथा ‘प्रशासन केंद्रित भारतीय वन अधिनियम’ द्वारा लादे गये राज्यतंत्र के मध्य गहराते फासलों के हैं।
आज राज्य व्यवस्था के समक्ष समाधान के अवसर सीमित और स्पष्ट हैं। जनतंत्र का बुनियादी उसूल कहता है कि वनाधिकार क़ानून के समाज केंद्रित व्यवस्था को, वैधानिक और प्रशासनिक सर्वोच्चता दी जाए। और ऐसा नहीं हो पाने का अवांछित घातक परिणाम होगा शेष जंगल और आदिवासी समाज को ऐतिहासिक अन्यायों के कठघरों में धकेल देना जहां मुक्ति का मार्ग समाप्त हो जाता है। आज आदिवासी समाज मुक्ति के मुहाने पर अपने मुट्ठी भर अधिकारों की उम्मीद में निहत्था खड़ा है।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)