वन्य जीव एवं जैव विविधता

संवैधानिक अधिकार के लिए संघर्ष

Bhagirath

आज यानी 26 नवंबर को संविधान दिवस है। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने भारत का संविधान अपनाया था। यह संविधान विश्व के श्रेष्ठतम संविधानों में एक माना जाता है। इसकी तमाम खूबियों में एक खूबी पांचवी अनुसूची भी है। पांचवी अनुसूची 10 राज्यों के आदिवासी इलाकों में लागू है। यह अनुसूची स्थानीय समुदायों का लघु वन उत्पाद, जल और खनिजों पर अधिकार सुनिश्चित करती है। लेकिन दुख की बात यह कि भारत के आदिवासी क्षेत्रों में पांचवी अनुसूची में दिए गए सांवैधानिक अधिकार को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। यही वजह है कि आदिवासी इलाकों में पत्थरगड़ी जैसे आंदोलन जोर पकड़ रहे हैं और आदिवासी गांव का स्वशासन हाथ में लेकर गांव गणराज्य की घोषणा कर रहे हैं। ऐसी कई मिसालें हैं जहां गांव गणराज्य कामयाबी की नई इबारतें लिख रहे हैं।

जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के अधिकार और गांव गणराज्य को अंग्रेजी हुकूमत ने भी मान्यता दी थी। लार्ड रिपन ने 1832 को हाउस ऑफ कॉमन्स की चयन समिति को लिखा था “ग्रामीण समुदाय कुछ हद तक गणराज्य हैं। इन्हें जिस चीज की जरूरत होती है, उसका इंतजाम खुद कर लेते हैं। किसी भी विदेशी संपर्क से वे लगभग अछूते हैं।” रिपन की चेतावनी और 1857 के विद्रोह के बाद गांव गणराज्य अंग्रेजों के निशाने पर आ गए। ब्रिटिश सरकार ने व्यवस्थित तरीके से गांवों का नियंत्रित करने की कोशिश की ताकि वे अपना महत्व खो दें। अंग्रेजों ने सबसे पहले गांव क परंपरागत प्रशासनिक व्यवस्था और कानूनी शक्तियों को कमजोर करने की कोशिश। हालांकि इसमें वे पूरी तरह सफल नहीं हो सके क्योंकि इसके लिए हर गांव में पूरे समाज से लड़ने की जरूरत थी। अंतत: वे आदिवासी क्षेत्रों से पीछे हट गए और इसे एक्सक्लूडेड क्षेत्र के रूप में संबोधित किया (बाद में भारतीय संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची में इस क्षेत्र को स्वायत्तता का दर्जा हासिल हुआ)।  

पिछले कई दशकों से एक तरफ जहां केंद्र और राज्य सरकारों के बीच गांव गणराज्यों के भविष्य पर बहस हो रही है, वहीं दूसरी तरफ ऐसी नीतियां बनाई जा रही हैं जिससे उनके सीमित संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित किया जा रहा है। सरकार के व्यवसायिक हितों की पूर्ति का माध्यम वन कानून बन गया है। इस कानून के जरिए भूमि का बड़ा हिस्सा वन में तब्दील कर दिया गया है। 1871 का कैटल ट्रेसपास एक्ट अब भी बना हुआ है। यह कानून में वन क्षेत्र को संरक्षित करने की वकालत करता है। इस कानून के कारण ग्रामीण चारा लेने के लिए वन में जाने से वंचित कर दिए गए। पशुओं की भी वनों में चरने की मनाही है। वनों से लकड़ी का व्यवसाय करने के लिए वन निगम गठित कर दिए गए। स्थानीय लोगों का इन निगमों से संघर्ष बढ़ रहा है। ग्रामीणों का मजबूरी में इन निगमों का अपने वन उत्पाद बेचने पड़ रहे हैं। इसी तरह 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की मदद से सरकार ने आदिवासी गांवों में भूमि का अधिग्रहण शुरू कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नीति के तहत पानी का केंद्रीयकरण कर दिया गया। सभी जलस्रोत सिंचाई विभाग के अधीन कर दिए गए। पंचायत ऐसे विभागों के लिए एजेंट के रूप में काम करती रही।

1960 के दशक के मध्य में राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान ने एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया और यह पाया कि ये संस्थान सरपंच की जागीर बन गए हैं। सर्वेक्षण में स्वशासन के लिए नोडल एजेंसी के रूप में ग्रामसभा के पुनरोद्धार की सिफारिश की गई। 1957 में जाने माने समाजसेवी बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। समिति को ग्रामीण स्तर की सामुदायिक कार्यक्रमों के पतन के कारणों का पता लगाना था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की। सरकार को आधिकारिक रूप से इस व्यवस्था को अपनाने में 35 साल लग गए। 1992 में पंचायती राज अधिनियम के बाद इसे लागू किया गया। स्वशासन के संवैधानिक प्रावधान के बावजूद राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते इसे लागू नहीं किया जा सका। राजीव गांधी फाउंडेशन की स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार, पंचायतों पर प्रभाव डालने क लिए ग्रामसभा को आवश्यक अधिकार नहीं दिए गए।

1996 में पंचायती (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) कानून अर्थात पेसा लागू हो गया। यह कानून पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों के लिए है। यह कानून सैद्धांतिक रूप से गांवों को स्वायत्तता देता है। भूरिया समिति की सिफारिशों के बाद यह कानून बन पाया। पेसा ग्रामसभा को सशक्त बनाता है और उसे लघु वन उत्पाद, सिंचाई और लघु खनिजों पर स्वामित्व प्रदान करता है। इसके तहत ग्राम सभा की सिफारिशें मानने के लिए पंचायतें बाध्य हैं। सही अर्थों में इसकी व्याख्या की जाए तो पता चलेगा कि गांव में प्रवेश के लिए ग्रामसभा की अनुमति की जरूरत है।

1996 में उच्चतम न्यायालय के एक आदेश के बाद पांचवी अनुसूची के प्रावधान प्रकाश में आए। न्यायालय का आदेश था कि अनुसूचित क्षेत्रों में सभी प्रकार के खनन और उद्योग गैरकानूनी हैं क्योंकि इसके लिए ग्रामसभा की इजाजत नहीं ली गई। न्यायालय ने ग्रामसभा की भूमिका को परिभाषित किया और खनन व अन्य कंपनियों को आदेश दिया कि वे अपने राजस्व को कोऑपरेटिव के माध्यम से स्थानीय लोगों के साथ साझा करें।

एक तरफ जहां उच्चतम न्यायालय ने ग्रामसभा के महत्व पर प्रकाश डाला वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने 2001 में संविधान में संशोधन कर ग्रामसभा के अधिकारों को सीमित करने की कोशिश की लेकिन पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायण के कारण अपने मकसद में सफल नहीं हो पाई।

न्यायालय के आदेश और सांवैधानिक प्रावधान के बावजूद राज्यों ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा को अधिकार नहीं दिए हैं। केवल मध्य प्रदेश ने इस दिशा में पहल की है और ग्रामसभा के अधिकारों को स्पष्ट किया। पेसा कानून के तहत वन और भूमि से संबंधित कानूनों में संशोधन की जरूरत है क्योंकि इस संसाधनों पर ग्रामसभा का अधिकार है। इसके उलट सरकार ने इंस्पेक्टर जनरल एससी चड्डा की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी। समिति को यह देखना था कि पेसा के तहत लघु वन उत्पाद ग्रामसभा को सौंपने कितना कारगर है। समिति ने न केवल ग्रामसभा को यह अधिकार सौंपने का विरोध किया बल्कि सरकार को इसे अपने अधीन रखने की सिफारिश कर दी। यही वजह है कि बहुत से गांव गणराज्यों ने लघु वन उत्पाद को अपने हाथों में लेने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया है। 

रांची के गैर सरकारी संगठन जल-जंगल-जमीन से जुड़े संजय बासु मलिक कहते हैं, "आदिवासियों की जमीन हथियाने के प्रयास बहुत सालों से हो रहे हैं। पिछले दो सालों में इस दिशा में हो रहे प्रयास तेज हुए हैं। सरकार के येन केन प्रकारेन आदिवासियों की जमीन लेने के प्रयास में है। उन्होंने बताया “जब से यह सरकार आई है, तब से आदिवासियों के जमीन लेने के लिए कई सारे कानून में संशोधन के प्रयास किए गए, जैसे छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी), 1908 और संथाल परगना अधिनियम (एसपीटी), 1949। सरकार ने 2016 में इसे संसोधित करने के प्रयास किए। इससे लोग उद्वेलित हो गए। बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ और उसी समय लोगों को लगने लगा कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार इस क्षेत्र को पांचवी अनुसूची के अंतर्गत मान्यता ही नहीं दे रही है।” पेसा कानून का भी प्रतिपालन नहीं हो रहा है।