वन्य जीव एवं जैव विविधता

खास रिपोर्ट: कोयले का काला कारोबार-दो

कोविड-19 लॉकडाउन के बावजूद जून 2020 में कोयले की खानों की नीलामी की प्रक्रिया शुरू हुई, लेकिन इसके पीछे पूरी कहानी क्या है?

Ishan Kukreti

जून में जब नए कोयला ब्लॉकाें की नीलामी शुरू हुई, तब प्रधानमंत्री ने कहा कि इससे कोयला क्षेत्र को कई वर्षों के लॉकडाउन से बाहर आने में मदद मिलेगी। लेकिन समस्या यह है कि कोयले के भंडार घने जंगलों में दबे पड़े हैं और इन जंगलों में शताब्दियों से सबसे गरीब आदिवासी बसते हैं। कोयले के लिए नए क्षेत्रों का जब खनन शुरू होगा, तब आदिवासियों और आबाद जंगलों पर अनिश्चितकालीन लॉकडाउन थोप दिया जाएगा। डाउन टू अर्थ ने इसकी पड़ताल की। पहली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। प्रस्तुत है इस पड़ताल करती रिपोर्ट की दूसरी कड़ी-

कोयला खनन के लिए हर बार जंगल ही दांव पर लगते हैं

यह दुखद है कि कोयला और अन्य खनिज वहीं पाए जाते हैं, जहां सबसे सघन जंगल मौजूद हैं। आधुनिक कार्टोग्राफी (मानचित्रकला) दिखाती है कि भारत की प्रमुख नदियों का स्रोत एवं वन्य पशुओं की शरणस्थली ये वन ही हैं। यही वह भूमि भी है, जहां आदिवासी समुदाय रहते हैं (अनुसूची V क्षेत्र, जैसा कि संविधान में परिभाषित किया गया है)। संसाधनों के होने का अभिशाप यह है कि ये भूमि खनन के कारण तबाह हो गई हैं और जो लोग वहां रहते हैं वे सबसे गरीब हैं।

1980 में वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) (जिसके अंतर्गत सभी “गैर वन “ उद्देश्यों के लिए वनों के “डायवर्जन” को केंद्र द्वारा मंजूरी आवश्यक है) के लागू होने के बाद से भारत सरकार ने पांच लाख हेक्टेयर भूमि खदानों के लिए खोद डाली है। इसका एक बड़ा हिस्सा कोयले के लिए है। सरकार के ई ग्रीनवाच पोर्टल से लिए गए आंकड़े दिखाते हैं कि “डायवर्ट” किए गए जंगलों का एक तिहाई हिस्सा कोयला एवं अन्य खनिजों के लिए था।

2007 और 2011 के बीच (11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान, जब यूपीए सरकार केंद्र में थी ) दो लाख हेक्टेयर वनभूमि को डायवर्ट किया गया था। इसमें से 26,000 हेक्टेयर भूमि कोयले के लिए थी।

इस डायवर्जन का बड़ा भाग वैसी खदानें थीं जिन्हें पहले यूपीए सरकार द्वारा आवंटित किया गया था, फिर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया और अब एनडीए सरकार द्वारा नीलाम किया गया। हमारे देश ने पहले ही अपनी वन संपदा के रूप में खनिजों की भारी कीमत चुकाई है। अब सवाल यह है कि और अधिक जंगलों को छेनी हथौड़ी से खोदे जाने की क्या आवश्यकता है।

समस्या आंशिक रूप से इसलिए भी है क्योंकि सरकार अपने स्वयं के कोल इंडिया लिमिटेड के बारे में बहुत कुछ नहीं कर सकती है। कोल इंडिया लिमिटेड के पास अधिकांश कोयला भंडार का स्वामित्व है। दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी केंद्र सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के अनुमानों के अनुसार, यह पीएसयू भारत के घरेलू कोयले का 80 प्रतिशत से अधिक का उत्पादन करता है और 2,00,000 से अधिक खदान लीज के क्षेत्रों पर नियंत्रण रखता है। इनमें से अधिकांश किसी जमाने में जंगल हुआ करते थे। कोल इंडिया का अनुमानित भंडार 64 करोड़ टन है। इसने पिछले साल 700 मिलियन टन का उत्पादन किया। विशेषज्ञों का कहना है कि यह क्षमता से कम है तो निजी निवेशकों के लिए एक खुला निमंत्रण क्या एकमात्र विकल्प है? यह मुख्यतः फूट डालो और राज करो रणनीति है। पहले ही डायवर्ट एवं बर्बाद की गई भूमि को पहले ठीक किए जाने के बजाय और भी ज्यादा जंगल काट दिए जाते हैं। इनमें से अधिकांश जंगल बेशकीमती और सघन किस्म के हैं, जिनमें समृद्ध जैव विविधता है। इसीलिए इसे संरक्षित किया गया था। अब यह भी खत्म हो जाएगा।

ये गया, वो गया, चला गया

नो-गो के रूप में चिह्नित किए गए कोयला ब्लॉकों की संख्या कैसे कम हुई 
2010 - पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ) और कोयला मंत्रालय (एमओसी) ने 222 कोयला ब्लॉकों का अध्ययन किया और उन्हें “नो-गो” क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया 

2011 - नो-गो ब्लॉक की संख्या घटकर 153 रह गई

2012 - एमओईएफ ने वैसे अनछुए वन क्षेत्रों (जहां किसी भी अप्राकृतिक गतिविधि से अपरिवर्तनीय क्षति होगी) की पहचान करने के लिए पैरामीटर बनाने हेतु एक समिति बनाई। ये छह पैरामीटर हैं: हाइड्रोलॉजिकल मूल्य, लैंडस्केप अखंडता, वन्य जीवन मूल्य, जैविक समृद्धि, वन के प्रकार और कुल वन क्षेत्र 

2014 - सरकार ने भारत के वन सर्वेक्षण विभाग को  793 कोयला ब्लॉकों का विश्लेषण करने के लिए एक अध्ययन करने  को कहा और उन्हें “इनवॉयलेट” (अखंडित )और “ नॉट इनवॉयलेट” (खंडित ) के रूप में वर्गीकृत करने को भी कहा। एफएसआई एक जीआईएस आधारित निर्णय समर्थन प्रणाली बनाता है जो एमओईएफ समिति द्वारा निर्धारित मापदंडों का उपयोग करता है। एफएसआई ने अगस्त में अपनी रिपोर्ट को में “इनवॉयलेट” (अखंडित) कोयला ब्लॉक की संख्या को घटाकर केवल 35 कर दिया

2015
- एमओईएफसीसी और एमओसी की एक बैठक में ब्लॉकों के “अखंडित” घोषित किए जाने के मापदंडों को शिथिल किया जाता है और हसदेव-अरंड कोलफील्ड में पटुरिया, पिंडराक्षी, केंट एक्सटेंशन और परसा ईस्ट जैसे ब्लॉक, मांड-रायगढ़ कोयला क्षेत्र में तालापल्ली और सिंगरौली कोयला क्षेत्र में अमेलिया नॉर्थ को “अखंडित “ श्रेणी से बाहर कर दिया जाता है। 

 


“नो-गो“ घोषित की गई 12 खदानें नीलाम की जाएंगी


जून, 2020 में जिन 41 खदानों की नीलामी घोषणा की गई है, उनमें 12 को 2010 में नो-गो के रूप में वर्गीकृत किया गया था। छत्तीसगढ़ में मांड-रायगढ़ कोयला क्षेत्र में 4 ब्लॉकों में से दो और हसदेव-अरण्य कोलफील्ड में सभी तीन ब्लॉक नो-गो थे। झारखंड में, उत्तरी करनपुर कोलफील्ड के 5 ब्लॉकों में से तीन को नो-गो के रूप में चिह्नित किया गया था। मध्य प्रदेश में सिंगरौली कोलफील्ड में तीन में से दो ब्लॉकों को नो-गो के रूप में वर्गीकृत किया गया था। ओडिशा के तालचर कोलफील्ड और महाराष्ट्र की वर्धा घाटी में एक-एक ब्लॉक भी इसी श्रेणी के हैं। वास्तव में, सरकार लंबे समय से इन कोयला ब्लॉकों पर नजर गड़ाए हुए है।

हसदेव-अरण्य में फूट डालो और राज करो : यह छत्तीसगढ़ के कोरबा, सरगुजा और सूरजपुर जिलों में स्थित एक अत्यधिक जैव विविधता वाला और पारिस्थितिक रूप से नाजुक वन है। देश में जंगल के इस सबसे बड़े खंड में हजारों की संख्या मंे साल, महुआ और तेंदू के पेड़ हैं। यह 1,70,000 हेक्टेयर में फैला है और हसदेव-बांगो जलाशय और हसदेव नदी (महानदी की एक सहायक नदी है) के वाटरशेड में स्थित है। यह हाथी कॉरिडोर का भी हिस्सा है जो झारखंड में गुमला जिले तक फैला हुआ है। एक पूरी तरह से बंद क्षेत्र अब कोयला खनन के लिए तेजी से खुल रहा है।

1993 से 2011 के बीच वह अवधि जब आवंटन शुरू हुआ और जब खनन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया गया। जब इस क्षेत्र के 20 कोयला ब्लॉकों में से 17 को एमओसी द्वारा खनन के लिए दे दिया गया। 1993 में कोल माइंस (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1973 में किए संशोधन के बाद एमओसी ने सीमेंट, स्पंज आयरन और अन्य उद्योगों में कैप्टिव उपयोग के लिए 218 कोयला खदानें आवंटित की थीं। जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2014 के फैसले में, 204 पट्टों को रद्द कर दिया, तो हसदेव में दिए गए 17 पट्टों में से 15 को भी रद्द कर दिया गया। शीर्ष अदालत में इस मामले की सुनवाई के दौरान ही एमओईएफ एवं एमओसी द्वारा तैयार की गई सूची ने हसदेव-अरण्य के सभी 20 कोल ब्लॉकों को “नो-गो” घोषित कर दिया था। 2011 में सूची को संशोधित किया गया था। नो गो ब्लॉकों की संख्या 153 हो गई थी। लेकिन हसदेव-अरण्य को गो क्षेत्र के रूप में शामिल नहीं किया गया था। यह जंगल कुछ समय के लिए तो बच गया था लेकिन खतरा अब भी मंडरा रहा है।

गो और नो-गो सूची बनाने में एमओईएफ ने वन संरक्षण को प्राथमिकता दी जबकि एमओसी की चिंता कोयला उत्पादन था। सूची विवादास्पद थी और एमओसी को स्वीकार्य नहीं थी। 2012 में, “अखंडित” वन क्षेत्रों की पहचान करने के लिए मापदंडों को तैयार करने के लिए एक और समिति की स्थापना की गई थी। समिति ने इसके लिए 6 मापदंडों की पहचान की। देहरादून स्थित फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) को कमेटी द्वारा निर्धारित मापदंडों का उपयोग करके अखंडित क्षेत्रों की पहचान करने का काम सौंपा गया था। 2014 तक, नो-गो ब्लॉकों की संख्या 222 से घटकर मात्र 35 रह गई थी।

इस बार हसदेव-अरण्य बच नहीं पाया। एफएसआई ने इसे “अखंडित” क्षेत्रों में से हटा दिया। हसदेव में कुल 20 ब्लॉकों में से केवल 8 को नो गो या अखंडित के रूप में वर्गीकृत किया गया था। 2018 में, परसा पूर्व और परसा ब्लॉक को राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित किया गया था। पटुरिया और केंट एक्सटेंशन ब्लॉक 2015 में छत्तीसगढ़ स्टेट पावर जनरेशन कंपनी लिमिटेड के पास गए। इन पीएसयू ने अब माइन डेवलपर एवं ऑपरेटर नामक एक ऐसी व्यवस्था बनाई है, जो गुजरात की मैसर्स अडानी लिमिटेड को इन खदानों में काम करने की अनुमति देती है।

प्राचीन वनों का विनाश यहीं नहीं रुका: जून 2020 में नीलामी के लिए डाले गए ब्लॉकों की सूची में मोरगा दक्षिण भी शामिल है, जो हसदेव-अरण्य के अंतिम शेष ब्लॉकों में से एक है। इस क्षेत्र में 97 प्रतिशत वन आवरण है और इसे पहले कभी आवंटित या नीलाम नहीं किया गया था। हसदेव-अरण्य के समृद्ध जंगल तेजी से घटते जा रहे हैं, वहीं पड़ोसी मंडी-रायगढ़ कोयला क्षेत्र में 48 गो ब्लॉक हैं, जो भले ही आवंटित कर दिए गए हों लेकिन उनमें से कई अभी चालू नहीं हैं।

सोहागपुर के सभी ब्लॉक बिक्री के लिए: मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के इस कोलफील्ड में 110 ब्लॉक हैं, इनमें से 22 ब्लॉक 2010 की सूची के अनुसार नो-गो क्षेत्रों में हैं। जब 2015 में नो-गो सूची का नाम बदलकर “अखंडित लिस्ट” रखा गया, तो यह संख्या घटकर मात्र एक रह गई। मरवाटोला ब्लॉक को अखंडित क्षेत्र रूप में बरकरार रखा गया था क्योंकि यह बांधवगढ़ और अचनकमार बाघ अभयारण्यों के बीच स्थित है, जिसे भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून ने 2014 में चिन्हित किया था। लेकिन सरकार ने अब सोहागपुर कोलफील्ड में अंतिम बचे अखंडित ब्लॉक को भी तोड़ने का फैसला किया है और मरवाटोला को जून 2020 की नीलामी सूची में शामिल किया है।

 कल पढ़ें, अंतिम कड़ी-