वन्य जीव एवं जैव विविधता

मानव वन्यजीव संघर्ष: उत्तराखंड से दूसरे राज्यों में भेजे जा सकेंगे जंंगली जानवर या कोई और है हल?

DTE Staff

राजेश डोबरियाल 

उत्तराखंड के टिहरी जिले के मलेथा में 23 फरवरी 2024 को वन विभाग ने एक गुलदार को मार गिराया था। इस गुलदार ने 24 घंटे के अंदर 9 लोगों पर हमला कर उन्हें घायल कर दिया था। इनमें चार वनकर्मी भी थे,  लेकिन इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद सवाल उठा कि जब गुलदार को जिंदा पकड़ा जा सकता था तो उसे मारा क्यों गया? 

उत्तराखंड मानव-वन्यजीव संघर्ष के मामलों में सबसे ज़्यादा संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। यहां तीन साल में मानव-वन्यजीव संघर्ष में 1,222 लोग घायल हुए हैं या मारे गए हैं। यानी हर साल औसतन 407 लोगों पर वन्यजीवों ने हमला किया। इसी अवधि के दौरान यानी एक जनवरी, 2021 से मार्च 2024 के मध्य तक 16 तेंदुओं को मारा गया है। 

वन विभाग के अनुसार साल 2008 में 2,335 तेंदुए थे, जो अब बढ़कर 2,928 हो गई है। हालांकि हाल में जारी लेपर्ड स्टेटस रिपोर्ट 2022 में भारतीय वन्यजीव संस्थान के अनुसार उत्तराखंड में तेंदुए पिछली गणना के अनुपात में 187 कम हुए हैं लेकिन संस्थान के वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि उत्तराखंड में तेंदुओं के निवास स्थल के 50 फीसदी का ही अब तक सर्वेक्षण किया गया है। 

जंगलों की जानवरों को रखने की क्षमता पूरी हुई?

भारतीय वन सर्वेक्षण की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में अभिलिखित वन क्षेत्र 3,812 हेक्टेयर है जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 71.05 प्रतिशत है। यह देश के अभिलिखित वन क्षेत्र के औसत 23.58 के तीन गुना से अधिक हैं। इसके बाद भी यहां वन्यजीवों और इंसानों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है और मलेथा की तरह आबादी क्षेत्रों में पहुंच रहा है।  

23 फरवरी, जिस दिन मलेथा में गुलदार को मारा गया था, उसी दिन मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा था कि राज्य के सभी रेस्क्यू सेंटर भर गए हैं, इसलिए समस्याग्रस्त वन्यजीवों को अन्य राज्यों में शिफ्ट  करने के लिए वन विभाग के अधिकारी बात करें। 

वन विभाग ने भारती वन्यजीव संस्थान से राज्य के टाइगर रिजर्वों, जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और राजाजी टाइगर रिजर्व की वहनीय क्षमता (कैरिंग कैपेसिटी) का आकलन करने का आग्रह भी किया है। 

प्रोफेसर कमर कुरैशी देश और दुनिया में  बाघ और तेंदुए के सबसे बड़े जानकारों में से एक हैं। वह कहते हैं कि जंगलों की कैरिंग कैपेसिटी का सही पता तो अध्ययन के बाद ही चल पाएगा, जो वर्ल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया कर रहा है, लेकिन यह बात तो साफ है कि उत्तराखंड में बाघों और तेंदुओं की संख्या बढ़ चुकी है और जंगल भरे हुए हैं । 

कुरैशी कहते हैं कि तेंदुओं के हमले बढ़ने की वजह उनके व्यवहार में है। जब तेंदुओं के बच्चे जवान हो जाते हैं तो उनके मां-बाप उन्हें बाहर धकेल देते हैं और वह अपना इलाका ढूंढ़ने के लिए निकलते हैं। अगर जंगल भरे हुए नहीं होते तो भी ये बाहर निकलते ही और जंगल, शहर, गांव होते हुए ऐसी जगह ढूंढ़ते हैं जहां दूसरे तेंदुए न हों और खाना मिल सके। 

शहरों के आस-पास जहां कूड़ा फेंका जाता है और मरे हुए मवेशियों की डंपिंग की जाती है तो वहां तेंदुए पहुंच जाते हैं क्योंकि वहां कुत्ते मिलते हैं और वह उनका भोजन है. तो इन आबादियों के पास जहां छोटा-मोटा जंगल हो... छोटा भी हो लेकिन ऐसा हो कि वहां वह दिन गुजार सके, वहां वह रुक जाता है। 

पहले ये आदमियों से डरते थे क्योंकि इंसान मार देते थे, उनका शिकार करते थे, लेकिन अब शिकार बंद हो गया है, इसलिए जानवरों में आदमियों का डर कुछ कम हो गया है। हालांकि यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, फिर भी हादसे हो जाते हैं और जानवर ने अगर एक-दो बार किसी को मार दिया तो फिर उसे आदत पड़ जाती है। सभी तेंदुए ऐसा नहीं करते। जैसे कि- शहरों-गांवों में कुत्ते आदमियों पर हमला कर रहे हैं, लेकिन ऐसा सारे कुत्ते नहीं करते।  

वह कहते हैं कि जो जानवर समस्या बन जाए उसे तुरंत पकड़ना या किसी और तरीके से भी जरूरत पड़े तो तुरंत उसे हटाना चाहिए। अगर पकड़ सकते हैं तो पकड़ें, अगर मारना पड़े तो मार दें। क्योंकि जो लोग इस विपदा को झेल रहे हैं फिर वे इन जानवरों को मारना शुरू कर देंगे तब इन जानवरों को बचाना बड़ा मुश्किल होगा।  

वहीं, जिला वनाधिकारी  (डीएफओ) नरेंद्रनगर अमित कंवर कहते हैं कि मलेथा में गुलदार को जानबूझकर नहीं मारा गया, बल्कि चार वनकर्मियों के घायल होने के बाद भी उसे ट्रैंकुलाइज़ करने की कोशिश की गई, लेकिन उस वक्त की परिस्थितियां ही ऐसी थीं कि कोई विकल्प नहीं बचा था। 

दूसरे राज्यों में भेजना कितना संभव? 

अन्य राज्यों में पकड़े गए जानवरों को भेजने की बात मुख्यमंत्री कह रहे हैं, क्या क्या यह संभव है? के जवाब में कुरैशी कहते हैं कि यह संभव नहीं है। भारत में सब जगह तेदुएं हैं और जहां-जहां ये समस्याग्रस्त तेंदुए आ रहे हैं वहां रेस्क्यू सेंटर्स धीरे-धीरे भरते जा रहे हैं और अब तो तेंदुओं को चिड़ियाघर भी नहीं लेते हैं। 

वह बताते हैं कि एक बार महाराष्ट्र सहित कुछ राज्यों ने एक जगह से तेंदुओं को पकड़ कर दूसरी जगह छोड़ दिया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ, वे तेंदुए वहां से भाग गए, क्योंकि वहां तो पहले से ही तेंदुए मौजूद थे और फिर इन तेंदुओं ने नई जगह समस्याएं पैदा कर दी। 

हालांकि उत्तराखंड के वन विभाग में मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक समीर सिन्हा कहते हैं कि उत्तराखंड के अतिरिक्त तेंदुओं को  अन्य राज्यों में शि़फ़्ट करने के लिए वह केंद्र सरकार से बातचीत कर रहे हैं। वह मानते हैं कि उत्तराखंड के रेस्क्यू सेंटर्स पर दबाव है और कहते हैं कि इसीलिए नए रेस्क्यू सेंटर्स बनाने और मौजूदा रेस्क्यू सेंटर्स की क्षमता बढ़ाने की भी कोशिशें की जा रही हैं. 

बंध्याकरण है हल? 

उत्तराखंड और हिमाचल में बंदरों का बड़े पैमाने पर बंध्याकरण किया गया है और अब उनकी संख्या में उल्लेखनीय कमी दर्ज भी हुई है. क्या तेंदुओं, बाघों के साथ भी ऐसा किए जाने की जरूरत महसूस होने लगी है? 

कुरैशी कहते हैं कि इसकी जरूरत महसूस होने लगी है। भारत में तो नहीं, लेकिन दूसरे देशों में चिड़ियाघरों वगैरा में तेंदुओं का बंध्याकरण हुआ है, लेकिन पहले इसकी टेस्टिंग की जानी होगी कि किस तरह से इसे किया जा सकता है। तेंदुए, बंदरों की तरह समूह में तो रहते नहीं हैं, इसलिए उस पैमाने पर तेंदुओं को पकड़कर उनका बंध्याकरण करना कितना लाभदायक होगा यह अभी नहीं कहा जा सकता।  इसका अध्ययन करना पड़ेगा, इसकी मॉडलिंग करनी पड़ेगी।