एक बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि में नेशनल ब्यूरो ऑफ फिश जेनेटिक रिसोर्सेज (एनबीएफजीआर) के वैज्ञानिकों ने पश्चिमी घाट में रोहू मछलियों की दो नई प्रजातियों की खोज की है। इन्हें ‘लेबियो उरु’ और ‘लेबियो चेकीडा’ नाम दिया गया है।
मछलियों की यह प्रजातियां मीठे पानी में पाई जाती हैं, जोकि कर्नाटक और केरल की नदियों में पाई गई हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक ‘लेबियो उरु’ को चंद्रगिरी नदी में खोजा गया है। इसके लंबे पृष्ठीय पंख पारंपरिक लकड़ी की नाव ‘उरु’ के पाल की तरह दिखते हैं। यही वजह है इसका नाम 'उरु' रखा गया है।
वहीं दूसरी प्रजाति 'लेबियो चेकिडा' है, जिसे केरल की चालक्कुडी नदी से खोजा गया है। यह छोटी, गहरे रंग की मछली है, जिसे स्थानीय लोग 'काका चेकिडा' कह कर पुकारते हैं। यह मछली अपनी विशिष्टता के साथ चालक्कुडी नदी की जैव विविधता को भी दर्शाती है।
दोनों प्रजातियां, 'लेबियो उरु' और 'लेबियो चेकिडा', अपनी-अपनी नदियों में पाई जाती हैं, और इनका अस्तित्व पश्चिमी घाट की जैव विविधता के अद्वितीय महत्व को और भी स्पष्ट करता है।
यह खोज याद दिलाती है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और उनका संतुलित प्रबंधन न केवल हमारी जिम्मेदारी है, बल्कि यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अनमोल धरोहर है।
‘लेबियो निग्रेसेंस’ से जुड़ी है 155 साल पुरानी गुत्थी
इसी तरह वैज्ञानिकों ने ‘लेबियो निग्रेसेंस’ प्रजाति की मछली की मौजूदगी की पुष्टि की है, जिसे पहली बार 1870 में पहचाना गया था। हालांकि इतना पहले खोजे जाने के बावजूद पिछले 155 वर्षों से इसकी पहचान को लेकर भ्रम बना हुआ था।
इस खोज से यह वर्षों पुरानी गुत्थी भी सुलझ गई है। अब वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि लेबियो निग्रेसेंस असल में मछली की एक अलग प्रजाति है। इस रहस्य को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने आधुनिक विश्लेषण तकनीक की मदद ली है।
इसके शरीर पर खास तरह की स्केल संरचना और टेढ़ी-मेढ़ी बगल रेखाओं जैसी विशेषताएं पाई गई हैं, जो इसे दूसरी मछलियों से अलग बनाती हैं। वैज्ञानिकों ने तीनों मछलियों की अलग-अलग विशेषताओं के आधार पर उनकी अलग पहचान की पुष्टि की है।
इन प्रजातियों के बारे में अधिक जानकारी इंडियन जर्नल ऑफ फिशरीज में प्रकाशित हुई है।
मछलियों की इन नई प्रजातियों की खोज एक बार फिर पश्चिमी घाट की समृद्ध और अनछुई जैव विविधता को उजागर करती है। यह खोज न केवल हमारे जल तंत्र की अनमोल धरोहर को सामने लाती है, बल्कि भारत में मीठे पानी की पारिस्थितिकी प्रणालियों के संरक्षण की आवश्यकता को और भी अधिक महत्वपूर्ण बना देती है।