वन्य जीव एवं जैव विविधता

शिकार के बाद अब जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियों से मंडरा रहा इस विशाल जीव पर खतरा

शिकार से धीरे-धीरे उबरने के बाद अब ब्लू व्हेल बढ़ते तापमान, प्रदूषण, शिपिंग और अन्य इंसानी गतिविधियों के कारण पैदा हुई समस्याओं से जूझ रहीं हैं

Lalit Maurya

बहुत से लोग ब्लू व्हेल के नाम से परिचित होंगें, जो दुनिया का सबसे विशाल जीव है। इसकी औसत लम्बाई करीब 27 मीटर होती है। एक जमाने में बेतहाशा किए जा रहे शिकार से इसके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा था। हालांकि शिकार पर रोक के बाद से धीरे-धीरे स्थिति बेहतर हो रही थी, लेकिन अब वैश्विक तापमान में होती वृद्धि, प्रदूषण, खाद्य आपूर्ति में आते बदलावों, शिपिंग और अन्य इंसानी गतिविधियों के चलते यह विशाल जीव नई समस्याओं से जूझ रहा है।

गौरतलब है कि ब्लू व्हेल को 1966 में व्यावसायिक शिकार से सुरक्षित किया गया था, फिर इसके 20 साल बाद अंतर्राष्ट्रीय व्हेलिंग आयोग (आईडब्ल्यूसी) ने दुनिया भर में इसपर प्रतिबन्ध लगा दिया था। यह जानकारी फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए अध्ययन में सामने आई है, जिसके नतीजे जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन से जुड़े जर्नल एनिमल कंजर्वेशन में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 276 व्हेलों के डीएनए से जुड़े आंकड़ों के विशाल डेटासेट का उपयोग किया है।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं को पूर्वी प्रशांत, अंटार्कटिक, और इंडो-वेस्टर्न प्रशांत महासागरों में ब्लू व्हेल की पिग्मी उप-प्रजातियों के बीच महत्वपूर्ण आनुवंशिक अंतर का पता चला है। शोध के मुताबिक ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि वे अलग-अलग जगहों पर रहती हैं, जहां प्रकृति अलग-अलग तरह से काम करती है।

सोसायटी फॉर मरीन मैमोलॉजी की टैक्सोनॉमी समिति के मुताबिक दुनिया में ब्लू व्हेल की चार उप-प्रजातियां हैं। इनमें अंटार्कटिक क्षेत्र में पाई जाने वाली अंटार्कटिक ब्लू व्हेल, दक्षिणी गोलार्ध के समशीतोष्ण क्षेत्र में पाई जाने वाली पिग्मी ब्लू व्हेल, उत्तरी हिंद महासागर ब्लू व्हेल और उत्तरी गोलार्ध में पाई जाने वाली उत्तरी ब्लू व्हेल शामिल है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर कैथरीन अटर्ड ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि प्रजातियों के भीतर जैव विविधता को बनाए रखने के लिए इनमें से प्रत्येक समूह को संरक्षित करने की आवश्यकता है।

शिकार पर प्रतिबन्ध के बावजूद अब भी मंडरा रहा खतरा

उनका सुझाव है कि इन समूहों के बीच आनुवंशिक अंतर विभिन्न वातावरणों में प्राकृतिक चयन से प्रभावित हो सकता है। वह कहती हैं कि, इन क्षेत्रों में, पूर्वी उत्तर और पूर्वी दक्षिण प्रशांत और पूर्वी हिंद महासागर, पश्चिमी दक्षिण प्रशांत और उत्तरी हिंद महासागर में पाए जाने वाली उप-प्रजातियों के बीच अंतर देखा गया। हालांकि अंटार्कटिक समूह के भीतर कोई आनुवंशिक अंतर सामने नहीं आया। इसका मतलब है कि वे सभी एक ही समूह से जुड़ी हो सकती हैं।

व्हेल की आबादी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक यह जानकर हैरान रह गए कि पूर्वी दक्षिण प्रशांत और पूर्वी उत्तरी प्रशांत में पाई जाने वाली व्हेल जितना उन्होंने सोचा था उससे कहीं अधिक समानता रखती हैं। इससे पता चलता है कि वो अलग-अलग होने की जगह एक ही उप-प्रजाति से संबंधित हो सकती हैं।

फ्लिंडर्स यूनिवर्सिटी की मॉलिक्यूलर इकोलॉजी लैब और अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता प्रोफेसर लुसियाना मोलर ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि, "यह खोज अप्रत्याशित है क्योंकि माना जाता रहा है कि भूमध्य रेखा के विभिन्न किनारों पर ब्लू व्हेल का प्रजनन मौसम अलग-अलग समय पर होता है।"

ब्लू व्हेल के पूर्वी भारतीय और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्रों में पाए जाने वाले समूहों के बीच बेहद कम आनुवंशिक विविधता देखी गई। शोधकर्ताओं के मुताबिक ऐसा इंसानी गतिविधियों के बजाय जलवायु में बदलाव के कारण है। अध्ययन में भारतीय-पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में ब्लू व्हेल के अलग-अलग समूह पाए गए हैं। इनमें पूर्वी हिंद महासागर, पश्चिमी दक्षिण प्रशांत महासागर और संभवतः पश्चिमी हिन्द महासागर में पाए जाने वाली ब्लू व्हेल शामिल हैं।

गौरतलब है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दुनिया भर में ब्लू व्हेल के आनुवंशिक आंकड़ों का अब तक का सबसे बड़ा बड़ा सेट एकत्र किया है। साथ ही उन्होंने आनुवांशिक निष्कर्षों को जोड़ने के लिए उपग्रहों की मदद भी ली है। अध्ययन में उन्होंने टैगिंग, ध्वनि और स्थिर आइसोटोप रिसर्च से प्राप्त आंकड़ों का भी उपयोग किया है, ताकि यह समझा जा सके कि ब्लू व्हेल कहां रहती हैं, कैसे प्रवास और प्रजनन करती हैं।

शोधकर्ताओं को इस अध्ययन में उप-प्रजातियों के बीच ब्रीडिंग का कोई सबूत नहीं मिला है, जो प्रजातियों और आबादी की संभावित बहाली के लिहाज से अच्छी खबर है। हालांकि, इसके बावजूद बेलीन व्हेल और ब्लू व्हेल की प्रजातियों पर अब भी खतरा बरकरार है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक पानी के नीचे शोर, समुद्र की उत्पादकता पर इंसानी प्रभाव के कारण भोजन की उपलब्धता में आती गिरावट, प्रदूषण, जहाजों से टकराव और मछली पकड़ने के गियर में उलझने का खतरा इन विशाल जीवों के लिए खतरा पैदा कर रहा है। ऐसे में शोधकर्ताओं ने देशों से अपनी उन गतिविधियों को सीमित करने का आह्वाहन किया है, जो व्हेल को उनके जलक्षेत्र में नुकसान पहुंचा सकती हैं।