वन्य जीव एवं जैव विविधता

मध्य प्रदेश में नहीं मिल सके 58 दिनों में सामुदायिक संसाधनों के अधिकार

मध्य प्रदेश सरकार ने 15 नवंबर तक 19158 गांवों को वनाधिकार देने का वादा किया था, लेकिन किसी भी गांव को अधिकार नहीं दिया गया

Satyam Shrivastava

15 नवंबर 2021 का दिन भारत सरकार और प्रधानमंत्री ने आदिवासियों को समर्पित किया। 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा के शहादत दिवस के दिन को जनजातीय गौरव दिवस के तौर पर मनाए जाने की आधिकारिक घोषणा और शुरूआत भी की गयी। इस दिन बिरसा मुंडा का शहादत दिवस होता है। 

इस दिन को अविस्मरणीय और भव्य बनाने के लिए एक साथ कई आयोजन किए गए जिनमें मध्य प्रदेश में आयोजित हुए कार्यक्रम ने सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जंबूरी पार्क में स्वयं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस जनजातीय गौरव दिवस के अवसर पर प्रदेश के जनजाति समुदायों को संबोधित किया। इससे पहले सुबह 9:30 बजे उन्होंने झारखंड में आयोजित एक कार्यक्रम को भी वर्चुयली संबोधित किया। 

मध्य प्रदेश में हुए आयोजन का एक विशिष्ट महत्व इसलिए भी था क्योंकि 15 नवंबर को प्रदेश भर के 19158 गांवों में वनाधिकार मान्यता कानून के तहत सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार पत्र मिल जाने थे। 18 सितंबर 2021 को जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रदेश के आदिवासी नायक शहीद शंकर शाह  व उनके पुत्र रघुनाथ शाह के बलिदान दिवस के दिन ‘जनजाति गौरव’ के लिए कई कार्यक्रमों की घोषणा की तब उसमें 18 सितंबर से लेकर 15 नवंबर के बीच 58 दिनों में प्रदेश के 19158 गांवों को सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार दिये जाने की भी घोषणा की।

इसके लिए बजाफ़्ता संचालनालय, आदिम जाति क्षेत्रीय विकास योजनाएँ, मध्य प्रदेश, सतपुड़ा भवन, भोपाल की तरफ से, 17 सितंबर 2021 को जारी प्रदेश के सभी जिला कलेक्टर्स को संबोधित इस आदेश में 18 सितंबर 2021 से 15 नवंबर 2021 के बीच यानी 58 दिनों में प्रदेश की समस्त ग्राम सभाओं को वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकारों के अधिकार पत्र सौंपे जाने को निश्चित करने के लिए कहा गया है। 

हालांकि शुरूआत से ही यह समय सारिणी न केवल अव्यवहारिक थी बल्कि इससे यह भी पता चलता था कि न केवल मुख्यमंत्री बल्कि प्रदेश का जनजाति कल्याण मंत्रालय खुद वनाधिकार के क्रियान्वयन को लेकर कितना अ-गंभीर और बेपरवाह है। इन 58 दिनों में वनाधिकारों को लेकर राज्य सरकार की तरफ से क्या क्या कोशिशें हुईं अगर इसकी जमीनी पड़ताल की जाये तो पता चलता है कि मात्र एक पत्र ही संचालनालय, आदिम जाति क्षेत्रीय विकास योजनाएँ, मध्य प्रदेश, सतपुड़ा भवन, भोपाल की तरफ से, 17 सितंबर 2021 को जारी किया गया।  

तमाम जिलों के कलेक्टर्स को लिखे गए इस पत्र को खुद जिलों के कलेक्टर्स ने कोई महत्व नहीं दिया। जिला कलेक्टर्स के दफ्तरों से इस प्रक्रिया को गति देने के लिए कुछ नहीं किया गया। किसी ऐतिहासिक कानून के समयबद्ध क्रियान्वयन की कोशिश का मखौल कैसे बनाया जा सकता है यह 18 सितंबर को हुई घोषणा और 15 नवंबर को हुए कार्यक्रम के तौर पर देखा जा सकता है। 

दिलचस्प है कि 18 सितंबर को जब इस समयबद्ध क्रियान्वयन की घोषणा हुई तब उस कार्यक्रम में देश के गृहमंत्री अमित शाह ने जबलपुर में एक कार्यक्रम किया और जब भव्य कार्यक्रम का समापन हुआ तो भोपाल में देश के प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम में शिरकत की। 

यह सामान्य अपेक्षा थी कि 15 नवंबर को भोपाल में आयोजित इस कार्यक्रम में जहां स्वयं देश के प्रधानमंत्री मौजूद थे, प्रदेश के आदिवासी समुदायों को उनके वनाधिकार मिलेंगे। दिलचस्प है कि अपने 35 मिनिट के भाषण में न तो प्रधानमंत्री ने सामुदायिक वनधिकारों का ज़िक्र किया और न ही अपने कतिपय संक्षिप्त भाषण में प्रदेश के मुख्यमंत्री ने शिवराज सिंह चौहान ने इसके बारे में एक शब्द बोला। 

यह पूछा जाना चाहिए कि जिस वक़्त आप 58 दिनों में समस्त ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार सुपुर्द करने की घोषणा कर रहे थे तब क्या आपको इस बात का इल्म नहीं था कि आपकी सरकार इसे लेकर थोड़ी भी गंभीर नहीं है। हालांकि 18 सितंबर से शुरू होने वाले इस महत्वाकांक्षी आयोजन के महज़ 24 घंटे पहले ही इस तरह की प्रक्रिया का आगाज किया जाना बताता है कि इसे लेकर आनन-फानन में ही निर्णय लिया गया होगा ताकि देश के गृहमंत्री के पास कहने को कुछ ‘बड़ा’ हो जाये। लेकिन इस आयोजन के समापन पर प्रधानमंत्री के लिए कुछ ‘बड़ा’ न रखना समझ से परे है।

हालांकि यह आश्चर्य जनक नहीं है क्योंकि 2019 के भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में आदिवासियों के अधिकारों को लेकर एक भी शब्द नहीं था। इस पूरे आयोजन को केवल आदिवासी समुदायों के बीच भाजपा की खिसकती ज़मीन को साधने की कोशिश के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। 

क्या रही 58 दिनों की जमीनी हकीकत? 

महाकौशल, जहां से इस आयोजन की शुरूआत हुई थी, वहां की जमीनी हकीकत पर एडवोकेट राहुल श्रीवास्तव जो लंबे समय से वनाधिकार कानून को लेकर काम कर रहे हैं,  बताते हैं कि “आज दिनांक तक मध्य प्रदेश में सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकारों के एक भी नए दावे नहीं भरे गए हैं। बीते 58 दिनों में इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है। यहाँ तक कि एक विशेष ग्राम सभा भी आयोजित हुई है जो सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकारों के दावों के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का पहला चरण होती है। जिला प्रशासन की तरफ ने न तो ग्राम पंचायतों को इस संबंध में कोई दिशा-निर्देश दिये गए और न ही इसे लेकर कोई अभियान या प्रचार ही देखने मिला”। 

डिंडोरी जो महकौशल अंचल का ही आदिवासी बाहुल्य हिस्सा है वहां वनाधिकार पर एक दशक पर काम कर रहे डिंडोरी जिला के सहपुरा तहसील के ग्राम दादर घुगरी के स्थानीय साथी राजेन्द्र भाई बताते है कि “इस ग्राम में जो व्यक्तिगत दावे लगे है, उनमें ही विवाद है, दूसरे ग्राम के लोग आए दिन झगड़ा करतें रहते हैं। ऐसे में सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकारों की तो कोई पहल अभी तक हुई ही नहीं है। 

वो बताते हैं कि “सबसे बड़ा प्रश्न इन्हीं सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकारों को लेकर ही है। असल में जिसे सरकार वनधिकार कानून के तहत समुदायिक्म्वाँ संसाधनों के अधिकार कह रही है उसे प्रशासन सामुदायिक निस्तार हक़ के रूप में लागू करने की पहला करता है। जिसे लेकर ग्रामीण समुदाय हमेशा से आपत्ति जता रहा है। 

राहुल श्रीवास्तव इस पूरे क्षेत्र के बारे में बताते हैं कि- अव्वल तो ऐसी किसी घोषणा को लेकर लोगों में शुरू से ही उत्साह नहीं था लेकिन फिर भी एक उम्मीद थी कि हो सकता है शिवराज सिंह चौहान इसे लेकर कुछ पहलकदमी करें। हालांकि 18 सितंबर 2021 के बाद भी कोई पहल होती नहीं दिखी। लोगों को यह भी लगा कि हो सकता है सरकार पंचायत सरपंचों और सचिवों के माध्यम से ही कुछ काम करवा रही हो और 15 नवंबर को ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार पत्र दिये जाएँगे। 15 नवंबर के भोपाल कार्यक्रम में जब प्रशासन ने गाँव गाँव बसें भेजीं तब भी ग्रामीणों ने पूछा कि क्या हमें वनाधिकार मिलेंगे जिसके जवाब में स्थानीय प्रशासन ने कहा कि -इसलिए तो आप लोगों को लेने आए हैं। लेकिन प्रधानमंत्री की सभा हो जाने के बाद लोगों को निराशा ही हाथ लगी। अधिकार पत्र तो खैर नहीं ही मिले लेकिन प्रधानमंत्री ने एक बार भी वनाधिकार का नाम अपने भाषण में नहीं लिया।  

रेवांचल या बघेलखंड के इलाकों से भी ऐसी ही खबरें हैं। वहाँ स्थानीय स्तर पर वनाधिकार पर काम कर रहे साथी भी बतलाते हैं कि 58 दिन तो छोड़ दीजिये, जब से शिवराज सिंह चौहान ने दुबारा सत्ता में वापसी की है तभी से वनाधिकारों की दिशा में कोई काम नहीं हुआ है। अभी भी खारिज हुए व्यक्तिगत वन अधिकारों की समीक्षा वन एप मित्र के माध्यम से लंबित है। सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकारों पर तो कोई बात ही हो रही है।

सतना जिले के उचेरा के पर्समनिया पठार और रीवा के त्यौंथर तहसील के जवा ब्लॉक में भी ऐसी किसी प्रक्रिया का संचालन नहीं हुआ है। ऐसा बताया यहाँ के स्थानीय कार्यकर्ताओं सुरेन्द्र भाई और जगदीश भाई ने। उनका कहना है कि चूंकि इस इलाके में मवासी, कोल जैसे कम आबादी वाले आदिवासी समुदाय हैं जो सबसे ज़्यादा पिछड़े हैं इसलिए सरकार यहाँ कभी कोई पहल नहीं करती। सरकार का सारा ध्यान प्रदेश के गोंड आदिवासियों को लेकर है क्योंकि उनके वोट ज़्यादा हैं। 

कोमबेश यही स्थिति बालाघाट सिमरिया ग्राम की भी है। ये ग्राम कान्हा बफर जोन के अन्तर्गत एक वन ग्राम है जिसे अब तक राजस्व ग्राम में परिवर्तित हो जाना था। यहाँ के स्थानीय संगठन के कार्यकर्ता बैरग सिंह टेकाम बताते हैं कि “हमारे आसपास ग्राम में लगभग एक हज़ार व्यक्तिगत वनधिकार के दावे तैयार हैं लेकिन वन मित्र पोर्टल बंद होने से ये प्रक्रिया भी रुक गयी है। सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकारों की कोई भी प्रक्रिया यहाँ अब तक नहीं हुई है। 

ऐसी ही खबर मंडला के चुटका गाँव से भी है। यह गाँव परमाणु ऊर्जा संयंत्र के कारण लंबे समय से चर्चा में है और यहाँ भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया भी जारी है जिससे विस्थापन की तलवार इस गाँव पर लटक रही है। इस मुद्दे पर लंबे समय से काम रहे साथी राजकुमार सिन्हा ने बताया कि “इस लिहाज से भी यह गाँव महत्वपूर्ण है क्योंकि बिना वनाधिकार संपूर्णता में लागू हुए यहाँ भूमि-अधिग्रहण नहीं हो सकता। ऐसे में अगर 58 दिनों की मियान्द में इस कानून का क्रियान्वयन किया ही जाना था तो चुटका ग्राम को प्राथमिकता में रखा जाना चाहिए था”।

मीरा बाई और दादूराम कुड़पे चुटका परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए हो रहे भूमि-अधिग्रहण को लेकर पिछले एक दशक से से ज्यादा समय से संघर्ष कर रहे हैं। हालांकि विरोध से हुआ यह संघर्ष अब मुआवज़े पर आ गया है।  सरकार ने उन लोगों को मुआवजा दे भी दिया है जिनके पास राजस्व की ज़मीनें थीं लेकिन वन-भूमि पर आश्रित लोगों को मुआवजा नहीं मिला है क्योंकि यहाँ न तो व्यक्तिगत वनाधिकार के अधिकार पत्र ही मिले हैं और न ही समुदायइक वन संसाधनों के। 

जबलपुर के बरगी बांध से विस्थापित व सिवनी  जिले के घंसौर ब्लॉक के अधिकांश ग्राम जिनमें जोबा आदि शामिल हैं उनमें भी कमोबेश यही स्थिति है। वन संपदा अधिकार का कहीं क्रियान्वयन नहीं हुआ है। राजुकुमार सिन्हा ने बताया। 

मध्य प्रदेश के एक और आदिवासी बाहुल्य और सघन वन क्षेत्र दमोह जिले से भी यही खबरें हैं। यहाँ काम कर रहे एक संगठन आदिवासी, मजदूर, किसान शक्ति संगठन के साथी बीरेन्द्र दुबे ने बताया कि “हमने 18 सितंबर 2021 को हुई घोषणा को गंभीरता से लिया और 29 अक्तूबर को इस घोषणा से संबंधित उचित कार्यवाही को लेकर 29 अक्तूबर 2021 को तेंदूखेड़ा अनविभागीय अधिकारी को एक ज्ञापन भी दिया कि मुख्यमंत्री की घोषणा और राज्य के जनजाति संचलनालय की तरफ से लिखे गए पत्र के आधार पर जिला प्रशासन विशेष ग्राम सभाएं आयोजित करवाने के लिए अनुदेश जारी करें। लेकिन आज दिनांक तक दमोह जिला प्रशासन की तरफ से ऐसा एक भी पत्राचार नहीं किया गया है”। 

बीरेन्द्र बताते हैं कि “इस मामले में सबसे हास्यास्पद भूमिका जनजाति कल्याण विभाग की है। उनके अधिकारियों से मिलने पर पता चला कि उन्हें ऐसी किसी घोषणा या उनके ही विभाग द्वारा जारी इस मामले में किसी पत्र की कोई जानकारी ही नहीं है”।