वन्य जीव एवं जैव विविधता

शेरनी: जंगलों के सवाल का सटीक जवाब

Sorit Gupto

फिल्म की शुरुआत एक जंगल से होती है, जिसे हम सब ऊपर से देखते हैं। ऊपर से देखने पर शायद हर चीज अच्छी लगती है, जंगल भी इसके अपवाद नहीं हैं। फिल्म के ओपनिंग शाट में दूर-दूर तक फैला जंगल किसी समस्या के बड़े से कैनवास की ओर इशारा करती है, जिसमें जिंदगी की जद्दोजहद से लेकर अपनी पहचान की लड़ाई भी शामिल है। आपस में एक दूसरे से गुंथी हुई इन लड़ाइयों की कहानी को ऊपर से नहीं देखा जा सकता। इन्हें जानने के लिए जंगल की जमीन पर जाना पड़ेगा और जंगल की जमीन पर पनपती है फिल्म शेरनी की कहानी।

जीने का अधिकार अगर बाघ को है तो फारेस्ट आफिसर को भी। गांववालों को है तो स्थानीय विधायक को भी। कहानी एक बाघिन, बल्कि उसके स्वभाव में हुई तब्दीली  के आसपास बुनी गयी है। बाघिन ने हाल ही में जंगल में चरते गांव के मवेशियों का शिकार किया है। अचानक एक दिन पता लगता है कि वह नरभक्षी बन चुकी है। इस खबर से गांव वालों में दहशत का माहौल है पर यह खबर स्थानीय राजनीति के लिए एक अच्छी खबर है। जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं ऐसे में इसे चुनावी मुद्दा बनाने में वक्त नहीं लगता।

कहानी के दूसरे छोर पर प्रशासन है, जिसे न वनों से मतलब है और न ही बाघिन से। बाघ/जंगल/जंगल में रहने वाले लोगों की परेशानियां उसके लिए पुरानी  फाइलों के ढेर जैसे हैं, जो ऑफिस के किसी अंधेरे कमरे में फाइलों के रूप में रखे हैं। इस जगह का इस्तेमाल प्रशासन अब सवालों से छिपने के लिए करता है।

कोई एक समस्या और उसके इर्द गिर्द घूमती राजनीति और प्रशाशन की उदासीनता हमारी हिंदी फिल्मों का एक सामान्य विषय  है.अक्सर समस्या के समाधान के लिए हम किसी ‘सुपर-हीरो’ का आविष्कार करते हैं, जो इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ अकेले ही लड़ जाता है। ठीक इसी बिंदु पर फिल्म शेरनी दूसरी फिल्मों से एकदम अलग रास्ता अपनाती है। आम ‘मसाला –फिल्मों’ के पहचाने राजपथ को छोड़ कर इस फिल्म की कहानी पगडंडियों, खेतों और जंगली नालों के रास्ते आगे बढ़ती है।

पहली बार हमारा परिचय उन लोगों से होता है, जो समस्या के ‘विक्टिम’ हैं। जिन्हें अक्सर हम अपनी बातचीत में भुला देते है। यह फिल्म बार-बार हमें इस सच से रूबरू करवाती है कि समस्या का समाधान इन्हीं ‘अनपढ़, गंवार’ लोगों के पास है क्योंकि समस्या की असली समझ भी इन्ही लोगों के पास है। मसलन ,फिल्म के शुरूआती दृश्यों में वन विभाग के एक अदद ड्राइवर से हमें इस इलाके के बारे में जानकारी मिलती है कि यहां खेत के बाद जंगल और जंगल के बाद खेत हैं, इसलिए बाघ और इंसान को अक्सर एक दूसरे का रास्ता काटना पड़ता है।

ऐसे ही एक अन्य दृश्य में वन विभाग के दफ्तर में किसी बाघ के विडिओ-फुटेज पर बातचीत चल रही है। बड़ी से टेबल के चारों ओर बैठे ‘पढ़े-लिखे’ लोग इस बाघ को कभी किसी नाम से पुकार रहे हैं तो कभी किसी और नाम से। उसी कमरे में दो फारेस्ट गार्ड हैं, जो एक किनारे खड़े हैं। वह दूर से देख कर बता देते हैं कि यह टी-12 नाम की बाघिन है। यह लोग बाघों को उनके दागों से और उनके पंजों के दागों से पहचानते हैं। इसी तरह एक और दृश्य है, जिसमें वनविभाग के लोग गांव वालों को जंगल में न जाने की हिदायत देते दिखाई दे रहे हैं। इस दृश्य को देख कर लगेगा कि (बेवकूफ) गांव वाले जबरन जंगल में जाते हैं और अपनी जान को जोखिम में डालते हैं।

असली बात का खुलासा तब होता है जब गांव की एक महिला कहती है कि सरकार ने गांव वालों से उनके मवेशियों के चारा चरने की जगह छीन कर वहां सागौन का वृक्षारोपण शुरू कर दिया है। अब मजबूरी में गांववालों को अपनी जान को खतरे में डाल कर जंगल में मवेशी चराने जाना पड़ता है। जंगल न ले जाओ तो मवेशी भूखे मरेंगे और जंगल ले जाओ तो बाघिन का शिकार बनेंगे। एक और दृश्य में गांव के बच्चे कहते हैं कि बाघ रहेंगे तो जंगल रहेंगे।

विडम्बना यह है कि जंगलों से सैकड़ों मील दूर ठंडे कमरों में बैठकर ‘बाघ-परियोजना’ बनाने वालों ने कभी भी जंगल में रह रहे लोगों को न जंगल बचाने के प्लान में भागीदार बनाया और न ही कभी बाघ बचाने  के प्लान में शामिल किया।

जंगल के पास बसे इन बेहद पिछड़े इलाकों के लोगों के पास पशुपालन और खेती-बाड़ी के सिवा कोई अन्य आजिविका नहीं है। जंगली जानवरों/ बाघिन के चलते खेतीबारी और पशुपालन दोनों प्रभावित हो रहे हैं. दरसल यही असली समस्या है।

प्रशासन के पास न ही इसका कोई हल है और न ही इसकी उसे कोई परवाह है कि गरीब गांववाले आखिर अपनी मवेशी चरायेंगे कहां?

प्रशासन के पास एक ही जवाब है, “कहीं भी जाओ मुझे नहीं मतलब!”

स्थानीय राजनीति के पास इस समस्या का एक (राजनैतिक) हल है। एक नेता घोषणा कर देते हैं कि अगर वह चुनाव जीत जाते हैं तो “आइंदे से गांव वालों के पास चारे की फ्री डिलिवरी होगी! वह भी एकदम फ्री!”

जंगल,पर्यावरण और बाघों को बचाने के लिए बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं पर जंगलों में रहने वाले लोगों के रोजगार के सवाल को शायद ही कभी बातचीत में शामिल किया।  शेरनी फिल्म की एक खासियत यह भी है कि इसमें गांव के लोगों के रोजगार के सवाल को मजबूती से सामने लाने की कोशिश की है। फिल्म के एक दृश्य में नायिका और प्रशाशन की प्रतिनिधि विद्या विन्सेंट गाँव की महिलाओं के लिए सिलाई मशीन स्कूल की शुरुआत करती दिखती है और डोलची बना कर बेचने  के लिए प्रोत्साहित करती है।

फिल्म शेरनी विकास के उस नए मॉडल की  कहानी है, जहां नीति-निर्माताओं के अदूरदर्शी प्लान के चलते कल तक एक ही जंगल में साथ-साथ रहने वाले इंसान और बाघ  एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं। यह फिल्म हमें बताने की कोशिश करती है कि किस तरह से विकास-परियोजनाओं के नाम पर ‘सरकार’ नामक एक महाशक्तिशाली और अदृश्य शक्ति ने बाघ और जंगल में रहने वाले इंसान दोनों से उनके जंगल छीन लिए।

जंगल अब केवल सरकार के थे, जो ताकत के नशे में चूर होकर चीखता है  “ये हमारा इलाका है!”

सरकार अब कहीं भी वृक्षारोपण कर सकती थी। एक ओर जंगल में रहने वाले लोगों को सूखी लकडियां बीनने से रोक सकती थी और वहीं दूसरी ओर विकास के नाम पर कहीं पर भी हजारों हेक्टेयर जंगलों को तबाह कर वहां खनन कर सकती थी। बड़े बांध बना कर लाखों हेक्टेयर के जंगलों को हमेशा के डुबो दे सकती थी।

फिल्म शेरनी में बाघिन आखिर व्यवस्था के सामने हार जाती है। उसे मार डाला जाता है किसी ‘एनकाउंटर’ की तर्ज पर। फिल्म की नायिका भी हार जाती है। उसका तबादला शहर में किसी म्यूजियम में हो जाता है जहां हरियाली और जानवरों से दूर अब उसे  कांच में बंद मृत जानवरों के पुतलों के साथ रहना है।

बेशक यह इस फिल्म का आखिरी दृश्य है पर यह इस कहानी का अंत नहीं है। इस फिल्म की कहानी ख़त्म होती है एक नयी शुरुआत के साथ जहां जंगल की एक छोटी सी गुफा में जहां बाघिन के दो बच्चों को गांव वालों ने बचा लिया है। शहरी ‘विद्या’ भले ही हार जाये पर गांव के लोग और ज्योति बाघिन के दोनों बच्चों को ‘शिकारी-संरक्षणवादी’ के हाथ से बचा लेने में कामयाब हो जाते हैं। यही लोग इस फिल्म के असली नायक/नायिका हैं, जो जगंलों में रहते हैं, जिन लोगों में जंगल बसता है।

बाघ हो या जंगल या जंगल में रहने वाले लोग सभी का अस्तित्व एक दूसरे से जुड़ा है, बस इतनी सी से बात है जो फिल्म के निर्देशक अमित मसूरकर हमें अपनी फ़िल्म के जरिये बताना चाहते हैं।