ग्रामीण सड़क पर लघु वनोपज की बिक्री करते हुए  
वन्य जीव एवं जैव विविधता

रिपोर्टर डायरी 12 : लघु वनोपज ही बड़ा आसरा

आदिवासी हाट बाजार में ले जाने के बजाए सड़क किनारे ही बैठ कर अपने उत्पादों की बिक्री करना पसंद करते हैं

Anil Ashwani Sharma

रायपुर से धमतरी जिला लगभग 75 किलोमीटर दूर है। इस जिले में प्रवेश करते ही रास्ते में कई हाट बाजार दिखते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े सामान अपनी अलग ही छटा बिखेरते हैं। वहीं मुर्गे की लड़ाई में व्यस्त लोग भी दिख जाएंगे। मुर्गों को उनका मालिक योद्धा की तरह ललकार रहा है। आखिर मुर्गे पर उसके मालिक के पैसे जो दांव पर लगे हैं। यह यहां के लोगों के मनोरंजन का बड़ा साधन है।
रास्ते में कई जगहों पर आदिवासी लघु वनोपज लिए बैठे मिल जाएंगे। ये लोग हाट बाजार में ले जाने के बजाए सड़क किनारे ही बैठ कर अपने उत्पादों की बिक्री करना पसंद करते हैं। यहां ग्राहक कम हैं तो प्रतियोगिता भी कम है। ऐसे ही रास्ते के गांव बेंदापानी में लगभग आधा दर्जन से अधिक आदिवासी महिलाएं व पुरुष जंगलों से एकत्रित किए गए अपने लघु वनोपज बेचने के लिए ग्राहक के इंतजार में बैठे हैं। डाउन टू अर्थ की टीम ने उनसे पूछा कि क्या आप लोग यहां पर रोजाना बैठते हैं। इस पर वे कहते हैं कि हां, लेकिन पर्याप्त मात्रा में वनोपज एकत्रित कर पाते हैं तब ही यहां आने की हिम्मत जुटती है। कारण कि हमें अपने घरों से यहां तक पहुंचने में ही चार-पांच घंटे लग जाते हैं। फिर, यहां दिन भर बैठो तब जा कर कुछ बिक पाता है। बिना बिका हुआ सामान वापस ले जाने में अलग ेमेहनत लगती है।
जिमीकंद बेच रहीं कृष्णा नेताम ने बताया कि यहां आसपास कोई फैक्टरी या कारखाना तो है नहीं कि बड़ी संख्या में लोग इस रास्ते से गुजरते हों। आप जैसे इक्का-दुक्का लोग ही यहां से गुजरते हैं, और हमारी नजर ऐसे ही लोगों पर बनी रहती है कि कब वे आएंगे और हमारा सामान खरीदेंगे। हालांकि कृष्णा ने बताया कि हमारी ये सब्जी आदि का भाव हाट बाजार के मुकाबले बहुत होता है। यही कारण है कि यदि दिन भर में दस बारह लोग भी यहां से गुजरते हैं तो वे हमारी उपज जरूर खरीद लेते हैं।
कतार में बैठे ये आदिवासी बाजार भाव के मुकाबले अपना माल औने-पौने में बेचने पर मजबूर हैं। इस इलाके में आवागमन के साधन इतने अधिक नहीं हैं कि वे आसानी से यहां पहुंच सकें और उचित दाम वसूल सकें। इन तमाम कमियों के बावजूद सड़क किनारे बैठे ये आदिवासी अपना सामान बहुत उत्साह से  बेच रहे हैं। सबसे बड़ी बात देखने में आ रही है कि इनमें आपस में किसी प्रकार की प्रतियोगिता नहीं है। वे चहक कर एक-दूसरे के सामानों की तारीफ करते हुए ग्राहकों को उत्साहित कर रहे हैं कि ये बहुत अच्छा है। बिक्री में एक-दूसरे की मदद करते आदिवासियों को देख कर लगता है कि क्या शहरों में इस तरह का दृश्य संभव है? इन्हें अपनी जरूरत के मुताबिक ही मुनाफा चाहिए। साथ ही इनकी इच्छा रहती है कि उनके साथी को भी मुनाफा मिले ताकि जिंदगी चल सके।
दुगली गांव के सड़क किनारे ही हाट बाजार लगा हुआ है। बड़ी संख्या में आसपास के गांव के आदिवासी अपनी जरूरतों का सामान खरीद रहे हैं। ऐसे ही एक जमीन पर कपड़ा बिछा कर जिमीकंद बेच रही बीरझा सोरी ने बताया कि हमें इसका सही दाम नहीं मिल पाता है। जिमीकंद के लिए कई दिनों तक जमीन की खुदाई करनी पड़ती है। यह बहुत मेहनत का काम है। यहां अभी इसकी कीमत आकार के हिसाब से 40 व 60 रुपए है। वे बताती हैं कि 60 रुपए वाले जिमीकंद यानी कांदा को करुकांदा कहते हैं। इसे निकालने में बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। वे बताती हैं कि शाम होने वाली है। वे अब तक केवल 130 रुपए का कांदा ही बेच पाई हैं। रायपुर और धमतरी के रास्ते पड़ने वाले एक और कमारफरा गांव की 70 साल की वृद्धा धर्मशिला ने बताया कि कल जड़ी बूटी लेने घने जंगल में गई थीं। दिन भर की मेहनत के बाद लगभग पांच किलो मिल पाया है। अब कल सड़क किनारे जाकर बैठूंगी तब कुछ आमदनी हो पाएगी।
कपड़ों पर रखे कुछ किलो के उत्पाद और ग्राहकों को तलाशती आंखें। शहरी कारोबारी नजरिए से देखने पर एकबारगी लग सकता है कि कितना मुनाफा होगा इन चीजों से? कैसे जीवन चलेगा इनकी बिक्री के भरोसे? पर यही इनके जीवन चलने का आधार है। कड़ी मेहनत के बाद थोड़ी सी कमाई। बुनियादी चीजों के लिए भी संघर्ष आदिवासी जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है।