वन्य जीव एवं जैव विविधता

ऐसी हो बाघ संरक्षण की नई रूपरेखा

नया संरक्षण एजेंडा बाघ बनाम आदिवासियों के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए, बल्कि यह बाघों और लोगों के बारे में होना चाहिए

Sunita Narain

साल 2023 में “प्रोजेक्ट टाइगर” के 50 साल पूरे हो गए। यह अपनी प्रमुख वन्यजीव प्रजाति के संरक्षण के लिए चलाया जा रहा देश का मुख्य कार्यक्रम है। साल 2005 में जब सरिस्का बाघ अभयारण्य में सभी बाघ मर गए, तब उसके कारणों की तलाश के लिए मेरे नेतृत्व में कुछ साथी संरक्षणवादियों की एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था। “ज्वाइनिंग द डॉट्स” नामक हमारी रिपोर्ट ने बाघ संरक्षण के एजेंडे को देश के सामने रखा, लेकिन बाघ प्रेमी समुदाय ने इस रिपोर्ट को अच्छा नहीं माना, क्योंकि इस रिपोर्ट में बाघ संरक्षण से अधिक मानव को केंद्र में रखा गया था।

हमने यह रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। तब से लेकर अब तक बहुत समय गुजर चुका है। रिपोर्ट की सिफारिशों पर अमल करने के लिए काफी कुछ किया गया। बाघों की जनगणना पद्धति में पदचापों को ट्रैक करने से लेकर कैमरा ट्रैप तक वैज्ञानिक आकलन किया जाने लगा।

बहुत भारी बजट के साथ बाघ प्राधिकरण और वन्यजीव अपराध ब्यूरो की स्थापना की गई। प्रबंधन और सुरक्षा के लिए नए प्रोटोकॉल निर्धारित किए गए। गांवों के पुनर्वास लागत में वृद्धि की गई है। इन बदलावों के परिणामस्वरूप बाघों की आबादी बढ़ रही है। लेकिन फिर भी प्रोजेक्ट टाइगर के इस 50वें वर्ष में हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि एक बड़ा अधूरा एजेंडा है, जिस पर काम करने की आवश्यकता है। इस समय भारत के सामने दो प्रमुख चुनौतियां हैं। पहली, जंगल में बाघों की सुरक्षा करना और दूसरी बाघों की संख्या के साथ-साथ निर्धारित अभयारण्यों (टाइगर रिजर्व) की वहन क्षमता को भी बढ़ाना।

यही कारण है कि हमने अपनी रिपोर्ट में सह-अस्तित्व का एजेंडा रखा था, जिसमें संरक्षण कार्यों को स्थानीय समुदायों के सहयोग से आगे बढ़ाना था। यह भविष्य की भी दरकार है।

हालांकि खुश होने के कुछ कारण हैं। ऑल इंडिया टाइगर, को-प्रीडेटर एंड प्रे एस्टिमेशन ने 2006 में पाया कि देश में तब 1,411 बाघ थे, जो 2010 में बढ़कर 1,706 हो गए। यह 2014 में 2,226 और 2018 में 2,967 तक पहुंच गए, लेकिन यहां एक दिक्कत है।

2006 में बाघ लगभग 93 हजार वर्ग किलोमीटर में विचरण करते थे, लेकिन 2018 में उनका विचरण क्षेत्र घटकर 89 हजार वर्ग किमी ही रह गया। इसका मतलब है कि अब बाघ अभ्यारण्य के अंदर बेहतर सुरक्षा है, लेकिन बाघों का आवास क्षेत्र सिकुड़ रहा है। बाघ का “चिड़ियाघरीकरण” हो रहा है। 2018 के अनुमान से पता चलता है कि लगभग 65 प्रतिशत (1,923) बाघ आरक्षित अभयारण्य के भीतर पाए जाते थे, शेष अभयारण्य से सटे जंगलों में घूमते हैं, जहां जंगली जानवर और इंसान दोनों रहते हैं।

यही कारण है कि मैं सह-अस्तित्व की अपनी स्थिति पर अब भी कायम हूं, ताकि बाघ अभयारण्य के मुख्य इलाके से बाहर रह रहे लोगों के साथ काम किया जाए और ऐसे संबंध बनाए जाएं, जिससे उनको भी फायदा हो। मेरे इस पक्ष को तब वन्यजीव संरक्षणवादियों ने खारिज कर दिया था।

अभी बाघ अभयारण्यों से बाहर रह रहे लोगों के लिए कोई नीति नहीं है, जिससे अभयारण्यों से बाहर रहने वाले लोगों को कोई फायदा हो। इतने सालों में अभयारण्य से बाहर बहुत कम निवेश हुआ। यहां तक कि मवेशियों व बकरियों के जीवित रहने के लिए कौन से पेड़ लगाए जाएं, इस पर भी विचार नहीं किया गया।

इसके चलते अभयारण्य के बाहर की जमीन खाली हो गई है। लोगों के पास अपने मवेशियों को चराई के लिए संरक्षित क्षेत्रों में भेजने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जिस तरह मवेशी चरते-चरते जंगलों में चले जाते हैं, उसी तरह हिरण जैसे शाकाहारी जीव भी जंगल की सीमा लांघकर चारे और फसलों को नष्ट करने किसानों के खेतों में पहुंच जाते हैं।

यदि हम ज्यादा बाघों की रक्षा के लिए ज्यादा भूमि चाहते हैं तो हमें इस हकीकत को समझना होगा। सबसे पहले तो हमें जंगली जानवरों द्वारा नष्ट की गई फसलों या मारे गए मवेशियों के एवज में जल्द से जल्द और पूरी उदारता के साथ मुआवजा देना होगा।

दूसरा, यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि बाघ अभयारण्य से सटी जमीन को विकसित करने के लिए निवेश किया जाए। लोगों को संरक्षित क्षेत्र के बफर क्षेत्र में रहने का लाभ मिलना चाहिए। ताकि वे अपने हित के लिए टाइगर को संरक्षित करें।

तीसरा, संरक्षण का सीधा लाभ लोगों को मिलना चाहिए। उन्हें संरक्षण से जुड़ी नौकरियों में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। वे बाघ की वजह से क्षेत्र में बढ़ रहे पर्यटन में भागीदार बनें और उन्हें इससे आमदनी हो।

आज हम जानते हैं कि वन्यजीव पर्यटन बढ़ रहा है। मध्य-वर्ग बड़ी तादाद में जंगली जानवरों को देखना चाहते हैं। इसे बढ़ना चाहिए, लेकिन उन तरीकों से जो बाघों के आवास में रहने वाले लोगों को लाभान्वित कर सकें। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

हालात यह हैं कि संरक्षण अब भी उन तरीकों से हो रहा है, जो जानवरों और स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष को बढ़ा रहे हैं। आज कई जगह अभयारण्य क्षेत्रों व राष्ट्रीय पार्कों से आदिवासियों को हटा दिया जाता है और बाद में उस क्षेत्र का अधिग्रहण भोग-विलास भरे पर्यटन के लिए कर लिया जाता है। इससे अंतत: संघर्ष को ही बढ़ावा मिलता है।

2005 की टाइगर टास्क फोर्स की रिपोर्ट में हमने टाइगर रिजर्व के आसपास के होटलों पर 30 प्रतिशत उपकर लगाने के लिए कहा था और यह पैसा स्थानीय लोगों व नेशनल पार्क को वापस देने के लिए कहा था। हमने यह भी कहा था कि होमस्टे टूरिज्म, जिसका स्वामित्व और संचालन स्थानीय समुदायों द्वारा किया जाता है, को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि लोग बाघों की सुरक्षा में भागीदार बनें। ऐसा हो नहीं रहा है। मौजूदा समय में इसकी सख्त जरूरत है।

संरक्षण का नया एजेंडा बाघ बनाम आदिवासियों के टकराव इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए। यह बाघों और लोगों के भले के बारे में होना चाहिए। अगले 50 वर्षों के लिए भारतीय नैतिकता पर आधारित संरक्षण की तैयारी करनी चाहिए। हमें छोड़ाव और किलेबंदी की मौलिक व्यवस्था खोजनी होगी। साथ ही पश्चिम के टाइगर चार्टर से भी सीख लेनी होगी, जहां लोगों का हित टाइगर से साथ सधता है। यानी दोनों का सह-अस्तित्व है। ऐसा करके ही हमारे बाघ आजाद और दूर तक विचरण कर पाएंगे।