कर्नाटक में पिछले पांच छह माह में इंसानों और जंगली जानवरों के बीच संघर्ष में तेजी देखी गई है। इस संघर्ष ने वन्यजीवन और वन संरक्षण के मुद्दों पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है।
राज्य में जब वन जीव संरक्षण उपायों के कारण वन्यजीवों की आबादी तेजी से बढ़ रही है, तब राज्य सरकार को बफर जोन बनाकर वन क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिए था। ऐसे क्षेत्रों के बनाए जाने से जानवरों की बढ़ती आबादी को असानी से संभाला जा सकता था।
यह बढ़ा हुआ क्षेत्र जानवरों के प्रवासन के लिए कनेक्टिविटी प्रदान कर सकता था। लेकिन कर्नाटक में हुआ इसका ठीक उलटा। राज्य सरकार ने गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए वन भूमि में कई बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दे है। इससे वन या तो सिकुड़ गए हैं या वन क्षेत्र में मानव-पशु संघर्ष और बढ़ गया है।
राज्य में 2020-21 और 2021-22 के दौरान मानव-वन्यजीवों के बीच संघर्ष जब अपनी चरम पर पहुंच गया तब राज्य सरकार ने 450 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को खनन, सड़क निर्माण, सिंचाई, पवन चक्कियों और रेलवे लाइनों सहित 39 परियोजनाओं के लिए आबंटित कर दिया।
ध्यान रहे कि राज्य में 2012-13 में वन भूमि क्षेत्र 43,356.47 वर्ग किमी या राज्य की कुल भूमि क्षेत्र का 22.61 प्रतिशत था जबकि 2021-22 में यह घटकर 40,591.97 वर्ग किमी या कुल भूमि क्षेत्र का 21.16 प्रतिशत हो गया यानी वन क्षेत्र भूमि कम हो गई। जबकि जानवरों की संख्या में वृद्धि को देखते हुए वन्य भूमि को बढ़ाए जाने की जरूरत थी।
संरक्षणवादियों का तर्क है कि भूमि से सटे वन क्षेत्रों में वृक्षारोपण से बफर जोन को बढ़ाया था और मजबूत किया जा सकता है। और यह कार्ययोजना मानव-पशु संघर्षों को कम करने में मदद कर सकती थी। लेकिन जंगलों को बढ़ाने और सुरक्षित करने कि बजाय मौजूदा वन भूमि को कई विकास योजनाओं के लिए डायवर्ट किया जा रहा है।
यहां तक कि राज्य सरकार ने पश्चिमी घाटों में पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना का भी विरोध किया है जो हरित क्षेत्र की रक्षा में मदद कर सकता है। 2022 में राज्य सरकार ने 6.5 लाख हेक्टेयर डीम्ड फॉरेस्ट (मानने वाला वन) को डिनोटिफाई किया था। कर्नाटक में 9.94 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में डीम्ड वन फैले हैं।
यदि सरकार ने इस प्रकार की नीतियों को और आगे बढ़ाया तो यह पर्यावरण के लिए और हानिकारक साबित हो सकता है। यह स्थिति संघर्षों को कम करने के लिए किए जा रहे सभी उपायों के असर को खत्म कर देगी और आने वाले दिनों में मानव-पशु संघर्ष और तेजी से बढ़ेंगे।
वन विभाग के अनुसार 2020-21 के दौरान जंगली जानवरों द्वारा फसल क्षति से संबंधित 24,740 मामले सामने आए। मवेशियों की हत्या के 3,019 मामले और राज्य में 36 लोगों की मौत हुईं। सभी मामलों में कुल मिला कर दिया गया मुआवजा 21.64 करोड़ रुपए था। 2021-22 में जंगली जानवरों से फसल खराब होने के मामले बढ़कर 31,225 हुए। मारे गए मवेशियों की संख्या 4,052 हो गई और 40 लोगों की मौतें हुईं।
इसके लिए मुआवजा 27.4 करोड़ रुपए से अधिक का मुआवजा दिया गया। 2023 में मुआवजे के रूप में 20 करोड़ रुपए से अधिक का भुगतान पहले ही किया जा चुका है। यह माना जा रहा है कि एक बार लंबित आवेदनों पर कार्रवाई हो जाने के बाद यह आंकड़ा 40 करोड़ रुपए को पार कर जाएगा।
मौतों और फसल की क्षति की कीमत जंगल के किनारे और गांवों में रहने वाले लोगों द्वारा ही चुकाई जा रही है। इसका मतलब है कि वन्यजीव संरक्षण के लिए स्थानीय समर्थन कम हो सकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए वन्य अधिकारियों ने संघर्षों को कम करने की योजनाओं पर बड़े पैमाने पर काम करने की सोची है। इनमें जंगल की सीमाओं से सटे गांवों में टूटी हुई बाड़ों को दुरुस्त करना और संघर्ष वाले क्षेत्रों से हाथियों और बाघों को दूसरे वन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित करना आदि शामिल है।
ध्यान रहे कि राज्य सरकार के इस योजना को क्रियान्वयन करते ही दक्षिण कर्नाटक में मानव-तेंदुए के संघर्ष में तेजी देखने में आई है। यह तेजी मैसूरु जिले के टी. नरसीपुरा तहसील में देखने को मिली जहां पिछले कुछ महीनों के भीतर ही चार मानव मौतें हुईं हैं।
वन विभाग ने जंगली जानवरों को रखने के लिए बाड़े या बचाव केंद्र स्थापित किए हैं। इनमें से प्रत्येक में 250 तेंदुओं को रखने की क्षमता है। अप्रैल 2022 से और जनवरी 2023 के बीच कर्नाटक के संघर्ष क्षेत्रों से लगभग 130 तेंदुए पकड़े गए। वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि हमारी इस कार्रवाई से निश्चित रूप से मानव और पशुओं के बीच संघर्ष में कमी आएगी।
हालांकि द हिंदु अखबार में छपी रिपोर्ट के अनुसार संरक्षण जीव विज्ञानी संजय गुब्बी और उनकी टीम द्वारा राज्य में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि राज्य में तेंदुए की आबादी लगभग 2,500 है। वह बताते हैं कि मानव-तेंदुआ संघर्ष का 50 प्रतिशत से अधिक राज्य के पांच जिलों (रामनगर, तुमकुरु, मांड्या, मैसूरु और हासन) में होता है।
ऐसा कतई नहीं है कि केवल कर्नाटक में मानव-पशु संघर्ष देखने को मिल रहे हैं बल्कि देश के अन्य राज्य जैसे झारखंड, असम, छत्तीसगढ़ और ओडिशा आदि राज्यों में यह संघर्ष और तेजी से बढ़ा है। अकेले झारखंड में 2017 से 2022 तक के पांच वर्षों के दौरान हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। यह आंकड़ा केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय का है।
हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक आवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।
2017 में प्रकाशित वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) की रिपोर्ट के अनुसार झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती हैं, उनमें से 45 प्रतिशत इसी इलाके से हैं।
आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।
पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। वर्तमान में देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। हालांकि भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्नित किए गए हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है।
वहीं दूसरी ओर असम में हाल के दिनों में मानव-हाथी संघर्षों की संख्या में तेज वृद्धि देखी गई। असम के वन मंत्रालय के अनुसार राज्य में मानव-हाथी संघर्ष में प्रतिवर्ष औसतन 70 से अधिक मानव और 80 हाथी मारे जाते हैं। असम में 5,700 से अधिक हाथी हैं। रिकॉर्ड के मुताबिक साल 2001 और 2022 के बीच राज्य में 1,330 हाथियों की मौतें हुईं।