वन्य जीव एवं जैव विविधता

कानूनी संरक्षण के अभाव में जर्जर हालत में पहुंचे करोड़ों वर्ष पुराने भूस्मारक

भारत सरकार की नई राष्ट्रीय खनिज नीति देखकर लगता है कि अगली पीढ़ी को भूगर्भीय इतिहास से परिचित कराने में सरकार की कोई रुचि नहीं है

DTE Staff

धरती के अरबों वर्ष के विकासक्रम और उथलपुथल के इतिहास के गवाह भूस्मारक (जियोहेरिटेज साइट या जियोसाइट) घोर उपेक्षा के शिकार हैं। सांस्कृतिक विरासत, यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल, ऐतिहासिक संरचनाओं का संरक्षण और राष्ट्रीय उद्यान अक्सर शैक्षिक पाठ्यक्रम का हिस्सा होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से भूस्मारक, उनका संरक्षण और यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क्स को जनसामान्य द्वारा अब भी ठीक से समझा नहीं गया है।

भूस्मारक वैश्विक, राष्ट्रीय या स्थानीय स्तर के महत्वपूर्ण भूवैज्ञानिक स्थल हैं जिन्हें शिक्षण, अनुसंधान या संदर्भ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे स्थल जो अपने भूवैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा जैविकरूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर के हों और स्थानीय निवासियों की उनके संरक्षण और विकास में सहभागिता भी हो, उन्हें “यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क्स” के रूप मे मान्यता दी जाती है। इसलिए ऐसे स्थलों का संरक्षण न केवल वैज्ञानिक रूप से उपयोगी है, बल्कि अगली पीढ़ी को शिक्षित करने, पर्यटन को बढ़ाने और रोजगार के लिए भी उपयोगी है।

यहां यह भी बताना जरूरी है कि चट्टानें और जीवाश्म अपने “प्राकृतिक प्रयोगशाला” स्तर पर ही अपना सबसे अधिक महत्व रखते हैं, लेकिन जब वे अपने उत्पत्ति स्थल (आउटक्रॉप) से उखाड़ दिए जाते हैं, तो उनका भूवैज्ञानिक मूल्य बहुत कम हो जाता है। अपनी उत्पत्ति के स्थान पर रहने से उनके गठन के दौरान चल रही भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं, पर्यावरण और टेक्टोनिक सेटिंग्स का अध्ययन सर्वथा उचित रूप से किया जा सकता है।

यहां यह उल्लेख किया जाना भी आवश्यक है कि अधिकांश सांस्कृतिक विरासत स्थलों को काफी हद तक बहाल किया जा सकता है, मगर भूवैज्ञानिक स्थलों को अगर एक बार नष्ट कर दिया गया तो कभी पुनर्निर्मित नहीं किया जा सकता, इसलिए उनका संरक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है।



निजी प्रयासों से संरक्षण नाकाफी

प्रकृति ने भारत को दुनिया के सबसे प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक स्थलों से नवाजा है। पृथ्वी के भूगर्भीय विकास के एक बड़े कालखंड के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप एक टापू की तरह बना रहा, फिर अंत में यूरेशिया प्लेट से टकराने के बाद विशाल हिमालय पर्वत श्रृंखला का जन्म हुआ। इसलिए, भारतीय “द्वीप” पर मौजूद जीवन दुनिया के लिए अद्वितीय है। भारतीय डायनासोर इसका एक रोचक उदाहरण है। भारतीय द्वीप में पैदा हुए डायनासोर अपने रिश्तेदारों से कटे से रहे। उनके विकास का इतिहास दुनिया में विशेष प्रकार का भूवैज्ञानिक डेटा प्रदान करता है। भारतीय डायनासोर के विकास का इतिहास जीवाश्म (अंडे, हड्डियों और मल अवशेषों) के रूप में मध्य भारत की भूगर्भिक चट्टानों में संरक्षित हैं।

प्राणहिता-गोदावरी घाटी क्षेत्र में तेलंगाना के आदिलाबाद से सबसे पुराने डायनासोर (लगभग 23 करोड़ वर्ष) के जीवाश्म पाए गए। इसी क्षेत्र में कोटा फॉर्मेशन से 19 करोड़ वर्ष पुराने जुरासिक डायनासोर के जीवाश्म प्राप्त किए गए। क्रिटेसियस डायनासोर (लगभग 6 करोड़ वर्ष) के जीवाश्म मध्य प्रदेश के नर्मदा घाटी में जबलपुर के बाघ और गुजरात के खेड़ा के आसपास की चट्टानों में देखे जा सकते हैं। इन विशाल प्राणियों ने 17 करोड़ से अधिक वर्षों तक पृथ्वी पर शासन किया और क्रिटेसियस काल (6.5 करोड़ वर्ष) के अंत तक उनका नामोनिशान धरती से मिट गया। जबलपुर में कैप्टन विलियम हेनरी स्लीमैन द्वारा 1828 में डायनासोर के जीवाश्मों की पहली खोज के बाद से नर्मदा घाटी क्षेत्र डायनासोर के जीवाश्मों और अंडे के घोंसले के लिए विश्व प्रसिद्ध है। आपने इनकी सबसे खूंखार प्रजाति “टी रेक्स” का नाम सुना ही होगा। इसी भारतीय “टी रेक्स” को “राजासौरस नरमैडेन्सिस” अर्थात नर्मदा का राजा नाम दिया गया है।

1997 में नर्मदा घाटी के किनारे जबलपुर और अहमदाबाद के बीच एक अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र कार्यशाला के दौरान अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक शिष्टमंडल (संयोगवश मैं भी इसका हिस्सा था) ने गुजरात के राज्य प्राधिकारियों से मुलाकात की और उन्हें इन भूगर्भिक खजाने के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। डायनासोर के अंडे को स्थानीय लोग अवैध रूप से कुछ रुपए के लालच में बेच रहे थे। गुजरात सरकार द्वारा खेड़ा जिले के रायोली में इन भूगर्भ स्थलों की सुरक्षा के लिए कोई उचित कानून न होने से “बंबई पुलिस अधिनियम-1951” के तहत संरक्षित घोषित किया गया तथा एक डायनासोर पार्क और एक संग्रहालय स्थापित किया गया। हाल ही में मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने पुनर्निर्मित डायनासोर संग्रहालय का उद्घाटन किया। इस संरक्षण के प्रयास में जीवाश्म साइट के खोजकर्ता जीएसआई के पूर्व उपमहानिदेशक डीएम मोहाबे का विशेष योगदान है।



लेकिन मध्य प्रदेश मे धार जिले के बाग के डायनासोर जीवाश्म स्थलों के संरक्षण की कहानी कुछ अलग ही है। धार के बकनेर स्थित हायर सेकेंडरी स्कूल के फिजिक्स टीचर विशाल वर्मा ने 1986 में बाग क्षेत्र के आसपास कई डायनासोर के अंडों और उनके घोंसलों की खोज की और इस प्रकार वह जियोहेरिटेज कंजर्वेशन के एक प्रतीक से बन गए, जहां आम लोग भी भू-धरोहर के संरक्षण में शामिल थे। कई भूविज्ञान छात्रों को उनके इस अपार योगदान पर आगे अनुसंधान करने के कारण पीएचडी की डिग्री प्राप्त हुई। वर्मा ने मनावर (धार) में एक व्यक्तिगत जीवाश्म संग्रहालय “हरिपद आनंद मठ” भी बनाया है। डायनासोर नेस्टिंग साइटों के संरक्षण के लिए उनका धर्मयुद्ध फलीभूत हुआ और जिला अधिकारियों ने मांडू के ऐतिहासिक स्थान पर एक जीवाश्म संग्रहालय की स्थापना की। लेकिन दुर्भाग्य से डायनासोर और उस काल के पेड़-पौधों के बहुत से जीवाश्म अवशेष इस क्षेत्र से चोरी कर लिए गए।

गुजरात के कच्छ जिले के अंजार में भूगर्भीय चट्टानों में “इरीडियम” तत्व की उच्च सांद्रता 6.5 करोड़ साल पहले एक बड़े पैमाने पर हुए उल्कापात का सबूत है जो डायनासोर के अचानक विलुप्त होने का कारण बना। इस विश्व प्रसिद्ध क्षेत्र में नई रेल लाइन डालने के कारण इसके प्रश्तर खंड नष्ट हो गए। इस महत्वपूर्ण खंड की दयनीय स्थिति को देखकर गांधीनगर के जीएसआई के वरिष्ठ अधिकारी ललित ठाकुर ने स्थानीय व रेलवे अधिकारियों से मुलाकात कर इस “आउटक्रॉप” का महत्व समझाया। तब इस सेक्शन को नायलॉन नेट से कवर किया गया। बेहतर होता अगर कम से कम तार की जाली का उपयोग किया जाता। ऐसी कई कहानियां हैं जहां व्यक्तियों (राज्य वन प्राधिकरणों या अन्य एजेंसियों के स्थानीय या सरकारी अधिकारी) ने कार्रवाई की और ऐसी साइट्स की रक्षा भी की। हालांकि, जियोहेरिटेज साइट्स की सुरक्षा के लिए कोई कानून न होने से इक्का-दुक्का प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षित प्रभाव नहीं ला पा रहे हैं।



यह भी देखा गया है कि पर्यटन विभाग द्वारा विकसित कई संरक्षित प्राकृतिक स्थलों पर वैज्ञानिक विवरण प्रदर्शित नहीं किया जाता। कई मामलों में भ्रामक विवरण प्रदर्शित किया जाता हैं। उदाहरण के लिए भारत की सबसे बड़ी गुफाओं में से एक विशाखापत्तनम जिले की बोरा गुफाओं के प्रवेश द्वार पर डिस्प्ले बोर्ड बताता है कि यह गुफा 15 करोड़ साल पुरानी है। यह उस चट्टान के उत्पत्ति की उम्र है जिसमें गुफा विकसित हुइ है, न कि गुफा की। इसी प्रकार आंध्र प्रदेश के करनूल जिले में स्थित बहुत ही सुंदर “ओरवाकल रॉक गार्डन” की चट्टानों में विकसित संरचनाओं के बारे में बताने के लिए वहां कुछ भी विवरण नहीं दिया गया है। इसलिए, ऐसी संरक्षित साइटें केवल मनोरंजन स्थल बनकर रह गईं और ज्ञान स्थल नहीं बन पाईं।

संरक्षण में पिछड़ा भारत

भारत में भूस्मारकों के संरक्षण की अवधारणा वैश्विक अवधारणा से भी पुरानी है। सर्वप्रथम 1951 में तमिलनाडु के पेराम्बलुर जिले में थिरुवकाराई, विल्लुपुरम और साथनूर के लकड़ी के जीवाश्मों को भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) द्वारा राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक (एनजीएम) घोषित किया गया था। विश्व में 1990 के दशक में इस पर विशेष ध्यान दिया गया और साल 2000 में यूरोपीय देशों ने “जियोपार्क्स” की अवधारणा रखी जिसे 2004 में यूनेस्को ने मान्यता दी। भारत में 1970 के दशक में कई अन्य भू-स्थानों को एनजीएम के रूप में नामित किया गया। हाल ही में कई और स्थलों को जोड़ने के साथ ही भारत में भूस्मारकों की कुल संख्या 32 हो गई है, फिर भी कई हॉटस्पॉट अब भी एनजीएम के रूप में स्थापित किए जाने के लिए लंबित हैं। देश के कुछ 50 भू-स्थानों (एनजीएम को जोड़कर) का विवरण 2020 में होने वाले अंतरराष्ट्रीय भूवैज्ञानिक कांग्रेस के लिए तैयार किया गया था।



इनमें से कुछ एनजीएम जीएसआई/राज्य सरकारों द्वारा संरक्षित रखे गए हैं, परंतु अधिकांश घोर उपेक्षा की स्थिति में हैं। अब ये विलुप्त होने की कगार पर पहुंच रहे हैं। भारत ने शुरू में इनके संरक्षण की दिशा में मजबूत कदम उठाए पर बाद में हम पिछड़ गए। वियतनाम और थाईलैंड जैसे कुछ छोटे-छोटे देशों सहित 49 देशों में अब तक 166 यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क हैं। इन देशों के अलावा कुछ अन्य ने भी अपनी भूगर्भीय और प्राकृतिक विरासत के संरक्षण के लिए उचित कानून लागू किए हैं। परंतु भारत मे अब तक कोई भी यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क स्थपित नही किया जा सका। कुछ दशक पहले तक अधिकांश भूगर्भ स्थल शहरों की रोशनी से दूर थे और इसलिए सीधे खतरे की आशंका कम थी। जनसंख्या वृद्धि की तेज गति, विकास के साथ सहवर्ती औद्योगीकरण और लगातार निर्माण गतिविधियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने भूगर्भ स्थलों की सुरक्षा खतरे में डाल दी है।

भारत में हमारे सांस्कृतिक स्मारकों और जैविक विविधता वाले क्षेत्रों की रक्षा के लिए “प्राचीन स्मारकों और पुरातात्विक स्थलों और अवशेष अधिनियम, 1958” और “जैविक विविधता अधिनियम, 2002” को लागू किया गया था, लेकिन दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण भूवैज्ञानिक विरासत (प्राकृतिक स्मारकों) को उपेक्षित छोड़ दिया गया। भारत में भूगर्भीय विरासत के प्रति यह उदासीनता क्यों है? वह भी तब जब दुनिया का सबसे पुराना भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संगठन (जीएसआई), कई प्रमुख अनुसंधान और खनिज अन्वेषण संस्थान, प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में भूविज्ञान विभाग, भूविज्ञान और खनन के राज्य निदेशालय आदि यहां मौजूद हैं। खनन क्षेत्र के उदारीकरण के लिए 1993 में सरकार द्वारा पहली राष्ट्रीय खनिज नीति (एनएमपी) प्रतिपादित की गई थी। इस नीति को 2008 में संशोधित किया गया। मार्च 2019 में भारत सरकार एक नई राष्ट्रीय खनिज नीति लेकर आई है जिसने 2008 की नीति को बदल दिया। इसे देखकर लगता है कि सरकार केवल खनिज और खनन क्षेत्र से अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में ही दिलचस्पी ले रही है। अगली पीढ़ी को भूगर्भीय इतिहास से परिचित कराने में उसकी कोई रुचि नहीं है।

भूस्मारकों को कानूनी दायरे में लाने के अब तक के तमाम प्रयास नाकाफी साबित हुए हैं। अप्रैल 2007 गुवाहाटी के युवा भू-संरक्षण कार्यकर्ता और जियोलॉजी लेक्चरर मंजीत कुमार मजूमदार और चंडीगढ़ से आए प्रोफेसर एडी अहलूवालिया ने राष्ट्रपति कलाम से मुलाकात की थी। उन्होंने देश में जियोपार्क नेटवर्क विकसित करने में गहरी रुचि दिखाई और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तत्कालीन सचिव एसपी गोयल के साथ बैठक भी की। बैठक में यह बात सामने आई कि मंत्रालय आने वाले दिनों में जियोपार्क स्थापित करके समग्र रूप से देश की भू-विविधता के संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता पर विचार करेगा। भारत सरकार ने 26 फरवरी, 2009 को राष्ट्रीय विरासत स्थल आयोग विधेयक पेश किया। इसे परिवहन, पर्यटन और संस्कृति विभाग से संबंधित स्थायी समिति के पास भेजा गया, जिसकी अध्यक्षता सीताराम येचुरी ने की थी।



हालांकि, प्रेस सूचना ब्यूरो के माध्यम से जारी 14 मार्च, 2016 की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, “सरकार ने 26 फरवरी 2009 को राज्यसभा में राष्ट्रीय धरोहर आयोग विधेयक, 2009 नाम से एक विधेयक पेश किया था, जिसे स्थायी समिति को भेजा गया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण (एनएमए) के साथ-साथ शहरी विकास, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालयों आदि सहित विभिन्न हितधारकों के साथ विचार-विमर्श किया गया। परामर्शों के आधार पर सरकार ने उक्त विधेयक में परिकल्पित राष्ट्रीय धरोहर स्थल आयोग का गठन नहीं करने का निर्णय लिया। सरकार ने 31 जुलाई 2015 को राज्यसभा से इस विधेयक को वापस ले लिया था।” दिलचस्प बात यह है कि इस संबंध में न तो पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और न ही खान मंत्रालय या भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण से परामर्श लिया गया।

भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने 2014 में अपने मूल मंत्रालय, खान मंत्रालय को भू-विरासत संरक्षण के लिए एक और मसौदा कानून प्रस्तुत किया लेकिन यह फाइलों के भीतर ही रह गया। 2019 में सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंटिस्ट्स (एसईएस) ने वरिष्ठ भूवैज्ञानिकों की एक समिति तैयार की और “जियोहेरिटेज और जियोपार्क्स: भारतीय और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य और मसौदा कानून” पर एक स्थिति रिपोर्ट तैयार की। 6 अगस्त 2019 को दिल्ली में इस पर विचार-विमर्श किया। फिर प्रधानमंत्री कार्यालय, प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार और विभिन्न संबंधित मंत्रालयों को सौंपा गया। खान मंत्रालय के तत्कालीन सचिव सुशील कुमार ने यह चुनौती ली और टास्क ग्रुप और विशेषज्ञ समूह के परामर्श से “जियोहेरिटेज साइट्स का संरक्षण और जियोपार्क्स का विकास बिल, 2020” तैयार किया गया। हालांकि अभी अंतिम परिणाम का इंतजार है जो लम्बा होता जा रहा है। इस बीच हम दिन-प्रतिदिन महत्वपूर्ण भूगर्भीय स्थलों को खो रहे हैं। भू-रक्षण कानून के कार्यान्वयन में और देरी हमारे भूस्मारकों के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है।

(लेखक वरिष्ठ भूवैज्ञानिक तथा सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंटिस्ट्स के जनरल सेक्रेटरी हैं)