वन्य जीव एवं जैव विविधता

पुरानी वन नीति से नहीं हो सकता जंगलों में आग लगने की समस्या का समाधान

33 सालों में भी वन नीति के जरिए हम जंगलों में आग लगने की घटनाओं पर काबू नहीं पा सके हैं। ऐसे में सरकार को एक बार इस नीति की तरफ जरूर देखना चाहिए।

DTE Staff
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र से लेकर मैदानी इलाके के जंगल आग से घिरे हुए थे, तकरीबन 1207.88 हेक्टेयर क्षेत्र आग की चपेट में आए। वनाग्नि से चिंतित व व्यथित पर्यावरणविद व हैस्को के संस्थापक पदमभूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी ने वन नीति के पुनर्वलोकन की वकालत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भेजा है। इस विषय पर बात की है मनमोहन सिंह नौला ने : -

 
जब वन नीति नहीं आई थी तो उत्तराखंड की जंगलों में लगने वाली आग कैसे बुझाई जाती थी? 
हम मनुष्यों ने आज तक प्रकृति को समझने की कोशिश नहीं की और न ही प्रकृति के प्रबंधन को समझने की कोशिश कर रहे हैं। अगर हम सब यह जान जाते तो ऐसा कुछ नहीं होता। याद रखिए जीवन में प्राकृतिक संसाधनों का का जो प्रबंधन होता है वह प्रकृति को समझ कर ही तय किया जा सकता है।और जो पारस्परिक संबंध होते हैं गांव, जंगल, नदी, खेत, धारे,कुएं इनकी महत्ता को भी समझना चाहिए इनकी महीनता को भी समझना चाहिए। क्योंकि आज तक 30- 40 साल पहले ,जब वन नीति नहीं आई थी, सारे के सारे गांव आग बुझाने के लिए जाते थे बारी-बारी से। वहां पर भोजन ले जाते थे उनके लिए पानी ले जाते थे अब वह संबंध टूट गया है। वन नीति ने इस रिश्ते पर चोट कर दी है। वन अब गांव वालों के लिए गैर संपदा बनकर रह गई है। जब आग लगती स्थिति तस्वीर बिल्कुल बदली हुई है। पुरानी परंपरा को जीवित करना होगा।
 
क्या जंगल की आग के लिए वननीति सबसे ही सबसे ज्यादा दोषी है? 
सरकार की नीति को दोष दिया जा सकता है क्योंकि इस वन नीति ने ही जंगल को इंसानों से अलग कर दिया है। जन और वन को अलग नहीं किया जा सकता। 1988 की वन नीति, वनों के पर्याप्त विस्तार प्रबंधन करने में सक्षम नहीं है तो इसके कारणों पर ध्यान देना जरूरी है। इस नीति के अनुसार राज्य में तीसरी 30 फीसदी और पहाड़ में 65 फ़ीसदी वन होने चाहिए।लेकिन इस नीति के चलते इन लक्ष्यों पर पहुंच पाए हैं हम? गत 33 सालों में यह नीति वनों को बेहतर कर पाई है या आग लगने की घटनाओं को रोक पाई है? आप ही बताइए क्या इस नीति पर सवाल उठाने व चिंता जाहिर करने का समय नहीं यह?
यह मामला सिर्फ उत्तराखंड की जंगलों का ही नहीं है  सारे देश है मैंने इससे सिलसिले में प्रधानमंत्री को चिट्ठी भेजी है। (मैंने उनसे अनुरोध किया है कि फॉरेस्ट पॉलिसी को फिर से देखा जाए। एक ऐसी नीति जो न वनों को बढ़ा सकती हो बचा सकती हो और आग से वनों को बचा सकती हो ऐसी पॉलिसी का पुनरावलोकन बेहद जरूरी है।)
 
और क्या कारण हैं इस जंगल में आग लगने के ?
 
इसके अलावा... सामूहिक दोष भी समझना होगा... ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन यह सामूहिक दोष है। हमारी क्या पूरी दुनिया की लाइफ टाइम देखिए। जिस तरह से ऐनर्जी इस्तेमाल किया जा दुनियाभर में इंड्रस्टिलाइजेशन, कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है वह खतरनाक है। हाल ही की एक रिपोर्ट चेतावनी देती है कि विश्व का तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ गया तो दुनिया तबाह हो जाएगी। अब और 2 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा नहीं बढ़नी चाहिए। डेढ़ डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ने का मतलब है कि 14 से 20  फीसदी ग्लेशियर बर्फ पिघल जाएगी जिससे आप समझ गए कि तबाही आ जाएगी।
 
सरकार की भूमिका को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है ?
सरकार चाहे कांग्रेस की हो या बीजेपी की चिंता किसे है? और इस सरकार को चुनता कौन है? आप और मैं। आप ही बताइए चुनाव के दौरान क्या जंगल की आग, , आपदा,  जलवायु परिवर्तन, नदियों का सूखना जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को इंपार्टेंस दी जाती है? अब देखिए चुनाव चल रहे हैं कोई भी पार्टी इस मुद्दे पर ध्यान दे रही है? ना पार्टी सोचती है ना हम सोचते हैं। यही भी सामूहिक दोष है हम सबका।
 
 
जंगल की आग से नुकसान कितना होता है ? 
जंगल की आग से नुकसान का आंकलन तो हो ही नहीं सकता।  सरकारी आंकलन का अपना तरीका होता है। सबसे पहले तो अपनी लाज बचाने का काम करती है वह। उसके बाद जो पेड़ जलने से बच गए उनके तनों की गिनती करते हैं। ठूंठ बचा होगा उससे अंदाजा लगाते हैं।  लेकिन सबसे  महत्वपूर्ण बात यह है कि आग से माइक्रो इको सिस्टम खत्म होता है। आग की वजह से जमीन के नीचे तकरीबन 10 सेंटीमीटर तक गरमी फैल जाती है। गुड बैक्टीरिया के अलावा कई प्रकार के माइक्रोब्स खत्म हो जाते हैं उनका आंकलन कहां होगा? पत्तियां जल गईं पेड़ बचा हुआ है लेकिन उस पेड़ में जो चिड़ियाएं रह रही थीं उनका क्या? हर पेड़ का अपना एक इकोसिस्टम होता है वह राख हो गया है उसका आंकलन कैसे करेंगे? नुकसान को इकोनॉमिकली कैलकुलेट किया जा सकता है लेकिन इको सिस्टम खत्म हुआ उसका आंकलन कैसे करेंगे? इस इस पर चर्चा करने का कोई मतलब ही नहीं है।
 
इकोसिस्टम की सर्विस अथाह होती है। पेड़ के पत्ते जो जल गए उनसे जो प्राणवायु ऑक्सीजन मिल रही थी वह तो खत्म हो गयी उसका आंकलन किस तरह करेंगे? पत्ते, डंठल, फल जो भी है वह जमीन पर गिरता है वह जमीन को उपजाऊ और नम बनाए रखता है। हरा भरा ऊपरी हिस्साआग लगने से बचाता है। जंगल जलने से मिट्टी पर भी असर पड़ता है।उसकी नमी खत्म हो जाती है वह टूटने लगती है और पहली बारिश में ही सतही  मिट्टी बह जाती है। उसका नुकसान जो होता है उसका आंकलन कौन करेगा? सुखी मिटटी,जली हुई भूमि जल को अवशोषित नहीं कर पाती। जंगल से निकलने वाली नदियों के सूखने की भी यही वजह है। जंगल की आग सिर्फ पेड़-पौधों को नहीं जलाती बल्कि वन के पारिस्थितकीय तंत्र को नुकसान पहुंचाती हैउससे होने वाला नुकसान पूरे इकोसिस्टम को नुकसान पहुंचाता है जिसका आंकलन कोई नहीं कर सकता! बेचारे जंगली जानवरों की मौत की गिनती कहां होती है? सरकारी आंकलन आंखों में धूल झोंकने से ज्यादा कुछ नहीं है।
 
दूरगामी योजना क्या हो सकती है?
स्थानीय लोगों की भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण है। मैं फिर कहता हूं कि जिस तरह से वन नीति ने लोगों को जंगल से दूर कर दिया है उस गैप को भरने के लिए इस पर पुनर्विचार करना बहुत ही जरूरी है। उन्हें भागीदार बनाना होगा उसके बिना आप कुछ नहीं कर सकेंगे। ना तो उनके पास कोई अधिकार है और ना ही उन्हें वनों से मिलने वाले नफा नुकसान पर कोई भागीदारी। दरअसल देखा जाए तो वन पंचायत काफी हद तक की आग पर काबू पाने में सफल हो सकते हैं।  वन पंचायतों का गठन आज मात्र एक औपचारिकता ही प्रतीत होती है क्योंकि, उनके वर्तमान दायित्व और अधिकार उन्हें वनों के संरक्षण के प्रति प्रेरित भी नहीं करते हैं। इन वन पंचायतों को नये तर्ज व शैली में पर्याप्त प्रोत्साहन, इंटेंसिव देकर गांवों के हर दर्जे के वनों के रखरखाव के लिए भी जोड़ा जा सकता है। अकेले उत्तराखंड में 12 हजार से ज्यादा वन पंचायतें हैं, जो जंगल की आग को समय पर रोकने के लिए काफी हैं।
दूसरी बात यह कि अंधाधुंध कटाई से  कनार(शाक) व बांज(ओक) के वनों का खोज लगभग खत्म कर दिया गया की जगह ले ली है ज्वलनशील चीड़ ने। उसे कम करके  कनार और बांस के पेड़ लगाए जाएं। जहां तक संभव हो वॉटरहोल्स (जलछिद्र),चैकडैम बनाएं आप मान कर चलिए जमीन पर नमी बनी रहेगी। हरे भरे पौधे बढ़ेंगे। जिसकी वजह से आग से जंगल बचा रहेंगे और दूसरी बात है कि नदियां बहती रहेंगी, जलस्रोत नहीं सूखेंगे। नदियां झरने रिचार्ज होंगे नमी बनी रहेगी। इसका एक उदाहरण है देहरादून का शुक्लपुर है। उत्तराखंड के जंगल जल रहे हैं लेकिन शुक्लपुर के जंगल बचे हुए हैं।