वन्य जीव एवं जैव विविधता

अंतरराष्ट्रीय वन दिवस विशेष: अच्छी नहीं होती सभी हरियाली और बुरे नहीं होते सभी मरुस्थलीय पर्यावास

विकास के क्रम में विखंडित पर्यावास, अत्यधिक चराई एवं आक्रामक विदेशी प्रजातियां वनों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं

Faiyaz A Khudsar

वन एक ऐसा शब्द है, जिसे हम सभी सुनते आ रहे हैं। वन एक नवीकरणीय संसाधन है जो हमें अनगिनत प्रकार के उत्पाद प्रदान करते हैं, किंतु वास्तव में वनों को हम कितनी अच्छी तरह समझते हैं, इसी से तथ्यों के आधार पर वनों को बचाने व बसाने का प्रयास किया जा सकता है।

 21 मार्च को प्रत्येक वर्ष अंतरराष्ट्रीय वन दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पृथ्वी पर मानवता के अस्तित्व के लिए वनों के महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए विश्व भर में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय वन दिवस की स्थापना संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफ ए ओ) ने की थी एवं 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस या अंतरराष्ट्रीय वन दिवस के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 2024 का विषय “वन और नवाचार (इनोवेशन): बेहतर दुनिया के लिए नया समाधान” है।

भारत में भूमि उपयोग के आधार पर देखें तो कृषि के बाद वनों का स्थान आता है। नवीनतम आईएसएफआर (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट) 2021 के अनुसार, देश का कुल वन क्षेत्र 7,13,789 वर्ग किलोमीटर है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.72 प्रतिशत है। वर्तमान मूल्यांकन से पता चलता है कि पिछले मूल्यांकन की तुलना में देश के कुल वन क्षेत्र में 1540 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है, वृक्ष आवरण में 721 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है, और राष्ट्रीय स्तर पर कुल वन और वृक्ष आवरण में 2261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। 

कमज़ोर वन परिस्थितिकी तंत्र का प्रभाव

लेकिन यह भी सत्यता है की बहुत सारे वन क्षेत्र की गुणवत्ता कमजोर हुई है। यहां तक की इसके विघटन  को समझ पाने में हम अभी सक्षम नहीं हुए हैं। विकास के क्रम में विखंडित प्रयावास, अत्यधिक चराई एवं आक्रामक विदेशी प्रजातियां वनों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं।

अत्यधिक चराई से जहां सतही वनस्पतियों का विनाश हो रहा है वहीं दूसरी ओर वनों उपज का अधिक दोहन से बीज के अभाव में वृक्ष के प्रजातियों को पुनः अंकुरित होने में बाधा पहुंच रही है। नीचे से ऊपर की ओर एवं ऊपर से नीचे की ओर सुसज्जित वनस्पति प्रजातियां प्रभावित हो रही है।

इस प्रकार असंतुलित वन पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होता जा रहा है। इससे वन पारिस्थितिकी तंत्र में उपस्थित वन्य प्राणी भी कम होते जा रहे हैं। उनकी अनुपस्थिति नाना प्रकार के परजीवियों को मनुष्यों तक पहुंचा रही है।

हाल के कोविड महामारी ने यह जता दिया है कि वनों की दुर्दशा का प्रभाव मनुष्यों के स्वास्थ्य पर प्रबल रूप से दिख सकता है। इसके साथ ही साथ नदियों में जल की उपलब्धता, वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी, परागण क्षमता में कमी से भोजन की उपलब्धता आदि निरंतर प्रभावित हो रही है।

आक्रामक वनस्पति प्रजातियां से अक्रियाशील पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण  

आक्रामक वनस्पति प्रजातियां विदेशी प्रजातियां हैं। सेंटर फॉर इनवेसिव स्पीशीज़ एंड इकोसिस्टम हेल्थ का कहना है कि "ये प्रजातियाँ तेजी से बढ़ती हैं जिससे उन क्षेत्रों में बड़ी गड़बड़ी होती है जिनमें वे मौजूद हैं।"

भारतवर्ष में मुख्य रूप से विलायती कीकड़, लैंटाना, मिकानिआ, गाजर घास आदि प्रमुख प्रजातियां हैं। आक्रामक प्रजातियां भोजन और आवास के मामले में अन्य प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा करती हैं, क्योंकि इनके पेस्ट एवं पैथोजेन का अभाव होता है।

चूंकि देशी प्रजातियां उपयुक्त प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकतीं, इसलिए उन्हें या तो पारिस्थितिकी तंत्र छोड़ने या विलुप्त होने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यदि एक आक्रामक प्रजाति कई अन्य प्रजातियों को बाहर कर देती है, तो प्रजातियों की विविधता कम हो जाएगी, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र अकुशल रूप से कार्य करने या विफल होने का कारण बन सकता है।

आज की स्थिति में भारतवर्ष में कमोबेश सारे वन पारिस्थितिकी तंत्र इससे प्रभावित हैं।

पारिस्थितिकी तंत्र क्या है?

दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाने-माने पारिस्थितिकी विज्ञानी प्रोफेसर सी. आर. बाबू कहते हैं कि पारिस्थितिकी तंत्र कुछ वर्ग मिलीमीटर से लेकर हजारों वर्ग किलोमीटर तक के आकार का कोई भी क्षेत्र है, जहां  4 पर्यावरणीय घटक (जल,वायु,चट्टान/मिट्टी और जीव) आपस में परस्पर प्रभावित होते हैं और उनके बीच एक जटिल, आत्मनिर्भर, गतिशील, कार्यात्मक प्राकृतिक प्रणाली का निर्माण होता है।

4 पर्यावरणीय घटकों के बीच लाखों अंतःक्रियाएं होती हैं और ये अंतःक्रियाएं लाखों पारिस्थितिक प्रक्रियाओं को जन्म देती हैं, जो अनगिनत  पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और वस्तुओं को उत्पन्न करती हैं, जो सभी मानव कल्याण में योगदान करती हैं।

यह स्पष्ट है कि भारत देश जैसे बहुजनसंख्या वाले देश में क्रियाशील पारिस्थितिकी तंत्र को सुनिश्चित करना अनिवार्य है क्योंकि हम अभी भोजन देने में सक्षम हो पा रहे हैं, किंतु जीवन दायिनी अनमोल हवा एवं पानी की सुचारू व्यवस्था मात्रा क्रियाशील वन पारिस्थितिकी तंत्र से ही संभव है। 

कार्यात्मक वन पारिस्थितिकी तंत्र का प्रबंधन कैसे करें?

भारतवर्ष का इतिहास वनों एवं वन्य प्राणियों को बचाने का रहा है। चिपको आंदोलन इसका नयाब उदाहरण है, जहां श्रीमती गौरा देवी के नेतृत्व में उत्तराखंड में महिलाओं ने वृक्षों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया और स्वतंत्र भारत में प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई थी। चंडी प्रसाद भट्ट एवं सुंदरलाल बहुगुणा ने इस आंदोलन को आगे बढ़ने का कार्य किया। जरूरत है, वनों को समृद्ध करना जिसके लिए इनका पुनर्स्थापना नितांत आवश्यक है।

वृक्षारोपण अभियानों को अक्सर देश की भूमि क्षरण और पर्यावरणीय समस्याओं के एकमुश्त समाधान के रूप में देखा जाता है।हालांकि नेक इरादे के बावजूद वे कई मामलों में वांछित परिणाम नहीं दे पाए हैं, क्योंकि उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी है और वे वास्तविक समस्या की गलत पहचान करते हैं।

वृक्षारोपण अभियान अधिकतर हरित क्षेत्र बनाने की दिशा में एक प्रयास मात्र है। यह प्रयास स्थानीय प्रजातियों के वनस्पतियों के समूह में पुर्नस्थापना की अनदेखी करता है। उदाहरण स्वरूप यदि मरुस्थल में वृक्षारोपण करते हैं तो निरंतर इससे वहां की नमी कम होगी एवं स्थानीय प्रजाति के पौधे- आक, टीट एवं दूसरी कटीली झाड़ियां के विनाश का मार्ग प्रशस्त होगा।

सभी हरित क्षेत्र क्रियाशील पारिस्थितिकी तंत्र नहीं होता, सभी शुष्क क्षेत्र बुरा नहीं होता।  इसलिए अफॉरेस्टेशन एवं रिफारेस्टेशन से हमें परहेज करने की आवश्यकता है। आवश्यक है कि इकोलॉजिकल इतिहास के आधार पर पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्स्थापित किया जाए जहां स्थानीय प्रजाति के वृक्ष, झाड़ियां एवं घास की प्रजातियां का समावेश हो।

भारत सरकार के दिल्ली विकास प्राधिकरण का जैव विविधता पार्क की श्रृंखला दिल्ली में एक सफल उदाहरण है एवं एक इनोवेशन है जहां यमुना नदी घाटी एवं अरावली पर्वत श्रृंखला के वनस्पति समुदायों को पुनर्स्थापित किया गया है। बाढ़ क्षेत्र के नाम भूमि को पुनर्जीवित किया गया है एवं अरावली की प्रमुख वनस्पतियां- कुल्लू, दूधी, खेजड़ी, चमरोर, झाड़बेरी, टेंट,  एवं स्थानीय घास की प्रजातियां समुदायों के रूप में पुनर्स्थापित किया गया है।

एक क्रियाशील पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण हुआ है। जो कार्बन का अवशोषण एवं भंडारण, वर्षा जल संग्रहण, एवं कनिका तत्व(पार्टिकुलेट मैटर) का अवशोषण आदि करने में सक्षम है। हमारा देश अभी भी वन क्षेत्र से समृद्ध है। हम सब साथ मिलकर व्यवसायिक विकास से परे वनों को बचाएं, बसाए, एवं दीर्घ जीवी बने। विश्व वानिकी दिवस पर हम सब की यही कामना है। 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली के डिग्रेडेड इकोसिस्टम्स के पर्यावरण प्रबंधन केंद्र के जैव विविधता पार्क कार्यक्रम में वैज्ञानिक हैं)