भारत के कोलाचेल तट (तमिलनाडु) के समुद्र में 330 फुट गहराई से बिना पंखों वाली सांप ईल अप्टेरिक्थस कन्याकुमारी की पहचान। फोटो साभार: जूटाक्सा
वन्य जीव एवं जैव विविधता

भारत के गहरे समुद्र में छिपी नई मछली प्रजाति 'अप्टेरिक्थस कन्याकुमारी' की हुई खोज

तमिलनाडु के कोलाचेल तट की गहराइयों में मिली नई सांप ईल, भारत की समुद्री जैव विविधता को मिला नया आयाम।

Dayanidhi

  • भारत के कोलाचेल तट (तमिलनाडु) के समुद्र में 330 फुट गहराई से बिना पंखों वाली सांप ईल अप्टेरिक्थस कन्याकुमारी की पहचान।

  • विशेष शारीरिक लक्षण: सुनहरे पीले रंग की मछली, तीन गहरे धब्बे सिर पर, 3 प्रीऑपर्कुलर और 9 सुप्राटेम्पोरल पोर्स, 52,131 कशेरुकाएं।

  • जीन विश्लेषण से स्पष्ट हुआ कि यह प्रजाति अप्टेरिक्थस नंजिलनाडुएंसिस से अलग और अनोखी है।

  • मुख्य नमूने को फॉर्मालिन और अल्कोहल में संरक्षित कर राष्ट्रीय संग्रहालय, कोच्चि में रखा गया।

  • यह खोज भारत की गहरी समुद्री जैव विविधता को उजागर करती है और भविष्य में पारिस्थितिक अध्ययन व संरक्षण के लिए आधार बनती है।

भारत के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी मछली की पहचान की है जो अब तक विज्ञान की नजर से ओझल थी। यह नई प्रजाति “अप्टेरिक्थस कन्याकुमारी” नामक बिना पंखों वाली सांप ईल है, जिसे तमिलनाडु के कोलाचेल तट के पास, लगभग 100 मीटर की गहराई से पकड़ा गया। यह खोज न केवल एक नई प्रजाति के रूप में अहम है, बल्कि भारत के गहरे समुद्री जैव-विविधता मानचित्र में एक नया अध्याय जोड़ती है।

खोज कहां और कैसे हुई?

यह खोज आईसीएआर–नेशनल ब्यूरो ऑफ फिश जेनेटिक रिसोर्सेज (एनबीएफजीआर), कोच्चि के वैज्ञानिकों की टीम ने की है। टीम ने गहरे समुद्र में जाल फेंककर मछली पकड़ने या ट्रॉलिंग के दौरान एक अज्ञात ईल को देखा। शुरुआत में यह मछली दिखने में अन्य सांप ईलों जैसी ही लगी, लेकिन जब उसके शरीर की बारीक जांच की गई तो कई अनोखी विशेषताएं सामने आई।

ईल की विशेष बनावट

सांप ईल परिवार (ओफिचथिडे) की यह मछली अपने लंबे, पतले शरीर और पंखों के लगभग न होने के कारण “बिना पंखों वाली” कहलाती है। वैज्ञानिकों ने इसकी शारीरिक संरचना का विश्लेषण किया और पाया कि इसके तीन प्रीऑपर्कुलर पोर्स, नौ सुप्राटेम्पोरल पोर्स, एक कतार में शंक्वाकार दांत, कुल 52,131 कशेरुकाओं का पैटर्न पाया गया। यह पैटर्न अब तक ज्ञात किसी भी अप्टेरिक्थस प्रजाति से मेल नहीं खाता।

जीवित अवस्था में यह ईल सुनहरे पीले रंग की होती है, सिर के नीचे हल्का रंग और आंखों व जबड़ों के पास तीन गहरे धब्बे होते हैं, जो इसे नजदीकी प्रजातियों से अलग करते हैं। इसकी लंबाई लगभग 36 सेंटीमीटर है।

डीएनए जांच से मिली पुष्टि

सिर्फ आकार या रंग देखकर नई प्रजाति घोषित करना पर्याप्त नहीं होता। इसलिए टीम ने इसका डीएनए बारकोडिंग भी की, यानी एक छोटे जीन के हिस्से का विश्लेषण जो हर प्रजाति के लिए विशिष्ट होता है।

परिणामों में यह मछली अप्टेरिक्थस नंजिलनाडुएंसिस नामक स्थानीय प्रजाति से जुड़ी जरूर मिली, लेकिन उसका जीन क्रम पूरी तरह अलग था। इस प्रकार, आकृति और आनुवंशिक दोनों प्रमाणों ने पुष्टि की कि यह वास्तव में एक नई प्रजाति है।

नामकरण और संरक्षित नमूना

नई प्रजाति का नाम “कन्याकुमारी” रखा गया क्योंकि यह वहीं के समुद्री क्षेत्र से मिली। इसका होलोटाइप, यानी नाम से जुड़ा मुख्य नमूने को कोच्चि स्थित राष्ट्रीय संदर्भ संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। इसे पहले फॉर्मालिन में संरक्षित किया गया और बाद में अल्कोहल में रखा गया ताकि आने वाले वर्षों में अन्य वैज्ञानिक इसकी तुलना कर सकें।

नाम को ज़ूबैंक में पंजीकृत किया गया है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई प्रजातियों के नामों की आधिकारिक सूची रखता है।

कोलाचेल तट का महत्व

कोलाचेल, तमिलनाडु के दक्षिण-पश्चिमी सिरे पर स्थित है जहां अरब सागर की पोषक तत्वों से भरपूर धाराएं तट से टकराती हैं। यह क्षेत्र छोटे समुद्री जीवों और शिकारी मछलियों के लिए उपयुक्त आवास प्रदान करता है। अक्सर समुद्र तल से सामग्री निकालने के दौरान इस तरह के गहरे समुद्र के जीव ऊपर आ जाते हैं, और यही तरीका इस ईल के मिलने का भी बना।

पर्यावरण और संरक्षण से जुड़ी अहमियत

अभी तक इस ईल के जीवन चक्र, भोजन या प्रजनन के बारे में बहुत कम जानकारी है। सामान्यतः सांप ईलें रेतीले या कीचड़ भरे समुद्र तल में सुरंग बनाकर रहती हैं और रात में बाहर निकलकर कीड़ों और छोटे क्रस्टेशियनों का शिकार करती हैं। उनका शरीर और घटे हुए पंख उन्हें जमीन में घुसकर रहने के लिए अनुकूल बनाते हैं।

इस खोज से वैज्ञानिकों को भारत के गहरे समुद्र के खाद्य-जाल को बेहतर समझने में मदद मिलेगी, यह जानने में कि समुद्र के नीचे कौन किस पर निर्भर है और पर्यावरणीय बदलावों का उन पर क्या असर पड़ता है।

बढ़ती खोजें और भविष्य की दिशा

जूटाक्सा नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि शोधकर्ता अब तक भारत के तटीय जल से 16 नई मछली प्रजातियों की पहचान कर चुके हैं। वे मानते हैं कि कन्याकुमारी और इसके आस-पास के समुद्री क्षेत्र में अभी और भी कई अज्ञात जीव छिपे हो सकते हैं। भविष्य में और गहराई से नमूने लेकर उनके व्यवहार, भोजन की आदतें और आबादी का अध्ययन किया जाएगा।

अगर कभी स्थानीय मछुआरे इन ईलों को पकड़ते हैं, तो वैज्ञानिक सलाह देते हैं कि पहले पोषण और प्रदूषण जांच की जाए, ताकि यह पता चले कि इन्हें खाना सुरक्षित है या नहीं।

अप्टेरिक्थस कन्याकुमारी की खोज हमें यह याद दिलाती है कि समुद्र की गहराई में अब भी अनेक रहस्य छिपे हैं। हर नई प्रजाति, चाहे वह छोटी हो या बड़ी, जीवन के विशाल जाल को समझने में एक नई कड़ी जोड़ती है।

भारत जैसे जैव-विविधता से समृद्ध देश के लिए यह बेहद जरूरी है कि हम अपने समुद्री पारितंत्रों को जानें, उनका दस्तावेज तैयार करें और उन्हें बचाने की दिशा में कदम उठाएं, क्योंकि कई बार प्रजातियां लुप्त हो जाती हैं, इससे पहले कि विज्ञान उन्हें पहचान सके।