इसी साल 28 फरवरी को उच्चतम न्यायालय ने अवैध अतिक्रमणकारियों को वन से बेदखल करने के अपने ही फैसले पर रोक लगा दी। इससे 30 करोड़ वनवासियों ने राहत की सांस ली थी। लेकिन, इसके तुरंत बाद केंद्र सरकार ने भारतीय वन अधिनियम (आईएफए), 1927 पर संशोधनों की एक धारदार कुल्हाड़ी चला दी और 7 मार्च को देश के सभी राज्यों के प्रमुख वन अधिकारियों को “गोपनीय” दस्तावेज भेज दिया। भारत के वन महानिरीक्षक (वन नीति) नोयल थॉमस की तरफ से भेजे गए इस दस्तावेज में औपनिवेशिक काल के आईएफए को बदलने का प्रस्ताव था। पहली बार बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत समुदाय संचालित वन्य व्यवस्था को खत्म करने और जंगलों में नौकरशाही मजबूत करने हेतु कदम उठाए गए।
वर्तमान आईएफए की प्रस्तावना पूरी तरह से आर्थिक हितों पर केंद्रित है। इसमें कहा गया है, “वन उपज को ढोने और इमारती लकड़ी व अन्य वन उपज पर लगने वाले कर से संबद्ध विधि के समेकन के लिए।” वहीं, प्रस्तावित मसौदे की प्रस्तावना संरक्षण और “जलवायु परिवर्तन व अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से जुड़ी चिंताओं” पर केंद्रित है। इसमें जंगलों के सामुदायिक प्रबंधन की बात गायब है, जिसने बीते दो दशकों में धीरे-धीरे पूरे भारत में जड़ें जमा ली हैं।
यह कोई छुपी बात नहीं है कि प्रस्तावित संशोधन कहीं अधिक औपनिवेशिक और भयावह हैं। आईएफए की दशकों से इसलिए आलोचना की जाती रही है कि इसे अंग्रेजों ने लागू किया था, जो न सिर्फ भारत के 23 फीसदी भूभाग में फैले देश के जंगलों पर कानूनी नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे, बल्कि लकड़ी के जरिए राजस्व भी कमाना चाहते थे। लेकिन, प्रस्तावित संशोधन के दूरगामी निहितार्थ हैं। इसमें न सिर्फ दूसरे वन कानूनों, खासकर काफी संघर्षों के बाद लागू हुए वन अधिकार अधिनियम, 2006 को खत्म करने और वन समुदायों को विस्थापित करने का प्रावधान है, बल्कि गैर-कानूनी गतिविधियों को रोकने के लिए वन अधिकारियों को गोली चलाने का अधिकार भी दिया गया है। यही नहीं, बिना राज्य सरकार की अनुमति के किसी भी वन अधिकारी पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकेगा और एक बार मामला दर्ज हो जाने के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकेगा। संशोधन में ग्राम सभा के अधिकारों को कमजोर कर दिया गया है। जहां भारतीय वन अधिकार अधिनियम में ग्राम सभा को भूमि पर मालिकाना हक के आवेदनों को स्वीकार करने का अधिकार दिया गया है, वहीं संशोधन में प्रस्ताव है कि ग्राम सभा वन विभाग पर निर्भर होगी। यही नहीं, वन विभाग को यह अधिकार भी होगा कि वह किसी भी वन भूमि को अवक्रमित या बंजर भूमि घोषित कर दे और इसके बाद वनवासियों को वहां से बेदखल करके किसी प्राइवेट पार्टी को सौंप दे।
कैसे हुई शुरुआत
2015 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने वन्य प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव का सुझाव देने के लिए टीएसआर सुब्रमण्यम समिति का गठन किया था। इसकी प्रमुख सिफारिशों में से आईएफए में संशोधन करना था। 2010 में एमबी शाह आयोग ने भी संशोधन का सुझाव दिया था।
शुरुआत में ही आईएफए में संशोधन प्रक्रिया को गोपनीय बना दिया गया। 23 सितंबर, 2016 में पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय ने वन अधिकारियों के प्रभुत्व वाली एक समिति का गठन किया। इसमें चार राज्यों, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मणिपुर के प्रधान मुख्य वन संरक्षक शामिल थे। समिति में तत्कालीन वन महानिरीक्षक रेखा पई, तत्कालीन वन उप महानिरीक्षक (वन नीति) नोयल थॉमस और सहायक महानिदेशक (वन्यजीव) एमएस नेगी थे। तीन गैर-सरकारी सदस्यों में वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के महासचिव रवि शंकर, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल शाखा में पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय के सलाहकार शंकर श्रीवास्तव और उच्चतम न्यायालय के वकील संजय उपाध्याय शामिल थे।
आश्चर्यजनक रूप से वन्य प्रशासन के अहम साझेदार और वन अधिकार अधिनियम के नोडल मंत्रालय, जनजातीय कार्य मंत्रालय को इसमें शामिल नहीं किया गया। यही नहीं, इस समिति में वनवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाला भी कोई शामिल व्यक्ति नहीं था। समिति ने लोगों के साथ परामर्श प्रक्रिया शुरू करने की जहमत भी नहीं उठाई। इसकी पांच बार बैठक हुई। 5 दिसंबर 2017 को मुख्य प्रारूप समिति का गठन किया गया, जिसमें फिर एक बार वही लोग शामिल किए गए। इससे भी बदतर बात यह है कि पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय ने संशोधन मसौदे को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा पर्यावरण व वन संबंधी संसदीय स्थायी समिति तक के साथ साझा नहीं किया।
बेंगलुरु स्थित गैर-लाभकारी पर्यावरण सहायता समूह के लियो सल्दाना कहते हैं, “उन्होंने जानबूझकर संसदीय स्थायी समिति और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के साथ संशोधन से संबंधित जानकारियों को साझा करने से रोक दिया, ताकि विरोध के स्वरों को दबाया जा सके।” पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय के विशेष सचिव एवं वन महानिदेशक सिद्धांत दास सरकार का बचाव करते हुए कहते हैं, “यह सिर्फ आधार दस्तावेज है। राज्य सरकारों के फीडबैक देने के बाद हम उनके साथ बातचीत शुरू करेंगे। किसी भी स्थिति में प्रस्तावित संशोधन उन 14 राज्यों पर लागू नहीं होगा, जिनके पास अपने खुद के वन कानून हैं।”
वन अधिकार विशेषज्ञों का मानना है कि प्रस्तावित संशोधन इस बात का उदाहरण है कि केंद्र सरकार बिना सभी साझेदारों से बात किए बिना वन कानून के निर्माण को लेकर जल्दबाजी दिखा रही है। उदाहरण के तौर पर, 2016 में लागू हुए क्षतिपूर्ति वनरोपण निधि अधिनियम में निर्णय लेने की प्रक्रिया से ग्राम सभाओं को बाहर रखा गया।
जनजातीय कार्य मंत्रालय की पूर्व कानूनी सलाहकार शोमोना खन्ना कहती हैं, “दुनिया भले ही 21वीं सदी में पहुंच गई हो, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय वन प्रशासन को 19वीं सदी में ही बनाए रखने की कोशिश कर रहा है।” वह कहती हैं कि यह सिर्फ औपनिवेशिक नहीं है, बल्कि यह संशोधन ऐसी अधिनायकवादी प्रवृत्ति वाला है, जो केंद्र को राज्य की भूमि पर वन संबंधी घोषणाएं करने का अधिकार देता है, जबकि भूमि राज्य का विषय है। संशोधन का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति की कुछ बैठकों में हिस्सा लेने वाले महाराष्ट्र के पूर्व अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक आरएस यादव कहते हैं कि बैठकों के दौरान राज्यों ने इस मुद्दे को उठाया था, क्योंकि उन्हें लगा कि इससे राज्यों के वन विभागों और पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय के बीच असामंजस्य की स्थिति पैदा होगी। वह कहते हैं, “हमारे बिंदुओं को मसौदे में शामिल नहीं किया गया।”
ताकतवर नौकरशाही
प्रस्तावित संशोधन स्पष्ट रूप से जंगलों पर वन विभागों का नियंत्रण और बढ़ाता है। यह संरक्षण के नाम पर वन विभाग को मनमानी करने और वनाश्रित समुदायों के अधिकारों को नष्ट करने का अधिकार देता है। यह किसी भी तरह के उल्लंघन को रोकने के लिए वन अधिकारियों को गोली चलाने का अधिकार प्रदान करता है। इसमें कैदियों के लिए परिवहन सुविधा मुहैया कराने और हवालात बनाने और शस्त्रागार स्थापित करने के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने के प्रावधान मौजूद हैं।
हालांकि, इस सबके पीछे केंद्र सरकार के अपने तर्क हैं। दास कहते हैं कि वन अधिकारियों को खतरनाक और मुख्यधारा से कटे इलाकों में काम करना पड़ता है। वहां आम लोग नहीं, सिर्फ वनवासी और तस्कर रहते हैं। सबसे जरूरी बात यह है कि प्रस्तावित संशोधन में अपराध के लिए जमानती और गैर-जमानती, दोनों तरह की सजा निर्धारित है। विभिन्न अपराधों के लिए दंड 500 रुपए से बढ़ाकर 5,000 से 5,00,000 रुपए तक कर कर दिया गया है और कारावास की सजा एक महीने से बढ़ाकर सात साल कर दी गई है। यह संशोधन अधिकारियों को संपत्ति जब्त करने और उसे बेचने की शक्ति देता है, फिर भले ही आरोपी का अपराध साबित नहीं हुआ हो। वन विभाग को वन उपज पर उपकर लगाने का भी अधिकार होगा, जो राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए कर के अतिरिक्त होगा। यह वन अधिकार अधिनियम का उल्लंघन भी है, जो कहता है कि वनवासियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले लघु वन उत्पादों पर कर नहीं लगाया जा सकता है।
वन प्रशासन पर शोध कर रहे जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली के प्रोफेसर सव्यसाची कहते हैं, “जंगलों को राजस्व संस्थाओं के रूप में देखा गया है, न कि जीवन और आजीविका के लिए पारिस्थितिकीय आधार के तौर पर। इससे वनों की कटान को बढ़ावा मिलेगा।”
केंद्र सरकार ने पहली बार वनों को परिभाषित किया है। इसके अनुसार वन वह भूमि है जो सरकारी या निजी या संस्थागत भूमि के रूप में दर्ज की गई है अथवा वन भूमि के रूप में किसी भी सरकारी दस्तावेज में अधिसूचित है। साथ ही जो भूमि सरकार अथवा समुदाय द्वारा वन और मैंग्रोव के रूप में प्रबंधित है। वह भी वन भूमि में शामिल है जिसे राज्य या केंद्र सरकार अधिनियम के तहत वन भूमि घोषित करती है।
यह प्रशासनिक परिभाषा है, जिसमें वन के पारिस्थितिकीय तंत्र के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। इसमें पेड़ों की लंबाई जैसे मापदंडों पर ध्यान नहीं दिया गया है। वहीं, दूसरी तरफ कई राज्यों ने अपने हिसाब से वनों को परिभाषित किया है, लेकिन संशोधन में इन परिभाषाओं को सम्मिलित नहीं किया गया है।
संशोधित मसौदा समुदाय को जाति, धर्म, जाति, भाषा और संस्कृति में भेदभाव किए बिना एक विशिष्ट इलाके में रहने वाले और संसाधनों के संयुक्त स्वामित्व के आधार पर व्यक्तियों के एक समूह के रूप में परिभाषित करता है। वन अधिकार अधिनियम कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों के एक राष्ट्रीय समूह कम्यूनिटी फॉरेस्ट राइट्स-लर्निंग एंड एडवोकेसी (सीएफआर-एलए) की राधिका चितकारा कहती हैं, “इस परिभाषा का इस्तेमाल क्षेत्र के किसी बाहर के व्यक्ति को समुदाय का हिस्सा बनाने के लिए किया जा सकता है।”
खुला दरवाजा
एक और विवादास्पद बिंदु जो वन अधिकार अधिनियम को प्रभावित करता है, वह है सरकार द्वारा समर्थन प्राप्त उत्पादन वनों के निर्माण की योजना, जिसे सरकार ने 2015 में वनों की कटाई में निजी भागीदारी के मसौदे के रूप में मंजूरी दी थी, ताकि निजी कंपनियां वन भूमि पर पौधरोपण कर सकें। इसका उल्लेख राष्ट्रीय वन नीति, 2018 के मसौदे में किया गया था। प्रस्तावित संशोधन में निजी कंपनियों की सहायता से राष्ट्रीय और राज्य वन निधि के निर्माण की बात कही गई है। लेकिन, विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के वनों का निर्माण व्यावसायिक बाजारों के लिए लकड़ी के उत्पादन को बढ़ावा देगा, जो कुछ हद तक औपनिवेशिक काल में भी मौजूद थे। यह राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के एकदम विपरीत है, जिसके केंद्र बिंदु में राजस्व नहीं, बल्कि पारीस्थितिकीय तंत्र और आजीविका की जरूरतें हैं।
सीएफआर-एलए के तुषार दास कहते हैं, “निजी कंपनियों की मदद से उत्पादन वानिकी का चलन अंग्रेजों ने शुरू किया था। इससे काफी पारिस्थितिकीय विनाश हुआ। हकीकत में इस तरह की शोषणकारी वानिकी के विरोध में ही ओडिशा में सामुदायिक वन जैसी परंपराओं की शुरुआत हुई।”
वनाधिकार को कमजोर करने की कोशिश
बीत एक दशक में वन अधिकार अधिनियम के तहत देशभर के आदिवासी समुदायों ने वन भूमि पर मालिकाना हक हासिल करने के लिए 42.1 लाख दावे किए हैं। प्रस्तावित संशोधन वन नौकरशाही को अर्ध-न्यायिक शक्तियां सौंपकर वन अधिकार अधिनियम को मजाक बनाता है। उदाहरण के तौर पर प्रस्तावित संशोधन में लोगों के वन भूमि पर अधिकार के दावों को निपटाने के लिए एक व्यवस्थापन अधिकारी की नियुक्ति की बात की गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह पीछे धकेलने वाला कदम है, क्योंकि वन अधिकार अधिनियम के तहत दावों के निपटारे के लिए पहले से ही एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की गई है, जिसमें वन विभाग और आदिवासी विकास विभाग के साथ ही पंचायती राज विभाग के सदस्य भी शामिल हैं।
दास कहते हैं, “वन अधिकारी के जरिए दावों का निपटान एक औपनिवेशिक व्यवस्था थी। अब वन अधिकार अधिनियम और पीईएसए के तहत एक विकेंद्रीकृत व्यवस्था मौजूद है। वास्तव में वन अधिकार अधिनियम की मांग के प्रमुख कारणों में से एक वन विभाग की तरफ से दावों का सही से निपटारा न किया जाना भी था। यह प्रस्तावित संशोधन वन नौकरशाही को फिर से वही शक्तियां प्रदान कर देगा।”
प्रस्तावित संशोधन ऐसे समय आया है, जब वन अधिकार अधिनियम के होने के बावजूद वनवासियों के अधिकारों पर खतरा मंडरा रहा है। वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन पर जनजातीय कार्य मंत्रालय के द्वारा नवंबर, 2018 में संकलित आंकड़ों के अनुसार, भूमि पर मालिकाना अधिकार के लिए अब तक जताए गए कुल 42.1 लाख दावों में से सिर्फ 17.4 लाख दावों को ही स्वीकृत किया गया है। इनमें से सिर्फ 79,000 दावों को ही सामुदायिक वन अधिकार के तहत मान्यता दी गई है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस संशोधन के जरिए वन प्रशासन के एक समानांतर व्यवस्था शुरू करने की कोशिश की जा रही है। वन विभाग ने पंचायती वनों और संयुक्त वन प्रबंधन समितियों का गठन वन प्रबंधन का नियंत्रित करने के लिए किया था, जो वन अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद अप्रासंगिक हो गए, लेकिन अब उन्हें पुनर्जीवित किया जाएगा। इससे ग्राम सभाओं की भूमिका बेहद कमजोर और खोखली हो जाएगी। संयुक्त राज्य अमेरिका के कनेक्टिकट विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर प्रकाश काशवान कहते हैं, “भारत में संयुक्त वन प्रबंधन समितियां महज दिखावा भर रही हैं। वन विभाग ने गुजरात और महाराष्ट्र के सामुदायिक संरक्षित जंगलों में कागज मिलों को पट्टे पर जमीन दे दी और समुदायों को मुआवजा देना तो दूर, उनके साथ विचार-विमर्श तक नहीं किया, जिन्होंने उनकी रक्षा के लिए अपने श्रम का निवेश किया था।”
आम चुनाव में व्यस्त होने के बावजूद राजनैतिक दल इस प्रस्तावित संशोधन का इस्तेमाल एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ जिसके 44.21 प्रतिशत भूभाग में वन हैं, पहले ही इसके विरोध में स्वर मुखर कर चुका है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में वन अधिकार अधिनियम को लागू करने के मुद्दे पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन को पत्र लिखा है। बघेल के अनुसार, सिर्फ राज्यपाल ही यह तय कर सकते हैं कि इन क्षेत्रों में कोई कानून लागू होगा या नहीं।
प्रक्रिया के मुताबिक राज्य सरकारों के साथ संशोधन पर चर्चा की जाएगी, जो अपनी टिप्पणियां और अनुमोदन देंगे। इसे टिप्पणियों के लिए सार्वजनिक किया जाएगा। इससे आवश्यक संशोधन करने और समुदाय द्वारा संचालित वन प्रबंधन की जड़ों को मजबूत करने का मार्ग प्रशस्त करने का अनूठा अवसर प्राप्त होगा। अन्यथा, राज्य सरकारों को केंद्र सरकार के कानून की अनदेखी करते हुए अपने खुद के वन कानूनों को लागू करना चाहिए, जैसा कि 14 राज्य पहले से कर रहे हैं।
दूसरी कड़ी में पढ़ें, क्या कहते हैं विशेषज्ञ
(मूल लेख डाउन टू अर्थ, हिंदी के मई अंक में प्रकाशित हआ है)