केन-बेतवा लिंक परियोजना के चलते पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों के प्रमुख आवास का 10 फीसदी से ज्यादा हिस्सा पानी में डूब सकता है। यदि इस क्षेत्र के कुल क्षेत्रफल की बात की जाए तो वो करीब 58.03 वर्ग किलोमीटर के बराबर बैठता है। वहीं अप्रत्यक्ष रूप से इस परियोजना के चलते बाघों के प्रमुख आवास का करीब 105.23 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा खतरे में है।
क्योंकि इस परियोजना के कारण न केवल उनके आवास को नुकसान होगा। साथ ही, उन्हें जोड़े रहने वाले रास्तों पर भी इसका असर पड़ेगा। गौरतलब है कि यह परियोजना बुंदेलखंड में लोगों की प्यास बुझाने और सूखे का मुकाबला करने के लिए बनाई गई थी। यह जानकारी हाल ही में जर्नल करंट साइंस में प्रकाशित एक शोध में सामने आई है।
भले ही सरकार की देश में सिंचाई और पीने के पानी की समस्याओं को हल करने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की योजना है, जिसके लिए बड़े बांधों का निर्माण किया जाएगा। लेकिन साथ ही इन बड़ी परियोजनाओं ने जीवों और पेड़-पौधों की जैवविविधता के लिए संभावित खतरे भी पैदा कर दिए हैं। ऐसी ही एक परियोजना केन-बेतवा लिंक परियोजना है। इस परियोजना के तहत उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी की कमी और सूखे की समस्या को हल करने के लिए केन और बेतवा नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव भारत सरकार ने दिया है।
इस परियोजना के तहत 176 किलोमीटर की लिंक कनाल का निर्माण किया जाएगा, जिससे केन और बेतवा नदी को जोड़ा जा सके। सरकार का दावा है कि इससे पानी की समस्या दूर हो जाएगी। इस बारे में जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने लोकसभा में जानकारी दी है कि इस परियोजना के चलते 62 लाख लोगों को पीने का पानी मिलेगा साथ ही मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के करीब 10.62 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई के लिए पानी की जरुरत को पूरा किया जा सकेगा।
इसमें कोई शक नहीं कि इस परियोजना की मदद से बुंदेलखंड क्षेत्र में रह रहे लोगों को सूखे से बड़ी राहत मिलेगा। पर वहीं दूसरी तरफ अनुमान है कि इस परियोजना के चलते मध्य प्रदेश (एमपी) में पन्ना टाइगर रिजर्व का एक बढ़ा हिस्सा पानी में डूब जाएगा, जोकि वहां बाघों का प्रमुख आवास (क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट) भी है। इतना ही नहीं शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस परियोजना के चलते इस रिजर्व के काफी क्षेत्र में मौजूद जैव विविधता पर भी व्यापक असर पड़ेगा।
देखा जाए तो पन्ना टाइगर रिजर्व देश भर में बाघों के संरक्षण की सबसे सफल परियोजनाओं में से एक है। इसकी सफलता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जहां 2009 में इस रिजर्व में एक भी बाघ नहीं था, वहीं 2019 में उनकी कुल संख्या बढ़कर 54 पर पहुंच गई थी।
जैवविविधता के लिए कितना बड़ा है खतरा
बाघों के सफल स्थानान्तरण के अलावा, यह रिजर्व सांभर, चीतल, ब्लू बुल, चिंकारा और चौसिंघा जैसी प्रजातियों का घर भी है। गौरतलब है कि यह सभी प्रजातियां वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत संरक्षित हैं। यह प्रजातियां वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (सीआईटीईएस) में भी सूचीबद्ध हैं, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वन्य जीवों एवं वनस्पतियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के चलते उनका अस्तित्त्व खतरे में न आ जाए। शोध में यह भी सामने आया है कि इस परियोजना के चलते जो क्षेत्र जलमग्न हो सकता है उसमें सागौन के पेड़ बहुतायत में हैं।
शोध के मुताबिक इस क्षेत्र के पानी में डूबने से न केवल बाघों को नुकसान पहुंचेगा, साथ ही उनके प्रमुख शिकार जैसे चीतल और सांभर को भी भारी नुकसान पहुंचेगा। इतना ही नहीं इसके चलते करीब करीब दो लाख पेड़ों को भी नुकसान होगा। शोध में यह भी सामने आया है कि जो क्षेत्र इस परियोजना के चलते डूबने वाला है वहां इन जीवों जन्तुओं और पेड़-पौधों की आबादी दूसरे क्षेत्रों की तुलना में कहीं ज्यादा है।
अनुमान है कि इस जलमग्न क्षेत्र में मौजूद वृक्षों की जैव विविधता पूरी तरह खत्म हो जाएगी। इस परियोजना के लिए जो बांध प्रस्तावित है उसकी कुल ऊंचाई करीब 77 मीटर है, ऐसे में यह इस क्षेत्र में मौजूद गिद्धों के घोंसलों और शिकार स्थल को भी प्रभावित करेगा। इसी तरह केन घड़ियाल अभयारण्य के अंदर एक बैराज के निर्माण से अभयारण्य की स्थिरता पर भी बुरा असर पड़ेगा। वहीं दौधन और मकोदिया जलाशयों के कारण जो क्षेत्र डूब जाएगा उसकी वजह से बुंदेलखंड क्षेत्र के 20,000 लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा, जिसकी वजह से उनके पुनर्वास की समस्या पैदा हो जाएगी।
इससे पहले राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) और भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त सेंट्रल एम्पावर्ड कमिटी (सीईसी) भी इस परियोजना के कारण 105 वर्ग किलोमीटर में फैले बाघों के प्रमुख आवास के जलमग्न होने और उसके बिखराव पर अपनी चिंता जता चुकी है।
सीईसी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘इस भौगोलिक क्षेत्र में मौजूद जैव विविधतता,नैसर्गिक गुफाएँ, पेड़ों की विशेष प्रजातियाँ, सैकड़ों प्रकार की घास, झरने,केन नदी के किनारे की जैव विविधतता से समृद्ध वनस्पती व तमाम जल जीवों आदि के पर्यावास के रूप में जाना जाता है। अगर यह परियोजना स्थापित होगी तो हम इस नैसर्गिक संपदा को हमेशा के लिए खो देंगे’।
जल संकट से निपटने के साथ-साथ कैसे बचेगी जैवविविधता
अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने इस समस्या के समाधान पर भी गौर किया है जिससे बुंदेलखंड में लोगों की जल समस्या को दूर करने के साथ-साथ जैवविविधता को भी बचाया जा सके। इसके समाधान के रुप में शोधकर्ताओं ने नीति आयोग द्वारा 2019 में जारी एक रिपोर्ट का उदाहरण दिया है, जिसमें बुंदेलखंड के बांदा जिले के जखनी गांव का उल्लेख किया है। जल संकट की समस्या से निपटने के लिए यह गांव देश-दुनिया के लिए एक मिसाल बन चुका है, जिसने अपने दम पर अपनी पानी की समस्या को हल कर लिया है।
कभी यह गांव देश के सबसे जल संकट ग्रस्त क्षेत्रों में से एक था। जहां से बड़ी संख्या में लोग पानी की तलाश और जीविका के बेहतर अवसरों की तलाश में भारी संख्या में पलायन कर रहे थे। पर 2014 के बाद से इस गांव ने जिस तरह से जल संकट से निपटने के लिए प्रयास किए हैं उसके चलते यह गांव दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया है। नीति आयोग ने भी इस गांव को जलग्राम का मॉडल घोषित किया है।
इस गांव ने जल संरक्षण के बेहतर उपाय किए हैं, जिनमें खेत में तालाबों का निर्माण, जलाशयों का जीर्णोद्धार/पुनरुद्धार करना, वर्षा जल संचयन, खेत में पानी को रोकने के लिए मेड़ बनाना, साथ ही वृक्षारोपण जैसे उपाय शामिल हैं। यही वजह है कि जल संबंधी के मामले में यह गांव अब पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गया है।
कभी सूखा ग्रस्त यह गांव आज हर साल 23000 क्विंटल बासमती चावल पैदा करता है साथ ही पिछले कुछ वर्षों में यहां अन्य फसलों की पैदावार भी कई गुना बढ़ चुकी है। बड़ी बात यह है कि यह सब इस गांव ने अपने दम पर किया है, जिसके लिए उसने किसी बाहरी फंडिंग, मशीनरी या संसाधनों का उपयोग नहीं किया है। ऐसे में जब जल संकट से जूझ रहा जखनी गांव अपने बलबूते पर समस्या को दूर कर सकता है तो क्या इस गांव के मॉडल पर बुंदेलखंड क्षेत्र की जल समस्या को दूर नहीं किया जा सकता, जिससे इस परियोजना के कारण होने वाली त्रासदी को टाला जा सके।