हमारे गांव में पिछले चार-पांच सालों से बंदर की समस्या काफी बढ़ गई है। गांव के मंदिरों में इन बंदरों का हमेशा जमघट लगा रहता है। इनका खौफ इतना रहता है कि गांव के बहुत से लोगों ने मंदिर जाना छोड़ दिया है। जो लोग पूजा करने मंदिर चले भी जाते हैं, वे हमेशा डरे-सहमे रहते हैं। कुछ समय पहले गांव की एक महिला को बंदर ने काट लिया था। बाद में उसकी मौत हो गई। बच्चे बंदरों के डर से स्कूल जाने से डरते हैं। ये बंदर अचानक झुंड में आते हैं और खेती को चौपट कर देते हैं। इनके डर से बहुत से लोगों ने खेती करना बंद कर दिया है। अभी धान का सीजन चल रहा है लेकिन गांव में बहुत से लोगों ने बंदरों के डर से धान की रोपाई नहीं की है। गेहूं और मक्के की खेती को भी बंदर बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। लीची और सेब को भी बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाते हैं। जो लोग खेती-बाड़ी से जुड़े हैं, उन्हें हमेशा अपनी खेतों की रखवाली करनी पड़ती है। दरअसल ये बंदर नसबंदी न होने के कारण बढ़ गए हैं। हालांकि वन विभाग के अधिकारी नसबंदी का दावा करते हैं लेकिन बंदरों की बढ़ती तादाद को देखकर उनकी बातों पर यकीन करना मुश्किल है। सरकार बीच-बीच में बंदरों को मारने का आदेश देती है लेकिन हमारे गांव में लोग बंदर नहीं मार रहे हैं। लोगों को लगता है कि बंदरों को मारने से पाप लगेगा। इन्हें भगवान हनुमान से जोड़कर देखा जाता है। इसलिए लोग भारी नुकसान होने के बाद भी उन्हें मारने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। सरकार को इस समस्या की तरफ ध्यान देना चाहिए। केवल बंदरों को मारने की घोषणा और लोगों को इनाम देने की घोषणा करके इस समस्या से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। बंदरों की समस्या से निपटने के लिए वन विभाग को जंगलों में फलदार पेड़ लगाने चाहिए जिससे वे जंगल में ही रहें और गांव की तरफ न आएं।
यहां बंदरों की समस्या पिछले 15-16 साल से है। बंदर लोगों के घरों में आ जाते हैं, लेकिन वर्तमान में यह समस्या बेहद गंभीर हो गई है। इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि बहुत से किसानों ने बंदरों के डर से खेती बंद कर दी है। एक तो किसानों को खेती से कोई फायदा नहीं होता, अब बंदरों ने उनकी परेशानी और बढ़ा दी है। इसके लिए काफी हद तक सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। पहले बंदरों को अनुबंध के तहत अमेरिका में निर्यात कर दिया जाता था लेकिन राज्य में बीजेपी की सरकार बनने के बाद निर्यात बंद कर दिया गया है। जंगलों की कटाई व फलदार पेड़ों के कटने से भी बंदर गांवों और शहरों का रुख कर रहे हैं। केंद्र सरकार ने बंदरों को वर्मिन घोषित किया है लेकिन इसका फायदा नहीं हो रहा है। दिक्कत यह है कि बंदरों को मारने के लिए बड़ी संख्या में लोगों की जरूरत है। ये लोग आएंगे कहां से? स्थानीय लोगों से इन्हें मारने की उम्मीद नहीं की जा सकती। सभी लोगों के पास बंदूकें भी नहीं हैं। लोग उन्हें मारने से कतरा रहे हैं क्योंकि धार्मिक आस्था आड़े आ रही है। एक बड़ी समस्या यह भी है कि जब बंदर एक जगह से पकड़े जाते हैं तो उन्हें दूसरी जगह छोड़ दिया जाता है। इससे समस्या जस की तस बनी रहती है। यह समस्या इतनी विकराल हो गई है कि परेशान लोग बंदरों को जहर तक देने लगे हैं। सरकार बंदरों को मारने पर इनाम दे रही है लेकिन यह राशि पर्याप्त नहीं है। हिमाचल में बंदरों की नसबंदी की भी कोशिश की गई लेकिन उससे भी समस्या खत्म नहीं हुई। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब इस संबंध में एक राष्ट्रीय नीति बने। एक अभियान के तहत सरकार को इस समस्या को खत्म करने की पहल करनी चाहिए। कुछ सकारात्मक उपाय करने होंगे और कुछ नकारात्मक। और इस काम में आम लोगों की मदद लेनी पड़ेगी।
“नीति राजनीति” में हम किसी स्थानीय समस्या को लेकर संबंधित क्षेत्र के ग्राम प्रतिनिधि/पार्षद और लोकसभा/राज्यसभा सदस्य से बातचीत करेंगे। यह किसी समस्या को स्थानीय प्रतिनिधियों के नजरिए से देखने का प्रयास है।