पार्थ कबीर
लेसर फ्लोरिकन या खरमोर देखने की आस लगाने वाले बहुत सारे पक्षी प्रेमियों की उम्मीद इस मानसून सीजन में पूरी नहीं हो सकी। घसियाले मैदानों में अपना घर बनाने वाले इस खूबसूरत पक्षी का दिखना लगातार कम होता जा रहा है। खरमोर को विलुप्त होने से बचाने के लिए खासतौर पर राजस्थान के अजमेर व आसपास के क्षेत्रों में विशेष प्रयास शुरू किए गए हैं।
पक्षियों की अलग-अलग प्रजातियों में मादा को रिझाने के लिए नर तमाम किस्म के करतब दिखाते हैं। जैसे मोर अपने पूरे पंखों को खोलकर नृत्य करके मोरनी को आकर्षित करते हैं। ऐसे ही खरमोर भी अपने अद्भुत उछाल के लिए जाने जाते हैं। प्रजनन काल में वे टिट्कारी जैसी आवाज निकालते हुए दो-दो मीटर ऊंची उछाल लगाते हैं। इस दौरान उनकी टिट्कारी की आवाज 300-400 मीटर दूर से सुनी जाती है। मादा को आकर्षित करने के लिए दिखाए जाने वाले उनके इस करतब को डिस्प्ले कहा जाता है और तमाम पक्षी प्रेमी इसे देखने की आस लगाए रखते हैं। लेकिन, अब इस पक्षी को देखना लगातार दुर्लभ होता जा रहा है।
मध्य प्रदेश के रतलाम जिले से आई हालिया खबरें बताती हैं कि इस मानसून सीजन में यहां के सैलाना अभ्यारण्य में खरमोर को देखा नहीं जा सका है। अन्य जगहों से भी खरमोर के कम दिखने की बात सामने आ रही है। जून 2018 में जारी भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की रिपोर्ट बताती है कि कभी भारत के बड़े हिस्से में पाए जाने वाले खरमोर की आबादी अब सिर्फ चार राज्यों में सिमट कर रह गई है। इन जगहों पर भी अब सिर्फ 264 खरमोर बचे हैं। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए भारतीय वन्यजीव संस्थान, बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी, कार्बेट फाउंडेशन और मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान के वन विभाग के साथ मिलकर जुलाई से लेकर सितंबर 2017 के बीच गहन सर्वे किया गया था। रिपोर्ट से इस बात का खुलासा होता है कि हमारे देश से यह खूबसूरत पक्षी किस तेजी से विलुप्त हो रहा है। वर्ष 2000 में खरमोर की संख्या 3500 के लगभग होने का आकलन किया जाता है। इस प्रकार, सिर्फ कुछ वर्षों के भीतर ही इसकी 80 फीसदी के लगभग आबादी समाप्त हो गई है।
लेसर फ्लोरिकन या खरमोर भारत में पाए जाने वाले बस्टर्ड प्रजाति के पक्षियों में से एक है। इन पक्षियों में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड यानी गोडावण या सोनचिड़िया भी विलुप्त होने के कगार पर है। देश के अलग-अलग हिस्सों में अब दो सौ से भी कम गोडावण बचे होने का अनुमान किया जाता है। अगर बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लगभग इसी तरह के पर्यावास को अपना घर बनाने वाला चीता हमारे यहां से विलुप्त हो चुका है और कराकल यानी स्याहगोश भी लगभग इसी कगार पर है।
खरमोर की आबादी समाप्त होने के पीछे कई कारणों को जिम्मेदार माना जाता है। एक तो खाने के लिए इस पक्षी का जमकर शिकार किया गया। फिर खेती में कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के चलते कीटों की संख्या बेहद कम होती जा रही है। इसके चलते पक्षी के सामने पेट भरने की समस्या पैदा हो गई है। यह घसियाले मैदानों में रहने वाला पक्षी है और इसके रहवास में ज्यादा से ज्यादा अब खेती होने लगी है। इससे इस पक्षी को रहने के लिए जगह नहीं मिल रही है। घसियाले मैदानों में जमीन पर ही यह अपने घोसले बनाता है। लेकिन, आवारा कुत्ते अब उन घोसलों को नष्ट कर देते हैं या उनके चूजों का शिकार कर लेते हैं।
तेजी से विलुप्त होते इस पक्षी को बचाने के लिए खासतौर पर राजस्थान के अजमेर और आसपास के जिलों में अलग-अलग प्रयास शुरू किए गए हैं। संरक्षण के इन्हीं प्रयासों से जुड़े विशेषज्ञ सुजीत नरवडे बताते हैं कि अजमेर, भीलवाड़ा और टोक में खरमोर देखे जा रहे हैं। फिलहाल इस पूरे हिस्से में खरमोर और उनकी आदतों के बारे में सघन डाटा तैयार किया जा रहा है। मानसून के सीजन में यह पक्षी सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर तक की दूरी में प्रवास के लिए जाता है। घसियाले मैदानों के कम होने, वहां पर आवाजाही बढ़ने, हाईटेंशन लाइन आदि कारणों से इन्हें प्रवास में भी दिक्कत आ रही है। ज्वार, बाजरा, चना और उड़द जैसी फसलों के बीच भी ये अपना घोसला बना लेते हैं। इसलिए जैविक खेती को बढ़ावा देने, किसानों को सजग करने, घोंसलों को पास आवाजाही कम करने जैसे उपायों से इन्हें विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। फिलहाल राजस्थान वन विभाग के साथ मिलकर समग्र रिपोर्ट बनाई जा रही है, ताकि इनके संरक्षण के प्रयासों को बढ़ाया जा सके। इस पर समग्र रिपोर्ट के दिसंबर महीने तक तैयार हो जाने की उम्मीद है।