देश में जंगलों के विकास के लिए वन विकास निगम यानी एफडीसी बनाया गया था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से यह बात निकल कर आ रही है ये निगम जंगलों के विकास की जगह उनके खात्मे के लिए अधिक जिम्मेदार साबित हो रहे हैं। विशेषकर महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में पिछले दशकों में तेजी से जंगल घटे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि वन विकास निगम वर्तमान में गौण हो गए हैं। क्या वास्तव में उनकी उपयोगिता कम हो रही है? ये ऐसे यक्ष सवाल हैं जिससे निगम अपने गठन के बाद से ही जूझ रहा है। निगम की कार्यप्रणाली ने जंगल और वनवासियों के बीच दीवार खड़ी कर दी है। इससे दोनों के बीच लगातार संघर्ष तेज होते जा रहे हैं। वनवासी हाशिए पर चले गए हैं। उनकी आर-पार की लड़ाई महाराष्ट्र के कई जिलों में आए दिन देखने में आ रही है।
हरे-भरे जंगलों को बेरहमी से काट देते हैं और उसकी जगह पर पौधारोपण कर कहते हैं, हम नया जंगल लगा रहे हैं। कुछ समय बाद ये पौधे भी मुरझा जाते हैं। क्योंकि इन्हें लगाकर भूल जाया जाता है। इनकी देखरेख नहीं की जाती है। इसके बाद बची रह जाती है खाली जमीन। ऐसे हालात में ग्रामीणों और महाराष्ट्र वन विकास निगम (एफडीसी) के बीच संघर्ष नहीं होगा तो और क्या होगा। नागपुर के वरिष्ठ पर्यावरणविद अभिलास खांडेकर उत्तेजित होते हुए ये बातें कहते हैं। खांडेकर कहते हैं कि एफडीसी में नौकरशाही हावी होने की वजह से वनों के उत्पादों की ठीक तरह से ग्रोथ के साथ-साथ मार्केटिंग भी नहीं हो रही है। महाराष्ट्र में बहुत तेजी से शहरीकरण हो रहा है इस वजह से वनों के ऊपर काफी दबाव है, जिसको एफडीसी लिमिटेड ठीक तरह से हैंडल नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि एफडीसी और वनवासियों के बीच तनाव लगातार बढ रहा है।
पिछले कुछ सालों से महाराष्ट्र के आधे दर्जन से अधिक स्थानों पर स्थानीय समुदायों और निगम के बीच जंगल काट कर उसके स्थान पर नए जंगल लगाने को लेकर तनातनी लगातार चल रही है। इसी तनातनी ने राज्य के कई हिस्सों में संघर्ष का रूप भी अख्तियार कर लिया है। इस लड़ाई की शुरुआत दिसंबर, 2016 में हुई। महाराष्ट्र के भंडारा जिले में उस समय टकराव की स्थिति पैदा हो गई जब राज्य सरकार ने महाराष्ट्र वन विकास निगम को 200 वर्ग किलोमीटर वन्यजीव संपन्न भंडारा वन क्षेत्र में सागौन के पौधारोपण की इजाजत दी। राज्य सरकार के इस फैसले के खिलाफ स्थानीय समुदाय ने जमकर विरोध-प्रदर्शन किया। समुदायों के लगातार विरोध-प्रदर्शन ने राज्य सरकार को अपने इस कदम पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर कर दिया।
इसके पहले जून, 2016 में भी संघर्ष हुआ, जब प्रदर्शनकारियों ने गढ़चरौली जिले में निगम द्वारा की जा रही पेड़ों की कटाई बाधित की। एक प्रदर्शनकारी तो सीधे राज्य के उच्च न्यायालय की शरण में चला गया। उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ में उसने मामला दर्ज कराया। इस संबंध में मामला दर्ज करने वाले याचिकाकर्ता हिरामंद गारेटे का कहना है, “एफडीसी को हरे-भरे जंगलों को साफ कर नए जंगल लगाने की जरूरत क्यों आन पड़ती है, जबकि उसके पास हजारों-लाखों हेक्टेयर छरण भूमि (डिग्रेडेड लैंड) उसके पास उपलब्ध रहती है।” इस संबंध में महाराष्ट्र वन विकास निगम ने बताया कि जिस वन क्षेत्र को लेकर किसानों ने विरोध जताया है, वह वन क्षेत्र वास्तव में एफडीसी का है, जिसे बाकायदा राज्य सरकार ने हमें सौंपा है। वहां एफडीसी पौधारोपण कर रहा है, लेकिन कुछ लोग वहां विरोध कर रहे हैं। इसके पीछे की वजह पूछने पर वे कहते हैं कि कुछ लोग वहां अपने निजी स्वार्थ के लिए विरोध कर रहे हैं। जिन्हें मामले की पूरी समझ नहीं है, वे भी दुर्भाग्य से उसके विशेषज्ञ बन रहे हैं। उनका कहना था कि इसके कारण एफडीसी को काफी नुकसान पहुंच रहा है। स्थानीय लोग एफडीसी की जमीनों पर अवैध कब्जा कर लेते हैं और वन उपज बिना कोई रॉयल्टी चुकाए यूं ही उठा ले जाते हैं। वे कई बार जंगलों में आग भी लगा देते हैं। अपने जानवर चरने के लिए भी छोड़ देते हैं,जिससे हमारे लगाए पौधे नष्ट हो जाते हैं।
राज्य में लगभग 30 हजार हेक्टेयर जमीनों पर इस तरह के विवाद चल रहे हैं। इसके लिए हमने केंद्र सरकार के साथ मिलकर 10 साल की एक योजना तैयार की है। हमारी इस संभावित कार्ययोजना को सरकार से मंजूरी मिल चुकी है। महाराष्ट्र के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इस विवाद पर कुछ भी कहने से इनकार करते कहते हुए दावा करता है कि, “तमाम तरह की कठिनाइयों के बावजूद राज्य वन विकास निगम लाभ में चल रहा हैऔर देश का ऐसा पहला राज्य है जो कि ऑनलाइन सागौन की बिक्री कर रहा है।”
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