वन्य जीव एवं जैव विविधता

जानिए क्यों एक स्थानीय समुदाय के नाम पर किया गया मेंढक की एक नई प्रजाति का नामकरण

Lalit Maurya

घाना में मेंढक की एक नई प्रजाति का नामकरण वहां के एक स्थानीय समुदाय के नाम पर रखा गया है जो इन मेंढकों के आवास और जंगलों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अटेवा स्लिपरी फ्रॉग का वैज्ञानिक नाम घाना के एक स्थानीय समुदाय सगीमासे के सम्मान में कॉनरौआ सगीमासे रखा गया है। मेंढकों की यह अनोखी प्रजाति घाना के अटेवा जंगलों में पाई जाती है, जोकि राजधानी अक्रा के उत्तर में हैं।

आमतौर पर आपने मेंढकों को जीभ से अपने शिकार को पकड़ते और निगलते हुए देखा होगा, पर मेंढकों की इस प्रजाति के दांत भी होते हैं, जो अपने अगले पैरों का इस्तेमाल अपने भोजन को मुंह में धकेलने के लिए करते हैं। यह मेंढक जंगल के एक छोटे से हिस्से में पाए जाते हैं।

गौरतलब है कि इन जंगलों में सरकार बॉक्साइट का खनन करना चाहती है, जिसका यह सगीमासे समुदाय 2006 से विरोध कर रहा है। गौरतलब है कि इन जंगलों में सरकार बॉक्साइट का खनन करना चाहती है, जिसका यह सगीमासे समुदाय 2006 से विरोध कर रहा है। इस मेंढक के बारे में विस्तृत जानकारी जर्नल ज़ूटक्सा में छपे एक शोध में दी गई है।

इस शोध से जुड़े एक शोधकर्ता कालेब ओफोरी-बोटेंग ने आरएफआई से साझा की जानकारी में बताया कि जब आप अटेवा हिल्स के नक्शे को देखते हैं, तो इन मेंढकों का आवास ठीक उस जगह के बीच में है जहां सरकार बॉक्साइट का खनन करना चाहती है।

उन्होंने बताया कि हालांकि सगीमासे एक छोटा कस्बा है, लेकिन मुझे लगता है कि यह सम्मान उन्हें प्रोत्साहित करेगा। यही नहीं यह अटेवा के आसपास लगभग 20 अन्य समुदायों को भी संरक्षण के लिए आवाज उठाने में मदद करेगा। यदि अटेवा के जंगलों को देखें तो वो जैव विविधता का खजाना है जहां अनोखे पौधे और जानवर हैं, जिनमें अफिया बिरागो पड्डल फ्रॉग भी शामिल है। इस मेंढक को 2006 में ओफ़ोरी-बोटेंग ने खोजा था।   

दूसरे मेंढकों से कैसे है अलग

यदि कॉनरौआ सगीमासे की बात करें तो मेंढक की यह नई प्रजाति भूरे रंग की होती है जिसकी आंखे उभरी हुई होती हैं। यह आकार में इतना छोटा होता है कि मानव हथेली में फिट हो जाता है। यह अपना करीब 95 फीसदी समय पानी में ही बिताता है। यह तीखी सीटी की आवाज निकलता है जिसे जंगलों में दूर तक सुना जा सकता है। इसके छोटे-छोटे दांत होते हैं। यदि इसकी बुद्धिमानी की बात करें तो यह अत्यंत तेज होता है। जिसका सबूत है कि यह अपने आगे के पैरों का इस्तेमाल अपने भोजन को मुंह में धकेलने के लिए करता है।

इन मेंढकों की आबादी और इनपर मंडराते खतरे को देखते हुए शोधकर्ताओं ने इनके संरक्षण के लिए इंटरनेशनल यूनियन फॉर कनजर्वेशन ऑफ नेचर (आईसीयूएन) से अपील की है कि वो इसे गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजातियों की सूची में शामिल कर लें। 

देखा जाए तो यह जीव प्रकृति का एक अनमोल खजाना है जिनकों बचाए रखना जरुरी है। पर इंसानी लालसा इस हद तक बढ़ चुकी है कि वो घने जंगलों में भी इन जीवों के आवास को नष्ट करने से गुरेज नहीं कर रही है। विडम्बना तो तब है जब सरकारें भी इस काम में मदद करती हैं। उन्हें समझना होगा कि किसी देश में सरकार की जिम्मेवारी सिर्फ इंसानों तक ही सीमित नहीं है वहां की जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति भी उनकी जवाबदेही है।