वन्य जीव एवं जैव विविधता

वन्यजीवों के व्यवहार को जानना जरूरी, तब बच सकती है इंसानों की जान

उत्तराखंड में गुलदार का शिकार करने वाले लखपत रावत कहते हैं कि इंसान व जानवर दोनों को बचाना जरूरी है, लेकिन इसके लिए इंसानों का जागरूक होना जरूरी है

Varsha Singh

शिकारी लखपत रावत 9 नवंबर से रुद्रप्रयाग के जखोली तहसील के सौराखाल में डेरा डाले हुए हैं। यहां वे नरभक्षी घोषित गुलदार को पकड़ने की कोशिश में हैं। नरभक्षी घोषित करने के बाद वन विभाग एक महीने के लिए शिकार का लाइसेंस देता है। जिसमें शुरू के बीस दिन जानवर को पकड़ने के लिए होते हैं। रुद्रप्रयाग में जिस गुलदार को नरभक्षी घोषित किया गया है उसने रिहायशी इलाके में शिकार नहीं किया बल्कि जंगल में घुस आए दो वयस्क लोगों पर हमला किया। दोनों ही जंगल से लकड़ी लाने गए थे। इस लिहाज से उसे नरभक्षी घोषित नहीं किया जाना चाहिए। 

उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष बेहद तीव्र है। इस वर्ष सितंबर माह से अबतक 13 लोगों की जंगली जानवरों के हमले में मौत हो चुकी है। ग्रामीण इन्हें आदमखोर घोषित करने की मांग करते हैं। लोगों के गुस्से को देखते हुए वन विभाग को झुकना ही पड़ता है। वन विभाग के पास खुद अपने कर्मियों की सुरक्षा के इंतजाम नहीं हैं। इस वर्ष तीन वनकर्मी भी वन्यजीव हमले में मारे गए।

लखपत रावत कहते हैं कि परिस्थिति के हिसाब से ही हम गुलदार को पकड़ने की योजना बनाते हैं। उसके पंजों के निशान ट्रेस किये जाते हैं। पंजों के आकार से हमें पता चल जाता है कि वह नर है या मादा, उसकी उम्र कितनी होगी, वज़न कितना होगा। नर जानवर के पंजे वर्गाकार होते हैं जबकि मादा के आयताकार। पंजे जितने बड़े होते हैं, उससे गुलदार की उम्र और वजन का अंदाजा लगाया जा सकता है। इससे एक काल्पनिक तस्वीर हमारे दिमाग में तैयार हो जाती है।

जिस जगह गुलदार ने शिकार किया होता है, उसी जगह मचान बनायी जाती है। रात में शिकारी के साथ एक और सहायक होता है, जो सर्च लाइट लेकर साथ में चलता है। रोशनी पड़ने पर गुलदार की आंखें रिफ्लेक्ट करती हैं और वह हमें क्षणभर के लिए दिख जाता है। लखपत कहते हैं कि उसी एक लम्हे में हमें ये स्पष्ट कर लेना होता है कि ये हमारी काल्पनिक तस्वीर से मेल खाता है या नहीं। उसका व्यवहार बताता है कि वह नरभक्षी है या नहीं। अगर वह हमारे अनुमान से नहीं मिलता-जुलता तो हम उसे छोड़ देते हैं। उनके मुताबिक सही गुलदार की पहचान करना ही सबसे मुश्किल काम है।

रुद्रप्रयाग के स्कूलों में भी इस समय बच्चों को वन्यजीवों से सुरक्षा के बारे में बताया जा रहा है। पेशे से शिक्षक लखपत रावत बताते हैं कि स्कूलों में बच्चों को सावधान रहने के तरीके सिखाए जाते हैं। महिला मंगल दलों को गुलदार से बचाव के बारे में बताया जाता है। क्योंकि दिक्कत तो यही है कि हम जंगल में घुस गए हैं। हमने उनके घर को छिन्न-भिन्न कर दिया है।

उत्तराखंड में एक समस्या ये भी है कि गुलदार के बारे में जानकारी बहुत अधिक नहीं है। जबकि मानव-वन्यजीव संघर्ष में होने वाली दो तिहाई मौतें उसकी वजह से होती हैं। राज्य में कितने गुलदार हैं इस पर कभी काम नहीं हुआ। वन विभाग के मुताबिक गुलदार की गणना करना बेहद मुश्किल काम है।

लखपत रावत बताते हैं कि समय के साथ गुलदारों के व्यवहार में भी बदलाव आ रहा है। एकाकी जीव माना जाने वाला ये जानवर अब झुंड में भी दिखने लगा है। उन्होंने बताया कि सीसीटीवी फुटेज में भी अलग-अलग उम्र के दो नर गुलदार एक साथ देखे गए। अगस्त महीने में तीन गुलदारों की जहरीला भोजन खाने से मौत हो गई थी। वे तीनों भी अलग-अलग उम्र के थे। उनके मुताबिक अलग-अलग उम्र के नर गुलदारों का एक साथ रहना चौंकाने वाली बात है।

वह ये भी मानते हैं कि गुलदार शिशुओं के लिए ऐसी परिस्थितियां बन गई हैं जिनके चलते वे शिकार करना नहीं सीख पा रहे। पलायन के चलते खाली गांवों और बंजर खेतों में लैंटाना जैसी ऊंची-ऊंची झाड़ियां उग आई हैं। लखपत रावत कहते हैं कि गुलदारों ने इन बंजर खेतों को अपना नया बसेरा बना लिया है। इससे वे आबादी के नज़दीक रहते हैं, जहां उन्हें आसानी से भोजन मिल जाता है। 18 महीने की उम्र तक मां को भी शिकार करने की ट्रेनिंग देनी होती है। लेकिन जब जंगल में शिकार मिल ही नहीं रहा तो वो शिशु गुलदार को ट्रेनिंग कैसे देगी। इसलिए एक तरह से उसने अनसीखे बच्चों को संसार में छोड़ दिया।

इसके साथ ही वे जंगल में वन्यजीवों के लिए विपरीत परिस्थितियों पर भी इशारा करते हैं। जंगल में पानी की सख्त कमी है। प्राकृतिक स्रोतों के पानी को पाइप लाइन के ज़रिये गांवों में पहुंचाया गया है। तो पानी पीने के लिए भी एक वन्यजीव को बस्ती की ओर आना ही पड़ता है। जंगल में हिरन-कांकड़, जंगली सूअर जैसे जीवों की संख्या भी कम है। जो गुलदार का भोजन होते हैं। बढ़ती संख्या के साथ गुलदार के रहने की जगह कम पड़ती जा रही है। मानव-वन्यजीव संघर्ष कम करने के लिए सबसे अधिक जरुरत जागरुकता अभियान की है।