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खास खबर: लकड़ी के आयात से लेकर कारोबार तक में हो रहा है अवैध 'खेल', भाग दो

भारत को बागान कंपनियों और उद्योगों को रियायती ऋण, पूंजीगत सब्सिडी और कर रियायत देकर कृषि भूमि पर लकड़ी के उत्पादन को बढ़ावा देने की जरूरत है

Shuchita Jha

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2014 में शुरू भारत की कृषि वानिकी नीति में कहा गया है कि देश में लकड़ी की मांग का लगभग 65 प्रतिशत खेतों में उगने वाले पेड़ों के माध्यम से पूरा किया जाता है और इसका उद्देश्य वृक्षों की खेती को प्रोत्साहित करना, किसानों की आय बढ़ाना और नागरिकों को अधिक रोजगार के अवसर प्रदान करना है। इस नीति का एक उद्देश्य लकड़ी आधारित उद्योगों की कच्चे माल की आवश्यकता को पूरा करना और विदेशी मुद्रा बचाने के लिए लकड़ी और लकड़ी उत्पादों के आयात को कम करना है।

सपरा का अनुमान है कि गम्हार, कदम, सिल्वर ओक, कीकर जैसे मीडियम रोटेशन, सागौन और शीशम जैसे लॉन्ग रोटेशन पेड़ों का एक मिलियन हेक्टेयर में वृक्षारोपण किया जाए तो लंबे समय में इन पेड़ों से सालाना लगभग 7.4 मिलियन क्यूबिक मीटर लकड़ी का उत्पादन होगा, जिसकी कीमत लगभग 55.2 बिलियन रुपए होगी और लगभग 13.5 मिलियन कार्यदिवस का रोजगार पैदा होगा। हालांकि, जबलपुर स्थित राज्य वन अनुसंधान संस्थान (एसएफआरआई) के एक शोधकर्ता और वैज्ञानिक अपना नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताते हैं कि भारत में कृषि वानिकी नीति अब तक सफल नहीं रही है।

उन्होंने बताया, “इसके कई कारण हैं। छोटे किसानों के पास इतनी जमीन नहीं है कि वे कृषि वानिकी कर सकें। कुछ लोग छाया के लिए खेत में एक-दो पेड़ उगाते हैं। पेड़ छाया पैदा करते हैं और उनकी जड़ें खेतों को अनुपयोगी बनाती हैं, इसलिए किसानों के लिए कृषि-वानिकी का अभ्यास करना व्यावहारिक नहीं है। पेड़ों से आय उत्पन्न करने के लिए 5-10 साल की आवश्यकता होती है, जो किसानों के लिए संभव नहीं है क्योंकि वे अपनी दैनिक जरूरतों के लिए उपज पर निर्भर हैं। उनसे इतने लंबे इंतजार की उम्मीद कैसे की जा सकती है?”

झांसी स्थित आईसीएआर-केंद्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान संस्थान के निदेशक ए अरुणाचलम का मानना है कि राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति को निष्पादन योग्य बनाने के लिए और काम किए जाने की आवश्यकता है। वह कहते हैं, “राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति का लक्ष्य लकड़ी, भोजन, ईंधन, चारा, उर्वरक, फाइबर और अन्य कृषि वानिकी उत्पादों की बढ़ती मांग को पूरा करना है। कृषि वानिकी नीति एक समग्र और निरंतर उत्पादन प्रणाली की परिकल्पना करती है। हम कृषि भूमि से लकड़ी का उत्पादन चाहते हैं, जिसका अर्थ है कि इस नीति को इसके मूल स्वरूप में लागू नहीं किया गया है। राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति को कृषि वानिकी (एसएमएएफ) के सब-मिशन के रूप में लागू किया गया है। इसी तरह, बिना किसी स्पष्ट परिभाषित नीति के राष्ट्रीय बांस मिशन (एनबीएम) लाया गया है। इसलिए हम मान सकते हैं कि राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति संस्थागत रूप से विकलांग है।”



एसएफआरआई के शोधकर्ता आगे परमिट, परिवहन लागत और कर के मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं, जो फसलों के साथ-साथ पेड़ उगाने के किसानों के रास्ते में बड़ी बाधा साबित होते हैं। यह नीति वन उपज कटाई पर प्रतिबंधों को भी मान्यता देती है। पेड़ों की कटाई के लिए उचित लाइसेंस और परमिट प्राप्त करना, करों के साथ-साथ अन्य कारक किसानों को अपने खेतों में पेड़ उगाने से रोकते हैं। यह सब देश को लकड़ी, भोजन, ईंधन और अन्य कृषि वानिकी उत्पाद की बढ़ती मांग को पूरा करने से रोकता है। उन्होंने कहा, “अगर किसान पेड़ भी उगाते हैं, तो उन्हें ऐसे खरीदार खोजने में मुश्किल होती है जो उन्हें उचित मूल्य देने के लिए तैयार हों। पेड़ उगाना एक अच्छा विचार है, लेकिन वास्तविकता बिल्कुल विपरीत है। उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है, तो वे पेड़ क्यों उगाएंगे जबकि यह न तो लाभदायक है और न ही वार्षिक आय का स्रोत है?”

सपरा का मानना है कि भारत को बागान कंपनियों और उद्योगों को रियायती ऋण, पूंजीगत सब्सिडी और कर रियायत जैसे प्रोत्साहन प्रदान करके कृषि भूमि पर बड़े आकार की लकड़ी के उत्पादन को आक्रामक रूप से बढ़ावा देने की जरूरत है। वह कहते हैं, “किसानों के स्वामित्व वाली 35 मिलियन हेक्टेयर बंजर और परती भूमि पर बड़े आकार की लकड़ी का उत्पादन किया जा सकता है।”

एसएफआरआई के शोधकर्ता ने बताया, “किसानों के लिए एक व्यवहारिक वैज्ञानिक मॉडल विकसित किया जाना चाहिए। एक बार जब किसान इसे एक लाभदायक समाधान के रूप में देखेंगे, तो वे खुद ही इसका अभ्यास शुरू कर देंगे।” किसान आज यूकेलिप्टस उगाना पसंद करते हैं जो तेजी से बढ़ रहा है और हर 5-6 साल के बाद 1.5 लाख रुपए प्रति एकड़ की आय प्रदान करते हैं। लेकिन यह भूजल कम करता है। उन्हें 20-30 फीट की दूरी पर पेड़ उगाने की जरूरत है ताकि वे खेती कर सकें, लेकिन छोटे किसानों के लिए यह संभव नहीं है क्योंकि उनके पास इतनी जमीन नहीं है।

हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रो. डीएस चौहान का कहना है कि पेड़ों की कटाई से संबंधित अलग-अलग नियम होने के कारण उत्तर भारतीय राज्यों के किसान यह समझ नहीं पा रहे हैं कि इस काम को शुरू कैसे किया जाए। चौहान ने कहा, “यह नीति 2014 में बनाई गई थी और यह अपने शुरुआती चरण में है। यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह कितना सफल रहा है क्योंकि किसानों को पेड़ों की कटाई के लिए समय की आवश्यकता होगी।

इसके अलावा, तराई क्षेत्र के किसानों को आय उत्पन्न करने के लिए चिनार, सागौन उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। किसानों को 1,000 मीटर से ऊपर के पेड़ों की कटाई के लिए वन विभाग से अनुमति की आवश्यकता होती है, जो उनके लिए बाधा उत्पन्न करता है। इसलिए, नीति का कार्यान्वयन अलग-अलग क्षेत्रों पर निर्भर करता है।”

अरुणाचलम ने कहा, “लकड़ी के आयात का आंकड़ा बहुत बिखरा है और इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट जैसा कोई प्रामाणिक डेटा नहीं है। सरकार को लकड़ी उत्पादन और खपत डेटा जुटाने और उसकी व्याख्या के काम के लिए किसी एजेंसी को नियुक्त करना चाहिए। उसके बाद ही राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम जैसी नीतियों की प्रभावशीलता पर बहस हो सकती है।”