वन्य जीव एवं जैव विविधता

व्यक्ति विशेष: पेड़ों को बचाने के लिए जंगल माफिया से लोहा लेती भारत की 'लेडी टार्जन'

'लेडी टार्जन', जमुना टुडू पिछले 25 सालों से पेड़ों को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं और स्थानीय जंगलों के संरक्षण के प्रयास में लगी हुई हैं

Lalit Maurya

यदि इंसान ठान ले तो क्या कुछ नहीं कर सकता। ऐसा ही कुछ झारखंड में रहने वाली 'लेडी टार्जन' जमुना टुडू ने साबित कर दिखाया है। जो पिछले 25 सालों से पेड़ों को बचाने के लिए जंगल माफिया से लोहा ले रही हैं और स्थानीय जंगलों के संरक्षण के प्रयास में लगी हुई हैं।

42 वर्षीय जमुना टुडू ने जंगलों को बचाने की जो मुहिम शुरू की थी आज 10 हजार से ज्यादा महिलाएं उसका हिस्सा हैं यह महिलाएं बांस, भाले और धनुष-बाण रखती हैं, और जंगलों में गश्त करती हैं। यह इन महिलाओं की एकजुटता का ही नतीजा है कि यह महिलाऐं जंगल माफिया को भी टक्कर दे रहीं हैं।

जमुना टुडू का जन्म 19 दिसंबर 1980 को रायरंगपुर में हुआ था, जोकि ओडिशा के मयूरभंज में है। उन्होंने 18 साल की उम्र में जंगलों को बचाने के माफियाओं का मुकाबला करने के लिए तीर-धनुष उठाने का फैसला किया था।

उनके प्रयासों को देखते हुए 2019 में उन्हें भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री से सम्मानित किया गया। वहीं 2014 में उन्हें गॉडफ्रे फिलिप्स बहादुरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वहीं स्थानीय लोग उन्हें प्यार से ‘लेडी टार्जन’ कहकर बुलाते हैं।

हाल ही में यूएनडीपी की ‘इंस्पायरिंग इंडिया’ नामक पत्रिका में उनकी आपबीती को एक प्रेरणा स्रोत के रूप में पेश किया गया है। जमुना टुडू को प्रकृति से बेहद प्यार है, उनका सफर 1998 में शुरू हुआ था, जब वो विवाह के बाद ओडिशा से 100 किलोमीटर दूर झारखंड में पूर्वी सिंहभूम के मुतुरखम आई थी। उन्होंने अपने गांव के पास पेड़ों की अवैध कटाई को रोकने के लिए चार अन्य महिलाओं को साथ लेकर "वन सुरक्षा समिति" का गठन किया था।

उनका कहना है कि "बचपन में हम अपने पिता की मदद के लिए खेतों में जाते थे। वहां पौधों को बढ़ते देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता था और जानवरों के साथ खेलना पसन्द था। प्रकृति हमारे जीवन का अभिन्न अंग है।”

महिलाओं के इरादों को न डिगा सकी माफियाओं की धमकियां

उनका कहना है कि जब वो अपने ससुराल आई तो शादी के अगले दिन जब उनके ससुराल वाले उन्हें घर के पीछे मौजूद जंगल दिखाने ले गए तो उन्होंने खुद को पेड़ों के ठूंठों से घिरा पाया। वहां बड़े पैमाने पर वनों के विनाश को देखकर हैरान रह गई। उस समय वन माफिया मुतुरखम के पास जंगल में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई कर रहे थे। तभी से उन्होंने निश्चय किया कि वो इस बारे में कुछ करके रहेंगी।

इसके बाद उन्होंने अन्य चार अन्य महिलाओं को लेकर पेड़ों की अवैध कटाई का करने वाले माफिया का सामना करने की ठान ली। वो बताती हैं कि, “अनेक ग्रामीणों ने मेरी चिन्ता पर सहमति दिखाई, लेकिन माफिया के डर और महिलाओं के लिए सामाजिक बंधनों की वजह से बहुत कम लोग ही हमारे समर्थन करने के लिए आगे आए। फिर इन पांच महिलाओं ने मिलकर 1998 में वन सुरक्षा समिति की नींव रखी।

इसके बाद यह लोग निगरानी रखने के लिए जंगलों में जाने लगे और माफिया को खुली चुनौती देने लगे। ऐसे में कई बार जंगल माफिया उन उनपर हमले किए और उन्हें जान से मारने की धमकी तक दी। परिवार ने भी समझाया, लेकिन माफियाओं की यह धमकियां महिलाओं के इरादों को टस से मस तक न कर सकीं। जमुना ने कभी हार न मानी जंगलों को बचाने के वो फैसला ले चुकी थी, वो उसपर आगे भी कायम रहीं।

लोगों को पेड़ लगाने के लिए भी करती हैं प्रेरित

जमुना टुडू आगे बताती हैं कि, "धीरे-धीरे समुदाय से जुड़े अन्य लोग भी आगे आने लगे।" तब से आज तक, उन्होंने ऐसी 400 से अधिक वन सुरक्षा समितियों के गठन व उन्हें सशक्त करने में मदद की है। उनके मुताबिक ये महिलाऐं, जंगलों में गश्त लगाने के अलावा, वन क्षेत्रों को बहाल करने के लिए, रात में वृक्षारोपण अभियान भी चलाती चलाते हैं। अब यह समितियां, महिलाओं को सामाजिक रूढ़ियों से मुक्त कराने में भी मदद कर रही हैं। उनका मानना ​​है कि, "अगर महिलाएं जाग उठेंगी तो पूरा गांव जागरूक हो जाएगा।"

पता चला है कि वो मुतुरखम में लड़की पैदा होने पर महिलाओं को 18 और शादी होने पर 10 पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करती हैं। उनका कहना है कि अपने पिता से सीखा प्रकृति प्रेम और सम्मान ही वो भाव है, जो उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

वह बताती है कि, "आज भी मैं जंगल जाने का समय निकाल लेती हूं। उनका मानना है कि चूंकि प्रकृति से हम सभी को किसी न किसी रूप में फायदा होता है ऐसे में हम सबकी जिम्मेवारी है कि हम उसे बचाने के लिए अपनी क्षमता के अनुसार कार्रवाई करें।