वन्य जीव एवं जैव विविधता

कैसे बचेगी जैवविविधता, जब भारत का महज 6 फीसदी से भी कम हिस्सा है संरक्षित

यदि पिछले 10 वर्षों के रुझानों को देखें तो भारत के संरक्षित क्षेत्रों में केवल 0.1 फीसदी की वृद्धि हुई है। इस रफ्तार से देखा जाए तो 2030 के लक्ष्यों को हासिल करना दूर की कौड़ी नजर आता है

Lalit Maurya

संरक्षित क्षेत्र, जैव विविधता की सुरक्षा के लिए सबसे प्रभावी उपकरणों में से एक हैं, लेकिन इसके बावजूद भारत के कुल क्षेत्रफल का 6 फीसदी से भी कम हिस्सा संरक्षित क्षेत्र है। इस बारे में यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि 2020 में देश का केवल 6 फीसदी हिस्सा संरक्षित क्षेत्र के रूप में घोषित था।

वहीं 2010 में यह क्षेत्र देश के केवल 5.9 फीसदी हिस्से में फैला था। इससे एक और बात जो सामने आती है वो यह है कि इन 10 वर्षों में संरक्षित क्षेत्रों में केवल 0.1 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

वहीं दूसरी तरफ यदि सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो देश में संरक्षित क्षेत्र 1,73,306.83 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं, जोकि देश के कुल भूभाग का महज 5.27 फीसदी हिस्सा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश में जैव विविधता को कैसे बचाया जा सकता है।

भारत जैसे इतने बड़े देश में 990 संरक्षित क्षेत्रों का नेटवर्क है, जिसमें 106 राष्ट्रीय उद्यान, 565 वन्यजीव अभयारण्य, 100 संरक्षण रिजर्व और 219 सामुदायिक रिजर्व शामिल हैं।

गौरतलब है कि वैश्विक जैव विविधता पर मंडराते संकट से निपटने के लिए, 2010 में जैव विविधता पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में, लगभग 200 देशों ने 2020 तक अपने स्थलीय क्षेत्रों के कम से कम 17 फीसदी हिस्से को बचाने का संकल्प लिया था। इसे आइची लक्ष्य 11 के रूप में जाना जाता है। साथ ही इस लक्ष्य के तहत कम से कम 10 फीसदी तटीय और समुद्री क्षेत्र को संरक्षित करने पर सहमति बनी थी। देखा जाए तो आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत इन लक्ष्यों को हासिल करना तो दूर उसके आसपास भी नहीं है।

दूर की कौड़ी है 2030 तक 30 फीसदी भूमि को संरक्षित करने का लक्ष्य

ऐसे में यदि वर्तमान रुझानों को देखें तो भारत, ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क 2030 के लक्ष्यों को हासिल करने से काफी दूर है। इस फ्रेमवर्क के तहत 2030 तक कम से कम 30 फीसदी भूमि को संरक्षित करने की बात कही गई है। देखा जाए तो न केवल भारत बल्कि एशिया के कई अन्य देश भी इन लक्ष्यों को बड़े अंतर से चूकने की ओर अग्रसर हैं।

यह अध्ययन एशिया के 40 देशों पर किया गया है। पता चला है कि इसमें से 24 देशों ने 2020 तक आइची लक्ष्य 11 के तहत 17 फीसदी संरक्षित क्षेत्र करने के लक्ष्य को हासिल नहीं किया है। इन देशों में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, जॉर्डन और अफगानिस्तान जैसे देश शामिल थे, जो इस लक्ष्य को हासिल करने में विफल रहे हैं।

देखा जाए तो एशिया जैव विविधता के मामले में धरती के सबसे समृद्ध स्थानों में से एक है। जहां विशाल पांडा, हिम तेंदुआ और एशियाई हाथी सहित दुनिया के कई करिश्माई जीव पाए जाते हैं। हालांकि, कई क्षेत्रों तेजी से बढ़ती आबादी इन प्रजातियों के लिए बड़ा खतरा बन चुकी है। बढ़ती इंसानी महत्वाकांक्षा इनके आवासों को भारी नुकसान पहुंचा रही है।

शोध से पता चला है कि एशिया में केवल 40 फीसदी फीसदी देशों ने 2020 तक संरक्षित क्षेत्रों के लिए न्यूनतम 17 फीसदी हिस्से के लक्ष्य को हासिल किया है। खासतौर पर पश्चिम और मध्य एशिया के बहुत कम देश इस लक्ष्य को हासिल कर पाए हैं।

देखा जाए तो इस मामले में सभी महाद्वीपों में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला महाद्वीप एशिया ही है। जहां 2020 तक केवल 13.2 फीसदी भूमि को संरक्षित क्षेत्र के रूप में घोषित किया है। वहीं वैश्विक औसत की बात की जाए तो यह आंकड़ा 15.2 फीसदी दर्ज किया गया है।

इतना है नहीं इन एशियाई देशों में जैवविविधता के संरक्षण के लिए संरक्षित भूमि में साल-दर-साल बहुत धीमी वृद्धि हुई है, जोकि औसतन केवल 0.4 फीसदी प्रति वर्ष है। वहीं 2010 से 2020 के बीच कई देशों ने अपने संरक्षित क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं किया है। यहां तक ​​कि कई में कमी भी दर्ज की गई है। उदाहरण के लिए बहरीन में जहां कुल संरक्षित क्षेत्र 17.8 फीसदी दर्ज किया गया था, वो 2020 में कुल भूमि का घटकर केवल 6.6 फीसदी रह गया था। इसी तरह कुवैत में भी इस दौरान 1.7 फीसदी की कमी आई है।

पता चला है कि जिन देशों में 2015 के दौरान कृषि भूमि का अनुपात ज्यादा था, वहां 2020 में संरक्षित क्षेत्र का विस्तार भी कम दर्ज किया गया था। मतलब साफ है इन देशों में बढ़ता कृषि क्षेत्र नए संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना में बाधा बन सकता है। इसी तरह एशिया में केवल 7 फीसदी संरक्षित क्षेत्र में इस बारे में अध्ययन किया गया है कि उनका प्रबंधन कितना प्रभावी है। रिसर्च के मुताबिक एशिया में 241 बेहद संकट ग्रस्त प्रजातियों में से 84 फीसदी की रेंज संरक्षित क्षेत्रों के बाहर है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत सहित एशिया के करीब-करीब सभी देश 2030 के लक्ष्य को हासिल करने में विफल रहेंगे। ऐसे में यदि उन्हें इस लक्ष्य को हासिल करना है तो संरक्षित क्षेत्रों को छह गुना ज्यादा तेजी से स्थापित करना होगा।

यदि इसकी वर्तमान दर की बात करें तो मौजूदा रफ्तार से 2030 तक एशिया का केवल 18 फीसदी हिस्सा संरक्षित होगा, जोकि 2030 के लिए निर्धारित लक्ष्य के आसपास भी नहीं है। देखा जाए तो पश्चिम और दक्षिण एशिया की स्थिति सबसे खराब है। अनुमान है कि जहां इस रफ्तार से पश्चिम एशिया का केवल 11 फीसदी और दक्षिण एशिया का सिर्फ 10 फीसदी हिस्सा संरक्षित क्षेत्र के रूप में स्थापित हो पाएगा।  

भूटान, नेपाल जैसे देश हैं एशिया के लिए उदाहरण

देखा जाए तो धूमिल भविष्य के बीच एशिया में सफलता की कई कहानियां भी सामने आई हैं। उदाहरण के लिए नेपाल को ले लीजिए जहां 2010 से 2020 के बीच संरक्षित क्षेत्र में 37 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि हुई है जो 2020 में बढ़कर कुल भूमि का करीब 24 फीसदी हो गया है। इसी तरह भूटान में भी संरक्षित क्षेत्र 28.8 फीसदी से बढ़कर 2020 में देश की 49.7 फीसदी भूमि पर फैल चुका है।

ऐसे में शोधकर्ताओं ने 2030 जैव विविधता लक्ष्यों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे एशियाई देशों का समर्थन करने के लिए तीन सिफारिशें भी प्रस्तुत की हैं। इसमें जैव विविधता का संरक्षण करने वाले स्थानीय समुदायों के आधीन अन्य प्रभावी क्षेत्र-आधारित संरक्षण उपायों का दस्तावेजीकरण और रिपोर्टिंग करना। प्रभावित भूमि और जंगलों को बहाल करना। साथ ही अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के परे मौजूद संरक्षित क्षेत्रों को मजबूत करना शामिल हैं।

 गौरतलब है कि इस महीने 7 से 19 दिसंबर, 2022 के बीच जैवविविधता पर मॉन्ट्रियल, कनाडा में कॉप 15 का आयोजन होना है। इस बैठक में दुनिया भर की सरकारों के प्रतिनिधि आइची जैव विविधता लक्ष्यों की उपलब्धि की समीक्षा करेंगे। साथ ही 2020 के बाद वैश्विक जैव विविधता ढांचे के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए रणनीतियों पर भी विचार विमर्श किया जाएगा। ऐसे में अब सबकी निगाहें इस सम्मलेन पर टिकी हैं।