अक्सर मानव-वन्यजीव संघर्ष होता है जिसके चलते दोनों को नुकसान झेलना पड़ता है। यह संघर्ष उन इलाकों में और बढ़ जाता है जहां वन्यजीव और लोग एक दूसरे के आस-पास रहते हैं। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चलता है कि कुछ स्वदेशी लोग हैं जो एक दूसरे के साथ रहते हैं और इनके संरक्षण में अहम भूमिका निभाते हैं। इन लोगों ने वन्यजीवों को अपनी संस्कृति में अहम स्थान दिया है।
अब वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी (डब्ल्यूसीएस) की अगुवाई में किया गया एक नया अध्ययन इस बात की तस्दीक करता है कि कैसे स्वदेशी लोग और तेंदुए एक दूसरे के आस पास रहते हैं। स्वदेशी लोगों द्वारा इन बड़ी बिल्लियों की पूजा की जाती है, वे इन्हें देवता के समान मानते हैं।
यह अध्ययन वन्यजीवों के साथ रहकर कैसे एक दूसरे को नुकसान पहुंचाए बिना जीवन जीने के बारे में बताता है। कैसे महाराष्ट्र के स्वदेशी वारली लोग सुरक्षा हासिल करने के लिए तेंदुए यानी बाघ देवता वाघोबा की पूजा करते हैं। कैसे वे सदियों से तेंदुओं और बाघ के साथ-साथ रहते आए हैं।
शोधकर्ताओं ने वाघोबा की पूजा के लिए बने 150 से अधिक मंदिरों की पहचान की है। शोधकर्ताओं ने इस बात पर गौर किया कि जबकि अभी भी तेंदुओं के बारे में अक्सर लोगों की सोच ठीक नहीं होती है, जैसे कि तेंदुओं के द्वारा उनके पशुओं को मारना आदि। लेकिन अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि तेंदुओं को वाघोबा के तहत अधिक स्वीकार किए जाने की संभावना है।
वारली लोग एक पारस्परिक संबंध में विश्वास करते हैं, उनका मानना है कि वाघोबा उन्हें बड़ी बिल्लियों के साथ जगह को साझा करने और उनके बुरे प्रभावों से बचाएंगे। उनका मानना है कि यह तभी संभव है जब लोग देवता की पूजा करते हैं और आवश्यक अनुष्ठान करते हैं, खासकर साल भर में मनाए जाने वाले वाघ बरस के उत्सव में।
शोधकर्ताओं का सुझाव है कि लोगों और तेंदुओं के बीच इस तरह के संबंध जगहों को एक दूसरे से साझा करने की सुविधा प्रदान करते हैं। इसके अलावा, अध्ययन उन तरीकों पर भी गौर करता है जिसमें उस इलाके में संस्थानों और हितधारकों की श्रेणी वाघोबा जैसे संस्था को आकार देती है और इस तरह के परिदृश्य में लोगों और तेंदुए के रिश्ते में अहम भूमिका अदा करती है।
डब्ल्यूसीएस इंडिया के प्रमुख अध्ययनकर्ता राम्या नायर ने कहा कि अध्ययन का मुख्य उद्देश्य मानव-वन्यजीवों के बीच पारस्परिक चीजों को समझने और इन घटते वन्यजीवों को देखने, इनके बारे में सोचने के तरीके में विविधता लाना है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि एक साथ रहने में योगदान करने वाले स्थानीय संस्थान जो उत्पन्न होने वाले संघर्षों को बहुत कम तो नहीं कर सकते हैं, लेकिन इन संघर्षों पर समझौता करके इनके निपटारे में उनकी अहम भूमिका होती है।
स्थानीय रूप से निर्मित प्रणालियां जो मानव-वन्यजीव परस्पर क्रियाओं से संबंधित मुद्दों को सुलझाने का काम करती हैं, इस तरह की कई अन्य संस्कृतियों और परिदृश्यों में मौजूद हो सकती हैं।
अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि जब भी संरक्षण के काम में स्थानीय समुदायों को शामिल किया गया और उनकी भागीदारी बढ़ाई गई तब-तब यह कार्य बहुत सफल रहे हैं। यह वर्तमान वन्यजीव संरक्षण के लिए प्रासंगिक है क्योंकि ऐसे पारंपरिक संस्थान स्थानीय विश्वास प्रणाली के भीतर जुड़ी हुई है, इनके एक दूसरे को सहन करने वाले तंत्र के रूप में कार्य करने की संभावना है।
इसके अलावा, यह महत्वपूर्ण है कि वारली समुदाय के बाहर के प्रमुख हितधारक जैसे वन विभाग, संरक्षण जीवविज्ञानी और अन्य लोग जो यहां रहते हैं तथा जिनका तेंदुओं से पाला पड़ता है। इन लोगों को भी इन सांस्कृतिक नुमाइंदगी के बारे में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। यह अध्ययन जर्नल फ्रंटियर्स इन कंजर्वेशन साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
इस अध्ययन के लिए 2018-19 में महाराष्ट्र के मुंबई उपनगरीय, पालघर और ठाणे जिलों में फील्डवर्क किया गया था। वहां रहने वाले लोगों की वन्यजीव संबंधी संस्कृति और उनको देखने के तरीकों के आधार पर आंकड़ों को एकत्र किया गया। शोधकर्ताओं ने साक्षात्कार आयोजित किए और वाघोबा मंदिरों के दस्तावेजीकरण के साथ-साथ प्रतिभागियों का भी अवलोकन किया गया।
इसमें विशेष रूप से पूजा समारोहों में भाग लेना इन्हें आयोजित करना आदि शामिल था। वारली के जीवन में वाघोबा की भूमिका, वाघोबा पूजा के इतिहास, संबंधित त्योहारों, अनुष्ठानों और परंपराओं और वाघोबा और मानव-तेंदुए के बीच संबंधों पर कथाओं का पता लगाने के लिए भी लोगों से प्रश्न पूछे गए थे।