शिमला में लगभग हर घर में ऐसी रैलिंग दिख जाती हैं। फोटो: मनु पंवार 
वन्य जीव एवं जैव विविधता

'पिंजड़ाघर' मेंं तब्दील कैसे हुआ शिमला?

पिछले करीब 19 सालों में हिमाचल प्रदेश सरकार बंदरों के बंध्याकरण पर करीब 152 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है

Manu Panwar

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के लोग दो साल पहले की उस घटना को नहीं भूले हैं जब शिमला के उपनगर ढांडा में घर की छत पर कपड़े सुखा रही 19 साल की एक लड़की हिमानी शर्मा पर बंदरों के एक झुंड ने हमला कर दिया था।

वो खुद को बचाने के चक्कर में तीन मंजिला इमारत से गिर गई। उसकी मौत हो गई।अभी पिछले महीने (अगस्त 2025) की ही बात है जब शिमला जिले के रामपुर में एक 65 साल के रिटायर्ड टीचर देश लाल गौतम सुबह छत पर पक्षियों को दाना डाल रहे थे।

तभी बंदरों के हमले से बचने  की कोशिश में वह चौथी मंज़िल से नीचे गिर गए और उनकी मौके पर ही मौत हो गई।सैर-सपाटे के लिए शिमला जाने वालों को स्थानीय लोगों की इस समस्या की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं लग पाता। वो बंदरों की हरकतों को देखकर रोमांचित होते हैं। फोटो खींचने लगते हैं। रील्स बनाने लगते हैं।

शिमला आने वाले पर्यटकों ने पता नहीं इस पर कभी गौर किया या नहीं किया, लेकिन बंदरों की समस्या ने शिमला को कई तरह से बदल दिया है। खासकर, सात पहाड़ियों पर बसा शिमला आज एक पिंजड़ा बन चुका है।

लोहे और एल्युमिनियम का पिंजड़ा। जहां देखो वहीं आपको घरों में, मकानों में, इमारतों में या गेस्ट हाउस में लोहे की ग्रिल से या जालियों से तगड़ी किलेबंदी देखने को मिलेगी। इन पंक्तियों के लेखक जब पहली बार शिमला पहुंचे तो इस किलेबंदी का रहस्य शुरू में समझ में नहीं आया।

शिमला में लगभग हर मकान में, हर घर में, हर बिल्डिंग को लोहे की जालियों से कवर किया गया है। मैं पहले सोचता था कि आखिर लोगों ने क्यों अपने घरों की खूबसूरती पर ये लोहे की ग्रिल वाला बट्टा लगा दिया होगा? फिर जब यहां रहने लगा तो सच्चाई से सामना हुआ।

बंदरों से बचने के लिए ग्रिल लगाई जाती हैं। फोटो: मनु पंवार

तब पता चला कि लोहे की ग्रिल और जालियों से घरों की ये किलेबंदी बंदरों से बचने के लिए की गई है। बंदरों से बचने के लिए ही घरों को पिंजड़े में तब्दील कर दिया गया है। बंदर हिमाचल प्रदेश के लिए बहुत बड़ी समस्या बन चुके हैं। खासकर शिमला के लिए तो बहुत ही ज्यादा। हिमाचल प्रदेश में तो बंदर एक राजनीतिक मुद्दा भी रहा है. लेकिन इस समस्या का एक आर्थिक और सामाजिक पक्ष भी है।

अगर कहें कि बंदरों की वजह से शिमला महंगा है, शिमला में रहना महंगा है या बंदरों की वजह से शिमला लोगों की जेब पर भारी पड़ता है, तो शायद बहुत से लोग यकीन नहीं करेंगे। इसे ऐसे समझिए कि अगर आप किराये पर रहना चाहते हैं तो उस मकान का किराया ज्यादा महंगा होगा, जोकि लोहे की ग्रिल से या जाली से पूरी तरह से कवर है यानी जो मकान पिंजड़ा बन चुका है।

जो मकान या जो घर लोहे की ग्रिल से कवर नहीं है, उसका किराया अपेक्षाकृत कम होगा, लेकिन उसमें ये खतरा रहता है कि सवारी अपने सामान की स्वयं जिम्मेदार है। मतलब किरायेदार को खुद के जोखिम पर रहना पड़ेगा। जहां लोहे की ग्रिल नहीं होती, वहां बंदर कभी भी वहां घुस जाते।

शिमला में बंदरों को इंसानों का कोई डर नहीं है। शिमला के प्रसिद्ध जाखू मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की तो बंदर कई बार तलाशी भी ले लिया करते हैं। आपके पास ऐसी सिचुएशन में सरेंडर करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता। तो शिमला को पिंजड़े का शहर बना देने में बंदरों का कितना बड़ा हाथ है, इससे समझ गए होंगे। बंदर अभी भी हिमाचल प्रदेश की सरकारों और वहां के प्रशासन के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं।

हिमाचल प्रदेश वन विभाग के आंकड़ों मे चौंकाने वाली तस्वीर सामने आती है। हिमाचल सरकार ने 2006 से बंदरों के बंध्याकरण यानी नसबंदी का कार्यक्रम शुरू किया था। पूरे राज्य में बंदरों की नसबंदी के लिए 8 सेंटर चल रहे हैं।

इन सेंटर्स पर सरकार का सालाना करीब 8 करोड़ रुपये खर्च हो रहा है यानी पिछले करीब 19 सालों में हिमाचल प्रदेश सरकार बंदरों के बंध्याकरण के इन सेंटर्स पर करीब 152 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। हिमाचल प्रदेश के फॉरेस्ट विभाग का डेटा बता रहा है कि 2006-07 से लेकर 2023-24 तक 1 लाख 86 हजार 448 बंदरों को स्टर्लाइज्ड (बंध्याकरण) किया गया है।

साल 2020 में तो केंद्र सरकार के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने निजी भूमि में नुकसान करने वाले बंदरों को मारने की भी राज्य सरकार को अनुमति दी थी. उसमें ये शर्त भी थी कि सरकारी भूमि में बंदरों को नहीं मारा जा सकेगा। ये मंजूरी सिर्फ सालभर के लिए थी।

लेकिन इसके बावजूद ऐसा नहीं लग रहा है कि शिमला को पिंजड़े के शहर में बदल देने वाले इन बंदरों की संख्या में कहीं कोई कमी हो रही हो। हिमाचल प्रदेश सरकार के लिए, यहां के सरकारी सिस्टम के लिए ये अभी भी एक बड़़ा चैलेंज हैं जोकि करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपये खर्च करके भी बंदरों की समस्या से निजात नहीं दिला पाए हैं।