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डाउन टू अर्थ खास: आदिवासियों के परिवार नियोजन पर प्रतिबंध लगाना कितना सही?

Taran Deol

11 जून को आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीतारामाराजू जिले के लगभग 600 आदिवासी पुरुषों और महिलाओं को कथित रूप से परिवार नियोजन हेतु सर्जरी के लिए विशाखापत्तनम के एक निजी अस्पताल में ले जाया गया। आदिवासियों के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था आंध्र प्रदेश आदिवासी ज्वाइंट एक्शन कमेटी के संयोजक रामाराव डोरा बताते हैं, “अस्पताल के प्रतिनिधियों ने आदिवासियों को 5,000 रुपए, मुफ्त परिवहन, भोजन और मुफ्त में ठहराने का वादा किया था।”

इस घटना की जानकारी मिलते ही समिति ने राज्य की इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी (आईटीडीए) में शिकायत दर्ज कराई। डोरा डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि 16 जून को आईटीडीए के हस्तक्षेप के बाद सभी लोगों को छोड़ दिया गया, लेकिन तब तक कम से कम 129 लोगों की नसबंदी की सर्जरी हो चुकी थी। हालांकि अस्पताल प्रशासन आरोपों को खारिज कर रहा है। आईटीडीए ने इस घटना की जांच के आदेश दिए हैं।

आंध्र प्रदेश आदिवासी ज्वाइंट एक्शन कमेटी ने इस घटना को लेकर कई चिंताएं जताई हैं। उदाहरण के लिए बिना चिकित्सा प्रोटोकॉल अनुपालन के लोगों को एक से दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया गया।

इससे भी बड़ी चिंता का विषय यह है कि जिन लोगों को परिवार नियोजन (नसबंदी) की सर्जरी के लिए ले जाया गया था, उनमें ज्यादातर विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) जैसे कोंडू, बगथा, कोरजा और वाल्मीकि से आते हैं। आंध्र प्रदेश में इन जनजातियों के परिवार नियोजन जैसी सर्जरी पर प्रतिबंध है ताकि इनकी जनसंख्या में हो रही गिरावट को रोका जा सके।

अप्रासंगिक कड़ी

कुछ दशक पहले तक कई राज्यों में पीवीटीजी से जुड़े समुदाय के लिए परिवार नियोजन एवं प्रजनन दर में सुधार के लिए समान नीतियां थीं। जन स्वास्थ्य अभियान की राष्ट्रीय संयुक्त संयोजक सुलक्षणा नंदी कहती हैं, “उस समय आदिवासी आबादी में गिरावट इसलिए आई क्योंकि उनकी जीवन प्रत्याशा खराब थी।” लेकिन आदिवासी आबादी 1960 के दशक से बढ़ रही है।

केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा “भारत में अनुसूचित जनजातियों के सांख्यिकीय प्रोफाइल 2013” के अनुसार, पीवीटीजी जनसंख्या 1961 में 7.7 लाख से बढ़कर 1971 में 14 लाख, 1981 में कुछ 22.6 लाख, फिर 1991 में 24 .1 लाख और 2001 में 27.6 लाख हो गई। पिछली जनगणना वर्ष 2011 के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इन बदलती परिस्थितियों में स्वास्थ्य और आदिवासी कल्याण से जुड़े कार्यकर्ता वर्षों से इस तरह के प्रतिबंधों के खिलाफ बोल रहे हैं। दिल्ली में पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क की सामुदायिक बाल रोग विशेषज्ञ वंदना प्रसाद का कहना है कि जनसंख्या संकेतक (आंकड़े) परिवार नियोजन सुविधाओं तक पहुंच को निर्धारित या नियंत्रित नहीं कर सकते।

पहले से ही हाशिए पर पड़े समुदायों को परिवार नियोजन के रूप में सर्जरी तक पहुंच से वंचित करने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। छत्तीसगढ़ के बैगा समुदाय को गर्भनिरोधक सेवाओं से वंचित करने पर 2018 के एक अध्ययन में कहा गया है कि गर्भधारण और जीवित बच्चों की संख्या नसबंदी प्रतिबंध और मृत्यु दर के बीच एक जुड़ाव स्थापित करती है। हालांकि रिप्रोडक्टिव हेल्थ मैटर्स में प्रकाशित इस अध्ययन ने इससे जुड़ा कोई सीधा सम्बन्ध नहीं पाया।

छत्तीसगढ़ राज्य, जहां बड़ी संख्या में पीवीटीजी समुदाय के लोग निवास करते हैं, ने 2018 में समुदाय के लिए नसबंदी तक पहुंच पर रोक लगाने वाले 40 साल पुराने आदेश को निरस्त कर दिया। 1979 के आदेश द्वारा पारित इस आदेश के तहत अविभाजित मध्य प्रदेश में नौ जनजातियों की घटती आबादी के कारण उनकी नसबंदी पर रोक लगा दी थी। पीवीटीजी समुदाय को सर्जरी के लिए मजबूर या प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता था।

आदेश में 26 ब्लॉकों की एक सूची दी गई जहां आदिवासियों को इस प्रक्रिया के लिए अनुमति की आवश्यकता थी। 2017 में मध्य प्रदेश ने यह भी घोषणा की कि पीजीटीवी बैगा समुदाय ब्लॉक विकास सहायक की अनुमति से नसबंदी सर्जरी कर सकता है। दोनों राज्यों में पीवीटीजी अस्थायी गर्भ निरोधकों (कंडोम और दवा) का भी लाभ उठा सकते हैं।

इन बदलावों के बाद भी दोनों राज्यों में सर्जरी आदिवासियों की पहुंच से बाहर है। मुंगेली जिले की रहने वाली और बैगा समुदाय की 30 वर्षीय सदस्य दुखिया तीन बच्चों की मां हैं। इस साल की शुरुआत में पैदा हुए उनके चौथे बच्चे की एक महीने के अंदर मौत हो गई। दुखिया अत्यधिक रक्तअल्पता (एनीमिक) की शिकार है।

2020 के अंत में उन्होंने स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) जाकर अपने तीसरे बच्चे के जन्म के बाद स्थायी गर्भनिरोधक का अनुरोध किया था। दुखिया का दावा है कि उसके पीवीटीजी स्टेटस के कारण उसे स्थायी गर्भनिरोधक उपाय के लिए मना कर दिया गया। दुखिया कहती हैं कि बच्चा जनना या न जनना मेरा फैसला होना चाहिए। हम मजदूर हैं, हमारे पास इतने बच्चे पालने के साधन नहीं हैं।

मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले की रहने वाली बैसाखिया महज 28 साल की हैं और उनके पांच बच्चे हैं। सभी कुपोषित हैं। वह मजदूरी करती हैं और अपने परिवार की एकमात्र कमाने वाली सदस्य हैं। वह भी स्थायी गर्भनिरोधन चाहती थी।

बैसाखिया बताती हैं कि “मैं तीन वर्षों में तीन-चार बार स्थानीय सीएचसी गई, लेकिन हर बार मुझे यह कहते हुए सुविधा से वंचित कर दिया गया मैं बैगा महिला हूं।”

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में गैर-लाभकारी जन स्वास्थ्य सहयोग के समन्वयक हरेंद्र सिंह सिजवाली का कहना है कि सीएचसी 1979 के आदेश में बदलाव से अनभिज्ञ होने का दावा करते हैं और इसलिए सर्जरी से बचते हैं। इस कारण हाल के वर्षों में लोगों ने इसका लाभ उठाने के लिए असुरक्षित तरीकों का सहारा लिया है।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लोग जल्द ही इन परिस्थितियों में जमीन पर बदलाव की उम्मीद करते हैं, लेकिन झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में रहने वाली माल्टो जनजाति (जिसे पहाड़िया जनजाति के रूप में भी जाना जाता है) के लिए ऐसी राहत कहीं नहीं है। झारखंड में भी पीवीटीजी के लिए नसबंदी की सर्जरी पर प्रतिबंध है।

गरीबों और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए काम करने वाले इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया कमीशन ऑन रिलीफ के परियोजना समन्वयक सुजीत कुमार नायक कहते हैं, “अस्थायी गर्भनिरोधक उपलब्ध हैं, लेकिन सर्जरी पर प्रतिबंध माल्टो जनजाति के स्वास्थ्य को कमजोर कर रहा है।”

झारखंड के पाकुड़ जिले में काम करने वाले नायक का कहना है कि जिले के अधिकांश पीवीटीजी आदिवासी समूह के बच्चे कुपोषित हैं और माताओं की स्वास्थ्य स्थिति भी खराब है। प्रसाद का तर्क है कि पीवीटीजी आबादी में गिरावट के कारणों में गरीबी, स्वास्थ्य एवं देखभाल सेवाओं तक खराब पहुंच और रुग्णता (मार्बिडिटी) है। उनका कहना है कि राज्य को इन सुविधाओं को प्रतिबंधित करने के बजाय समुदायों को परिवार नियोजन सेवाएं उपलब्ध करानी चाहिए और उन्हें अच्छे प्रजनन विकल्पों पर शिक्षित करना चाहिए।

(आंध्र प्रदेश में जी राममोहन के इनपुट्स के साथ। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की महिलाओं के परिवर्तित नाम और उनके गांवों के नाम उनकी पहचान उजागर न हो, इसलिए नहीं लिखे गए)