वन्य जीव एवं जैव विविधता

आठ नन्हे मेहमानों से बढ़ी गोडावण संरक्षण की उम्मीद

एक बच्चा ऐसा है जिसके अभिभावक भी कैप्टिविटी (पाल्य अवस्था) में ही पैदा हुए हैं। इसलिए इस बच्चे को कैप्टिविटी में पैदा हुए पक्षी की दूसरी पीढ़ी कहा जा रहा है

DTE Staff

पार्थ कबीर

गोडावण (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) संरक्षण के लिए इसे अच्छी खबर कहा जा सकता है। इस साल जैसलमेर के दो अलग-अलग जगहों पर बनाए गए कंजर्वेशन ब्रीडिंग सेंटर में कुल आठ नए बच्चे पैदा हुए हैं। इससे इन पक्षियों के संरक्षण की उम्मीद बढ़ गई है। 

खास बात यह है कि इनमें से एक बच्चा ऐसा है जिसके अभिभावक भी कैप्टिविटी (पाल्य अवस्था) में ही पैदा हुए हैं। इसलिए इस बच्चे को कैप्टिविटी में पैदा हुए पक्षी की दूसरी पीढ़ी कहा जा रहा है। 

गोडावण कभी भारत के एक बड़े भू-भाग में रहा करते थे। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी इनकी मौजूदगी थी। लेकिन, पर्यावास में होने वाले बदलाव, खेती के विस्तारीकरण, शिकार आदि के चलते अब यह पक्षी विलुप्त प्राय हो गया है।

वर्ष 2018 में इसकी संख्या 150 से भी कम आकी गई थी। इसमें से भी इस पक्षी की 80फीसदी तक आबादी केवल राजस्थान में सिमटी हुई है। 

यह एक बड़े आकार का पक्षी होता है। जो आमतौर पर वर्ष भर में एक बार ही अंडे देता है। इसे उड़ने वाले सबसे बड़े पक्षियों में शुमार किया जाता है। लेकिन, इस बड़े आकार के चलते इसे खास किस्म से उड़ान भरनी होती है।

लेकिन, गोडावण के पर्यावास में अब बहुत सारी जगहों पर हाई टेंशन लाइन गुजर रही हैं। सामने की तरफ की दृष्टि बहुत तीव्र नहीं होने और बड़े आकार के चलते यह पक्षी सामने से गुजर रही हाईटेंशन लाइन को देख नहीं पाता और इससे टकराकर मौत का शिकार हो रहा है। 

गोडावण के जीवन के सामने खड़ी पुरानी बाधाओं के साथ ही हाईटेंशन लाइन एक नई बाधा है, जो गोडावण की जान ले रहा है। हालांकि, गोडावण को इस टकराव से बचाने के लिए अब हाईटेंशन लाइन में बर्ड डायवर्टर भी लगाए जा रहे हैं। 

वहीं, गोडावण की बहुत ही कम बच गई संख्या को देखते हुए जैसलमेर के सम और रावदेवड़ा में कंजर्वेशन ब्रीडिंग सेंटर की शुरुआत की गई है। यहां पर जंगल से गोडावण के अंडे लाकर कृत्रिम तौर पर इंक्यूबेशन के जरिए उन्हें सेने और उनमें से  निकलने वाले चूजों को पालने का काम किया जाता है। 

इस कार्यक्रम का उद्देश्य यह है कि गोडावण की एक इस तरह की आबादी तैयार कर ली जाए ताकि उन्हें पूरी तरह से विलुप्त होने से रोका जा सके। पक्षियों की ऐसी एक सुरक्षित आबादी रहने पर उन्हें बाद में फिर से जंगलों में बसाना संभव हो सकेगा। 

वर्ष 2019 में केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, राजस्थान वन विभाग और भारतीय वन्यजीव संस्थान की ओर से कंजर्वेशन ब्रीडिंग सेंटर की शुरुआत की गई। इंटरनेशनल फंड फॉर हाउबारा कंजर्वेशन द्वारा भी इस कार्यक्रम को सहयोग किया जा रहा है। 

खास बात यह है कि कंजर्वेशन ब्रीडिंग सेंटर में इस प्रजनन सीजन में कुल मिलाकर आठ बच्चे पैदा हुए हैं। इनमें से सात बच्चे को जंगल से एकत्रित करके लाए गए अंडों से निकले हैं। जबकि, एक बच्चा ऐसे अंडे से निकला है जिसे कैप्टिविटी (पाल्य अवस्था) में ही पली-बढ़ी मादा ने कैप्टिविटी में ही पले-बढ़े नर के संसर्ग में आने के बाद दिया था। 

इस तरह से देखा जाए तो यह बच्चा पाल्य अवस्था में पैदा हुए बच्चों की दूसरी पीढ़ी हो गया। इसके साथ ही इन दोनों कंजर्वेशन ब्रीडिंग सेंटर में गोडावण पक्षियों की कुल संख्या 29 हो गई है। जो कि जंगल में इनकी बेहद कम संख्या को देखते हुए अच्छी कही जा सकती है। इनमें बीस मादा और नौ  नर पक्षी हैं।   

गोडावण प्रजनन केन्द्र रामदेवड़ा में भारतीय वन्यजीव संस्थान के प्रोजेक्ट एसोसिएट महेश गुर्जर बताते हैं कि पाल्य अवस्था में रखे गए पक्षियों के खान-पान का पूरा खयाल रखा जाता है। उन्हें जरूरी कसरत कराई जाती है। ताकि, उनका स्वास्थ्य अच्छा बना रहे। 

फिलहाल उन्हें छोटे बाड़े में रखा गया है। लेकिन, आगे योजना है कि उन्हें ज्यादा बड़े बाड़े में रखा जाए ताकि वे उनमें छोटी-छोटी उड़ाने भी भर सकें। एक अच्छी आबादी तैयार हो जाने के बाद यहां पर जन्में दूसरी और तीसरी पीढ़ी के गोडावण को फिर से जंगल की सहज वातावरण उपलब्ध कराया जाएगा ताकि उन्हें उनके पर्यावास में छोड़ा जा सके। 

कैसे चलता है गोडावण प्रजनन कार्यक्रम

आमतौर पर गोडावण पक्षी साल भर में एक ही अंडा देते हैं। घोसला भी इनका जमीन पर ही होता है। ऐसे में अगर किसी कारण वश वह अंडा नष्ट हो जाए या चूजे का कोई शिकार कर ले तो वह इस पक्षी की संख्या बढ़ाने की दृष्टि से बहुत ही नुकसान दायक होता है। ऐसे में प्रजनन केन्द्र के विशेषज्ञ गोडावण के ऐसे घोसलों की तलाश करते हैं जिनमें मादा ने अंडे दिए हों। उन अंडों को एकत्रित करके केन्द्र में लाया जाता है। यहां पर सुरक्षित वातावरण में अंडों को नियंत्रित तापमान और नमी में रखा जाता है।

अंडे से चूजे निकलने के बाद उन्हें संतुलित आहार दिया जाता है और उनकी देखभाल की जाती है। इस केन्द्र के जरिए गोडावण के एक-एक बच्चे को सुरक्षित बचाने की कोशिश की जाती है। जबकि, ऐसा भी देखने को मिला है कि घोसले में अंडा नहीं पाने के बाद मादा ने दूसरा अंडा भी दे दिया है।  

जैसलमेर में चुनाव का शुभंकर भी बना गोडावण

गोडावण पक्षियों के संरक्षण को लेकर जैसलमेर में अलग-अलग कार्यक्रम की शुरुआत की गई है। इसमें खासतौर पर लोगों को इन पक्षियों के बारे में जागरुक करने और उन्हें इनके संरक्षण की तरफ प्रेरित करने के कार्यक्रम है। जैसलमेर जिले के कलेक्ट्रेट में कार्यालय जिला निर्वाचन अधिकारी की ओर से विशेष पोस्टर लगाए गए हैं। इसमें एक गोडावण जिसे राजस्थानी वेषभूषा में दिखाने के लिए पगड़ी भी पहना दी गई है, वो लोगों से वोट देने का आह्वान कर रहा है।

पोस्टर पर लिखा है कि 'जैसाणे रो आयो हेलो, सगला वोट देवण ने चलो'। यानी जैसलमेर से यह आवाज आई है कि सब लोग वोट देने के लिए चलो। जाहिर है कि जागरुकता के इस तरह के कार्यक्रम लोगों को इस पक्षी के जीवन पर छाए संकटों के प्रति जागरुक करने और उन्हें जन-जीवन में एक बार फिर से स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 

पर्यावास की है असली चुनौती

प्रजनन केन्द्र में इस पक्षी का प्रजनन कराने में सफलता मिली है। इससे पक्षी की एक सुरक्षित आबादी तैयार करने को तो सफलता मिली है। लेकिन, अभी भी मुख्य समस्या इनके पर्यावास की ही है। क्योंकि, पर्यावास को नहीं बचाए जाने पर इन्हें फिर से जंगल में छोड़े जाने पर भी इनके बचने की संभावना बहुत कम रहेगी।

स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता सुमेर सिंह भाटी बताते हैं कि ग्रीन एनर्जी के नाम पर जगह-जगह प्राकृतिक पर्यावास को तबाह किया जा रहा है। जिसके चलते गोडावण और इसी पर्यावास में रहने वाले अन्य वन्यजीवों का बचना भी मुश्किल हो गया है। अक्तूबर महीने की शुरुआत में उन्होंने जिलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन और ज्ञापन भी दिया। इसमें खेजड़ी के वृक्षों की कटाई समेत अन्य मुद्दों पर कंपनी के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की मांग की गई। 

एक अन्य पर्यावरण कार्यकर्ता पार्थ जिगाणी कहते हैं कि सदियों से पवित्र वनभूमियों यानी ओरण का समुदाय द्वारा संरक्षण किया गया है। इन ओरण में लोग अपने पशुओं को तो चरा सकते हैं लेकिन वहां से पेड़ की एक डाल तक काट नहीं ला सकते। किसी न किसी मंदिर के साथ इन्हें संगल्न किया जाता है। समुदाय द्वारा वनों के संरक्षण की यह अनूठी मिसाल है।

लेकिन, अब इन पवित्र वन भूमियों का भी भू-उपयोग बदलने और उन पर कंपनियों के कब्जे की घटनाएं हो रही हैं। इन पवित्र वन भूमियों में गोडावण समेत की वन्यजीव रहते हैं। जाहिर है कि ओरण को संरक्षित नहीं किए जाने का असर इनके जीवन पर भी पड़ा है