कई ऐतिहासिक अन्यायों को सुधारते हुये, न्याय की स्थापना के लिये लाये गये वनाधिकार क़ानून (2006) की लोकप्रियता इस बात से समझी जा सकती है कि एशिया और अफ्रीका के कुछ देश अपने मूलवासियों के लिये भी ऐसी ही पहल करना चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का विश्व खाद्य और कृषि संगठन पहले ही इसे मूलवासियों/ आदिवासियों के अधिकारों के लिये दुनिया के बेहतरीन कानून का दर्जा दे चुका है। दुनिया के अनेक देशों में लोगों के जंगल-जमीन पर अधिकारों की मान्यता और स्थापना के लिये भारत का यह वनाधिकार क़ानून, आज सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण सन्दर्भ है।
भारत में वन कानूनों के जन्मने का इतिहास और लागू होने का भूगोल यहां के अनेक उन सशक्त जमीनी आंदोलनों के प्रतिक्रियास्वरूप आकार लेते गये, जो विगत दो सदी में हुये। स्वाधीनता के पूर्व के संघर्ष, यदि उन गुलाम बनाने वाले कानूनों के प्रति खिलाफत थे, तो आजादी के बाद के आंदोलन उन औपनिवेशिक कानूनों की समाप्ति का सत्याग्रह बना। वनाधिकार कानून के लिये संघर्ष और सफलता का अध्याय इसी बिंदु से शुरू होता है। वनाधिकार कानून लागू करते हुए भारत सरकार की यह स्वीकारोक्ति की यह कानून 'ऐतिहासिक अन्याय' को समाप्त करने में मील का पत्थर साबित होगा, बेहद महत्वपूर्ण वैधानिक प्रयास था। लेकिन जारी ऐतिहासिक अन्याय समाप्त हुआ या नहीं आज इसके ज़मीनी पड़ताल की आवश्यकता है।
यह जगजाहिर है कि अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का, भारत सहित तीसरी दुनिया के जंगलों के प्रति हरित-प्रेम के अपने सुलझे-उलझे आर्थिक तर्क रहे हैं । दुर्भाग्य से सरकार का एक पूरा तंत्र और अमला उन हरे-भरे अंतर्राष्ट्रीय निवेशों का लाभार्थी था/है, जिसके लिये आदिवासी को जंगल में अतिक्रमणकर्ता और अवांछित साबित कर दिया गया। भारत में वन संपदा के दोहन और संरक्षण के नाम पर लाये गये तमाम वानिकी परियोजनाओं के विस्तार और उनके विध्वंसक परिणामों के प्रभाव-दुष्प्रभाव से यह देखा और समझा जा सकता है। जाहिर है, अंतर्राष्ट्रीय निवेशों के लिये बनाये गये इस वन-तंत्र में जंगल के सनातन रक्षक अर्थात आदिवासी समाज के मौलिक अधिकारों को खारिज़ किये बिना, वन संपदा की खुली लूट संभव थी ही नहीं।
बाद के बरसों में वैश्वीकरण और निजीकरण के नये आर्थिक तर्कों के साथ नवें दशक के मध्य से तथाकथित विकास के नाम पर जल जंगल और जमीन जैसे संसाधनों के संगठित लूट के ऐतिहासिक अन्याय का जो अध्याय शुरू हुआ वो आज तक तमाम अंतर्विरोधों और बाहरी प्रतिरोधों के बावज़ूद भी जारी है। नयी सदी के भारत गढ़ने के लिये जनहित के नाम पर शुरू की गयी विकास - योजनाओं की तमाम सदाशयताओं के साथ ही जल जंगल और जमीन के अधिग्रहणों का जो दौर आया, उसमें आदिवासी समाज, लगभग नेपथ्य में धकेल दिया गया। भारत में उत्खनन, औद्योगीकरण और वृहत परियोजनाओं का अवांछित परिणाम हुआ कि करोड़ों आदिवासी और वनाश्रित लोगों को हमेशा के लिये उजाड़-उखाड़ दिया गया। इसीलिये वनाधिकार कानून जैसे कवच की जरूरत थी जो जारी ऐतिहासिक अन्यायों और आदिवासी / वनाश्रित समाज के मध्य सुरक्षात्मक दीवार बन सके।
ऐतिहासिक अन्याय के प्रमाणों और परिणामों के तर्कों के साथ लाये गये अब तक के सबसे क्रांतिकारी वनाधिकार कानून (2006) का प्रथम लक्ष्य, आदिवासी और वनाश्रित समाज के उन लिखित-अलिखित अधिकारों की पुनर्स्थापना और मान्यता थी, जिसके बिना देश के प्रथम समुदाय के न्याय, अस्मिता और सम्मान का मार्ग प्रशस्त होना संभव ही नहीं था। वास्तव में ऐतिहासिक अन्याय के दृष्टिकोण से उन सभी कानूनों, नियमों, नीतियों और व्यवस्था को समाप्त किया जाना अपरिहार्य था जो अब तक अन्याय को पोषित करते रहे थे। लेकिन आदिवासी और वनाश्रित समाज के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित वन कानूनों और उससे जुड़े वन-तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन के अभाव में वनाधिकार कानून का क्रियान्वयन वास्तव में आज विरोधाभासों से भर गया है।
आदिवासी और वनाश्रित समाज को निर्णायक भूमिका में लाने की प्रतिबद्धता के साथ वनाधिकार क़ानून का जो प्रारूप लागू हुआ वह निःसंदेह 'अस्मिता और अधिकारों' के सवालों का सबसे सार्थक उत्तर था/है। लेकिन वनाधिकार कानून के लागू होने के बाद लगभग एक दशक से अधिक के प्रयास और परिणाम यह साबित कर रहे हैं कि समूचे तंत्र के माध्यम से पोषित जारी ऐतिहासिक अन्यायों को महज़ एक नये क़ानून भर से समूल समाप्त नहीं किया जा सकता है। वास्तविक चुनौती तो उस पूरे तंत्र से है जहां आदिवासी अस्मिता और अधिकारों को अब भी नैतिक, राजनैतिक और वैधानिक रूप से पूरी तरह आत्मसात नहीं किया गया है। यथार्थ है कि वन विभाग और मौजूदा वन कानूनों के दायरे में यदि आदिवासी समुदाय महज़ एक लाभार्थी और आवेदनकर्ता भर है तो पंचायत विभाग भी अब तक पांचवी अनुसूची के प्रावधानों को धरातल पर नहीं उतार सका है। प्रशासनिक तंत्र के लिये आदिवासी समाज जहाँ केवल एक अनुसूचित वर्ग है तो राजनैतिक बिरादरी के लिये आदिवासी अधिकारों के सवाल, महज़ उलझाये रखे जा सकने वाले चंद मुद्दे हैं। आज वनाधिकार क़ानून का आधा-अधूरा क्रियान्वयन इन विरोधाभासों का ही प्रतिबिम्ब है।
जाहिर है आदिवासी समाज को अतिक्रमणकर्ता मानने वाले असंवैधानिक प्रावधानों को समूल समाप्त किये बिना आदिवासी समाज के अस्मिता और अधिकार की स्थापना न तब संभव था और न आज है। इसीलिये जंगल को राजस्व का साधन और संसाधन मानने वाले समूचे वन-तंत्र और आदिवासी समाज के आदिवासियत के मौलिक मूल्यों बीच यह सनातन द्वन्द आज भी जारी है। वनाधिकार कानून की सीमित सफलतायें और संदिग्ध क्रियान्वयन, अब तक जारी द्वंदों का ही सार्वजनिक प्रमाण और परिणाम है।
वनाधिकार क़ानून (2006) के लागू होने के बाद विगत 12 बरसों के लेखा-जोखा से इसे समझने की कोशिश की जा सकती है। जनगणना (2011) के अनुसार भारत में कुल आदिवासी परिवारों की संख्या लगभग 2.2 करोड़ है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा जारी रिपोर्ट (2020) के अनुसार अब तक लगभग 20 लाख परिवारों को वनाधिकार प्रदान किया गया है। अर्थात विगत 12 बरसों में अब तक 10 फ़ीसदी से भी कम आदिवासी परिवारों को वनाधिकार दिया गया है। आदिवासी मामलों के मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा 2 जुलाई 2020 को जारी एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अब तक लगभग 12 लाख प्रकरणों का निरस्तीकरण हुआ है। इन सरकारी रिपोर्टों का सारांश यह है कि लगभग 80 फ़ीसदी आदिवासी परिवार अब भी अपने अस्मिता और अधिकार के लिये आवेदकों के कतार में बेबस प्रतीक्षारत खड़े हैं।
एक समसामयिक सवाल यह हो सकता है कि क्या वन विभाग के बिना, जंगल और आदिवासी समाज दोनों संपन्न रह सकते हैं? यदि बहुमत इसके पक्ष में है, तो आज फिर ऐतिहासिक न्याय की स्थापना लिये जंगल-जमीन के पूरे नये लोकतंत्र की जरूरत होगी। किन्तु लोकतांत्रिक राज्य का इसके पक्ष में न होने का संभावित परिणाम उन सभी संघर्षों की नये सिरे से शुरुआत होगी जिसे वनाधिकार कानून (2006) के बाद आदिवासी तथा वनाश्रित समाज के न्याय और विकास के लिये संधि मान लिया गया था। आदिवासी और वनाश्रित समाज समाज आज किसी स्पष्ट उत्तर की प्रतीक्षा में है।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)