वन्य जीव एवं जैव विविधता

सावधान! जंगलों का होता विनाश वातावरण में उत्सर्जित कर रहा है सालाना 217 मेगाग्राम पारा

आंकड़ों के मुताबिक इंसानों द्वारा किया जा रहा पारे का उत्सर्जन बढ़कर 2,220 टन पर पहुंच गया है, जो 2010 की तुलना में करीब 20 फीसदी ज्यादा है

Lalit Maurya

दुनिया भर में काटे जा रहे जंगलों की वजह से हर साल करीब 217 मेगाग्राम पारा वातवरण में मुक्त हो रहा है। यह आंकड़ा कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया में हर साल इंसानों द्वारा जितना पारा उत्सर्जित किया जाता है, यह इसका 10 फीसदी है। जो न केवल इंसानी स्वास्थ्य बल्कि पर्यावरण के लिए भी एक बड़ा खतरा है।

यह जानकारी मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के नेतृत्व में अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं द्वारा किए नए अध्ययन में सामने आई है, जिसके नतीजे आठ फरवरी 2024 को जर्नल एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। बता दें कि मर्करी यानी पारा एक न्यूरोटॉक्सिन है, जिसकी बहुत थोड़ी मात्रा भी स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती है।

देखा जाए तो पिछले कुछ दशकों में वैज्ञानिकों का ध्यान काटे जा रहे जंगलों की वजह से पर्यावरण में मुक्त हो रही कार्बन डाइऑक्साइड पर केंद्रित रहा है। लेकिन पारा जिसकी तुलनात्मक रूप से कम मात्रा वातावरण में मौजूद है, उसपर उतना ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन इस रिसर्च से पता चला है कि वनों का होता विनाश भी बड़ी मात्रा में पारे के होते उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार है।

दुनिया भर में मौजूद पेड़-पौधे और वनस्पतियां जैसे अमेजन के वर्षावन और अफ्रीकी सवाना, पारा जैसे जहरीले प्रदूषकों को अवशोषित करके हवा को साफ करने में मदद करते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि जिस तरह से इन जंगलों का विनाश किया जा रहा है वो दर जाती रहती है या पहले से तेज हो जाती है तो पारा उत्सर्जन अवशोषित होने के बजाय बढ़ता रहेगा।

वन विनाश पर न लगाई लगाम तो बढ़ जाएगा पारा का जहर 

रिसर्च से पता चला है कि अमेजन वर्षावन पारे को अवशोषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जो भूमि पर अवशोषित किए जा रहे पारे में करीब 30 फीसदी का योगदान देते हैं। ऐसे में यदि इन जंगलों को काटने से बचाया जाए तो यह पारे से हो रहे प्रदूषण को कम करने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं।

वैज्ञानिकों ने यह भी चेताया है कि यदि अमेजन वर्षा वनों में जंगलों का होता विनाश मौजूदा दर से जारी रहता है तो 2050 तक इस क्षेत्र में होता पारे का शुद्ध उत्सर्जन बढ़कर सालाना 153 मेगाग्राम तक पहुंच जाएगा।

बता दें कि कार्बन डाइऑक्साइड की तरह ही पेड़-पौधों की पत्तियां वातावरण से पारे को अवशोषित करती हैं, लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत, पारा पौधों के विकास के लिए आवश्यक नहीं होता। ऐसे में आमतौर पर यह पत्तियों में तब तक बना रहता है जब तक वो जमीन पर नहीं गिरती, जहां मिट्टी इसे अवशोषित कर लेती है।

वहीं पानी में मिलने के बाद पारा लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी समस्या बन जाता है, जहां सूक्ष्म जीव इसे मिथाइलमेरकरी में बदल देते हैं, जो एक न्यूरोटॉक्सिन होता है। जब मछलियां इस मिथाइलमरकरी का सेवन करती हैं तो यह इनके जरिए लोगों के शरीर में पहुंच सकता है।

स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है पारा

पारा के बारे में बता दें कि यह प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एक तत्व है, जो हवा, पानी और मिट्टी में पाया जाता है। हालांकि इसके संपर्क में आने से स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है। यह पाचन, तंत्रिका तंत्र, फेफड़ों, गुर्दे, त्वचा और प्रतिरक्षा प्रणाली पर बुरा असर डाल सकता है। इतना ही नहीं इसका संपर्क गर्भस्थ शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास को भी प्रभावित कर सकता है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 2015 में इंसानों द्वारा किया जा रहा पारे का उत्सर्जन बढ़कर 2,220 टन पर पहुंच गया था। जो 2010 की तुलना में करीब 20 फीसदी ज्यादा है।

जर्नल पनास नेक्सस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार हर साल करीब 1,833.3 मेगाग्राम पारे का उत्सर्जन हो रहा है। इसमें से अधिकांश उत्सर्जन गैर-लौह धातुओं को गलाने और पिघलाने से जुड़ा है। इस अध्ययन के मुताबिक पारे के कुल वैश्विक उत्सर्जन का करीब 47.1 फीसदी हिस्सा यानी 864.2 मेगाग्राम इसके अंतराष्ट्रीय व्यापार से जुड़ा है।

वहीं यदि देशों द्वारा उत्सर्जित किए जा रहे पारे की मात्रा को देखें तो चीन हर साल करीब 546.1 मेगाग्राम पारा उत्सर्जित कर रहा है। इसके बाद उप-सहारा अफ्रीका 291.8 मेगाग्राम और दक्षिण अमेरिका 291.3 मेगाग्राम पारे के उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार है।

बता दें कि इससे पहले भी पारे को लेकर कई अध्ययन किए गए हैं लेकिन ज्यादातर मामलों में जीवाश्म ईंधन दहन, सोने के खनन, और धातुओं को गलाने के लिए पारे का होता इस्तेमाल जैसे औद्योगिक स्रोतों पर ही ध्यान केंद्रित किया गया है।

गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर पारे के हानिकारक प्रभावों को देखते हुए 2013 में इसकी रोकथाम के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संधि की गई थी, जिसे मिनामाता कन्वेंशन के नाम से जाना जाता है। यह संधि देशों द्वारा किए जा रहे पारे के उत्सर्जन को कम करने का आह्वान करती है।

भारत ने भी 2018 में इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे। अब तक 141 देश इस संधि को अपना चुके हैं। हालांकि इसके बावजूद अभी भी दुनिया में बड़े पैमाने पर पारे का उपयोग जारी है, जो इसके बढ़ते प्रदूषण की वजह बन रहा है। आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एजेंसी ने 2018 में 22 देशों के 300 से ज्यादा उत्पादों में पारे की जांच की थी। इस जांच में कई उत्पादों में सीमा से 10 गुणा तक ज्यादा पारे के इस्तेमाल की बात सामने आई थी। वहीं एक अन्य अध्ययन में भारत में भी क्रीमों में इसके मिलने की बात सामने आई थी। टॉक्सिक लिंक द्वारा भारत से लिए नमूनों में मर्करी का स्तर 48 पीपीएम से 113,000 पीपीएम तक मिला था।

शोधकर्ताओं के मुताबिक यदि वैश्विक स्तर पर वनों की बहाली पर ध्यान दिया जाए तो वातावरण से अवशोषित किए जा रहे पारे की मात्रा में पांच फीसदी की वृद्धि की जा सकती है।

ऐसे में यह जंगल जो हमारे लिए अनगिनत तरीकों से फायदेमंद हैं वो पारे के बढ़ते प्रदूषण से निजात दिलाने में भी मददगार साबित हो सकते हैं। सही नीतियां इनके विनाश को रोक सकती हैं। जो न केवल हमारे आज बल्कि आने वाली नस्लों को बेहतर भविष्य देने में मददगार होगा।