भारत सरकार में पहली बार एक नया मंत्रालय अस्तित्व में आया है। इसका नाम है को-ऑपरेशन मंत्रालय यानी सहकारिता मंत्रालय जिसका शाब्दिक अर्थ है दो और दो से ज़्यादा मंत्रालयों के बीच समन्वय स्थापित करना। 43 नए मंत्रियों के शपथ समारोह के बाद जब विभागों का बंटवारा हुआ तो इस मंत्रालय का जिम्मा मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह को मिला।
इस मंत्रालय के गठन और इसकी आधिकारिक घोषणा से कुछ घंटों पहले ही इस मंत्रालय की उपयोगिता का एक नमूना वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय के सभागार में देखने को मिला। इस आयोजन को हम इस नए मंत्रालय की उपयोगिता के नज़रिये से एक तरह का ट्रायल रन कह सकते हैं। इस सभागार में 6 जुलाई 2021 को दो मंत्रालयों क्रमश: वन,पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय और जनजाति कार्य मंत्रालय के बीच वन अधिकार कानून के बेहतर और द्रुत गति से क्रियान्वयन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक संयुक्त आयोजन हुआ।
इस आयोजन को संयुक्त सम्प्रेषण हस्ताक्षर अनुष्ठान कहा गया। इस आयोजन कई और बातों के अलावा एक बात बेहद चौंकाने वाली थी और वो ये कि अंतर-मंत्रालयीन अनुष्ठान में मंत्रियों का स्वागत अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के पदाधिकारियों ने किया।
हालांकि इसकी पूर्वपीठिका करीब 11 पहले महीने पहले 20 अगस्त 2020 को लिखी जा चुकी थी। इसकी पूर्वपीठिका तैयार करने में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक आनुषंगिक संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने लिखी थी। जिसकी मध्यस्थता में दोनों मंत्रालयों के मंत्री प्रकाश जावडेकर (वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय) और अर्जुन मुंडा (जनजाति कार्य मंत्रालय) ने अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के महामंत्री विष्णुकांत और कुबेर जी की मध्यस्थता में एक संयुक्त रूप से हस्ताक्षरित वक्तव्य जारी किया था।
इस संयुक्त बयान में हालांकि यह स्पष्ट नहीं था कि इसकी परिणति उस रूप में होगी जो 6 जुलाई 2021 को सामने आया। इस वक्तव्य को पढ़कर ऐसा लगा था कि वनवासी कल्याण आश्रम ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को सख्त नसीहतें दी हैं कि वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है और इसकी बड़ी बल्कि एकमात्र वजह वन विभाग का असहयोग और सक्रिय ढंग से इस काम में रोड़े अटकाना रहा है।
2018 में मध्य भारत (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड) में आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की कमजोर हुई राजनैतिक हैसियत की समीक्षा में भी यह बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उठाई थी कि आदिवासियों का भरोसा भाजपा से कम हुआ है। इसी समीक्षा के मद्देनजर वनवासी कल्याण आश्रम ने इन दोनों विभागों के बीच सामंजस्य बनाने की पहलकदमी की थी। और इसलिए 20 अगस्त 2020 तक वन एवं पर्यावरण मंत्री यह स्वीकार करते हुए दिखलाई पड़ते हैं कि उनका मंत्रालय जंजाती कार्य मंत्रालय के निर्देशन पर हर संभाव सहयोग करने तैयार है। पत्र के बिन्दु क्रमांक 2 में लिखा गया है कि – ‘वनधिकार कानून के तहत जो नियम एवं गाइडलाइंस बनाए गए हैं, वन मंत्रालय द्वारा उनका अक्षरश: पालन हो’। बिन्दु क्रमांक 3 में लिखा गया है कि – ‘इसे सुनिश्चित करने हेतु वन मंत्रालय सभी राज्यों को संसूचित करेगा कि इस कानून के अंतर्गत बने नियमों एवं गाइडलाइंस का पूरा पालन किया जाए’।
यहाँ तक ज़ाहिर होता है कि वनधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए जो भी नियम कायदे, गाइडलाइंस आदि जनजाति कार्य मंत्रालय ने बनाए हैं उनका पालन वन मंत्रालय द्वारा सुनिश्चित कराया जाएगा। इसका सीधा अर्थ यह है कि 10 अगस्त 2020 तक वन एवं पर्यावरण मंत्रालय यह मान रहा था कि जनजाति कार्य मंत्रालय इस कानून के क्रियान्वयन के लिए एक नोडल एजेंसी है और जिसके निर्देशन पर इसे काम करना है।
इस समय तक भी यह एक सकारात्मक कदम दिखलाई पड़ रहा था हालांकि वनवासी कल्याण आश्रम की मौजूदगी और उसकी मध्यस्थता और पहलकदमी पर ऐसा सहकार पैदा किया जाना इस पूरे घटनाक्रम को संदिग्ध तो बना ही दे रहा था। लेकिन इस संयुक्त वक्तव्य में ऐसा असहमति जताने जैसा भी कुछ खास नहीं था। वनवासी कल्याण आश्रम की मौजूदगी इस सरकार के लिए वायु दबाव जैसा है जो है, सभी को पता है और यह भी पता है कि ये वायु दबाव ही वह गुरुत्वाकर्षण बल है जिसके बूते इस सरकार का वजूद है। बहरहाल।
इस वक्तव्य के बिन्दु क्रमांक 4 में लिखा है कि- ‘दोनों मंत्रालयों के मंत्री अपने अपने मंत्रालयों के अधिकारियों से की त्रैमासिक बैठकों के माध्यम से चर्चा करेंगे और इसका (वक्तव्य) का अनुपालन सुनिश्चित करेंगे’। और इस तरह इस वक्तव्य का अनुपालन का सुनिश्चित हुआ और अंतत: 6 जुलाई 2021 को वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय के मुख्य सचिव आर. पी. गुप्ता और जनजाति कार्य मंत्रालय के मुख्य सचिव अनिल कुमार झा के संयुक्त हस्ताक्षर से एक आधिकारिक करारनामा सामने आया।
यह क़रारनामा राज्यों के मुख्य सचिवों को संबोधित है। यानी जिस मामले में अब तक केवल जनजाति कार्य मंत्रालय राज्यों से सम्प्रेषण कर सकता था, अब वह संयुक्त रूप से किया जा रहा है। इसे हम इस पूरी कवायद को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जनजाति कार्य मंत्रालय की तमाम शक्तियों के आधिकारिक अधिग्रहण के रूप में देख सकते हैं।
यहाँ यह बात ध्यान रखे जाने की ज़रूरत है कि 2006 में वन अधिकार (मान्यता) कानून आने के बाद से बिजनेस रूल्स में हुए संशोधन के कारण जंगल और इससे जुड़े व्यवस्थापन को लेकर समस्त अधिकार नहीं हैं। 2006 में हुए संशोधनों के बाद से ये अधिकार आदिवासी मामलों के मंत्रालय (MoTA) के पास हैं।
वन अधिकार कानून की धारा 5 के क्रियान्वयन के लिए जो कानून के मुताबिक सम्पूर्ण रूप से ग्राम सभा के विवेकाधीन है, उसे इस करारनामे के अनुसार अब वन विभाग और जनजाति कल्याण विभाग के संयुक्त हस्तक्षेप के साथ क्रियान्वित किया जाएगा। चूंकि इसका क्रियान्वयन राज्य सरकारों को करना है अत: किसी भी विवाद की स्थिति में उनका निपटारा विधि सम्मत ढंग से राज्य के स्तर पर ही होगा।
गौरतलब है कि फरवरी 2020 में जनजाति कार्य मंत्रालय ने एन. सी. सक्सेना की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया है जिसका कार्यकाल 31 जुलाई 2021 तक है और जो समिति इसी पहलू पर ग्राम सभा को केंद्र में रखकर एक गाइडलाइंस तैयार कर रही है जिसमें वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भी एक बड़ा स्टेकहोल्डर है। इससे भी पहले एक ऐसी ही गाइडलाइंस 2015 में जनजाति कार्य मंत्रालय ने तैयार की थी जिसे लेकर वन, पर्यावरण मंत्रालय ने आपत्तियाँ दर्ज़ की थीं।
इस करारनामे के बिन्दु 4 में स्पष्ट रूप से जनजाति कार्य मंत्रालय से उसका नोडल एजेंसी होने की शक्तियों का बलात अधिग्रहण किया गया है। इसमें लिखा गया है कि यदि कोई ऐसा मामला आता है जिस पर स्पष्टीकरण की ज़रूरत है और जिसके बिना कानून के क्रियान्वयन पर असर पड़ता है तब ऐसी सूरत में यह मामला केंद्र सरकार के संज्ञान में लाया जाएगा। जिस पर दोनों मंत्रालय संयुक्त रूप से स्पष्टीकरण या गाइडलाइंस जारी करेगा। इसी कड़ी में राज्यों के मुख्य सचिवों को कहा गया है कि अपने अपने राज्यों में कानून के क्रियावायन से जुड़े मामलों की समीक्षा करें और इसके उचित क्रियान्वयन के लिए आवश्यक दिशा निर्देशों व स्पष्टीकरणों के लिए केंद्र सरकार को सूचित करें।
कानून की धारा 3 (1) (i) यानी सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार प्रदान करने के संबंध में इस करारनामे और सम्प्रेषण पत्र में बिन्दु क्रमांक 6 में लिखा गया है कि वन विभाग का फ्रंट स्टाफ यानी जो संबन्धित अधिकारी, इस दिशा में वन अधिकार कानून के नियम 4(1) (e) व (f) के तहत गठित किसी समिति या संस्थान को वन प्रबंधन व संरक्षण योजना बनाने में सहयोग प्रदान करेगा (पढ़ें हस्तक्षेप करेगा)।
6वें बिन्दु में इस अनुष्ठान का असल प्रयोजन और मंशा लिखी गयी है। इसमें लिखा है कि – बीते तीन दशकों में संयुक्त वन प्रबंधन के तजुर्बों को वनों के संरक्षण व प्रबंधन के लिए ग्राम सभाओं के माध्यम से अपनाना चाहिए जो इस कानून के मुताबिक धारा 3(1) (i) व धारा 5 के आधार पर ग्राम सभाओं को हासिल हैं।
इस करारनामे के कुछ अन्य ज़रूरी पहलू-
इस संयुक्त करारनामे और उसके कम्यूनिकेशन के आधार पर राज्यों को निम्नलिखित काम करने को कहा जाएगा-
इस संयुक्त पत्र में यह उम्मीद भी जताई गयी है कि जब दोनों विभाग परस्पर सहयोग करेंगे तो वन विभाग और आदिवासी समुदायों, दोनों के लिए विजयी स्थिति होगी। इस अंतिम पंक्ति पर भरोसा नहीं होता क्योंकि जब जब वन विभाग विजयी हुआ है आदिवासी खेत हुआ है। बहरहाल।
इस करारनामे और संयुक्त रूप से राज्यों के मुख्य सचिवों से किए गए सम्प्रेषण के सबक केवल इतने हैं कि भारतीय की सर्वोच्च विधायी संस्था यानी संसद ने जिन आकांक्षाओं से उदारता पूर्वक आदिवासियों पर हुए ऐतिहासिक अन्यायों को स्वीकार किया था और भारतीय गणराज्य की तरफ से उन अन्यायों को दुरुस्त करने का वचन इस कानून के माध्यम से दिया था उसे इस को-ऑपरेशन की आधिकारिक कवायद में खारिज कर दिया है।
जनजाति कार्य मंत्रालय का स्वतंत्र, स्वायत्त वजूद को वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवरत्न मंत्रालय द्वारा अधिगृहीत कर लिया गया है। जनजाति कार्य मंत्रालय ने भी इस मंत्रालय की अधीनता स्वीकार कर ली है। और वन अधिकार कानून जो इस देश में सबसे वंचित तबके लिए गरिमा और स्वाभिमान का सबब बना था उसे उन्हीं नौकरशाहों के रहमो करम पर ला दिया है जिनके कारण देश की संसद को यह कहना पड़ा था कि आदिवासी समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुए हैं।
ठीक ऐसी ही एक अपरिपक्व पहल 31 मई 2020 को थी जिसमें वन विभाग को सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के लिए वन विभाग को नोडल एजेंसी बना दिया था। उन्हें अपनी भूल जल्दी समझ में आयी और गले ही रोज़ इस आदेश को वापिस ले लिया गया। लेकिन यहाँ इतने बड़े अनुष्ठान के साथ यह हुआ है और इस तरह के कई अंतरमंत्रालयीन मामलों के बीच सामंजस्य बनाने के उद्देश्य से बजाफ़्ता ‘सहकारिता मंत्रालय’ की स्थापना की जा चुकी है तब यह कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार ने भूलवश यह कदम नहीं उठाया है और इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि इसे सुधारा भी नहीं जाएगा।
चलते चलते: यह अनुष्ठान वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के दोनों मंत्रियों प्रकाश जावडेकर और बाबुल सुप्रियो के लिए बा हैसियत अंतिम अनुष्ठान साबित हुआ। आगे ऐसे करारों में खुद देश के गृह मंत्री और अब सहकारिता मंत्री बा हैसियत शिरकत करेंगे।
(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य हैं)