थार रेगिस्तान में पाई जाने वाली उपयोगी झाड़ी फोग पर संकट मंडरा रहा है। इसका वैज्ञानिक नाम केलिगोनम पॉलीगोनाइडिस है। यह थार रेगिस्तान के अतिरिक्त उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिणी यूरोप आदि स्थानों पर भी पाई जाता है। राजस्थान में फोग मरुक्षेत्र के मेवे के रूप में भी जाना जाता है। थार रेगिस्तान में फोग के फूल 'फोगला' का रायता बहुत ही प्रसिद्ध है। इस रायते के पीछे एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि फोग के फूलों के बने रायते की तासीर ठंडी होती है, जो रेगिस्तान में लू से बचाती है और शरीर में पानी की कमी नहीं होने देती है। राजस्थान के खाने में इसका अहम स्थान होने के साथ-साथ यह यहां की संस्कृति से भी विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। यहां फोग को लेकर एक कहावत भी प्रचलित है-
"फोगले रो रायतो, काचरी रो साग
बाजरी री रोटड़ी, जाग्या म्हारा भाग।"
फोग का पर्यावरण की दृष्टि से महत्व
फोग की जड़ें बहुत गहरी होती हैं, जो रेगिस्तान में धोरों को बांधने का काम करती है। इसकी पत्तियां टूट-टूट कर जमीन पर गिरती हैं और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती हैं। रेगिस्तान की विषम परिस्थितियों में उगकर यह उस क्षेत्र के पर्यावरणीय संतुलन में अहम भूमिका निभाता है। पश्चिमी राजस्थान में ऊंट बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं। अधिक तापमान और शुष्क भूमि होने के कारण यहां अधिक वनस्पतियां उपज नहीं पाती। ऐसे में फोग ऊंटों के लिए उपयुक्त चारे का काम करता है। फोग के फलों और फूलों में 18% प्रोटीन एवं 71 % से अधिक कार्बोहाइड्रेट की मात्रा पाई जाती है, जो ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। फोग का पौधा अत्यंत सूखे और पाले दोनों ही परिस्थितियों में जीवित रह सकता है, इसकी यही खासियत ही इससे थार के अनुकूल बनाती है। पर्यावरणीय दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण होने के बाद भी राजस्थान में धीरे-धीरे फोग की झाड़ियां लगातार खत्म होती जा रही है। फोग की लगातार कम होती संख्या के कारण आईयूसीएन ने इसे रेड डाटा बुक के संकटग्रस्त पादप की सूची में शामिल कर रखा है।
क्यों घट रहे हैं
फोग की जड़े ईधन और कोयले की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसलिए इसकी जड़ों का अधिक दोहन किया जा रहा है। राजस्थान में लोहारों द्वारा सदियों से फोग जड़ों से बने कोयले का उपयोग किया जाता है। इंदिरा गांधी नहर बनने के बाद पश्चिमी राजस्थान में कृषि गतिविधियों में तेजी से विस्तार हुआ। इसके कारण गलत तरीकों से जमीन तैयार की जाने लगी। इसका असर फोग पर भी पड़ा और इसकी मात्रा रेगिस्तान में लगातार घटने लगी। फोग की झाड़ी बहुत धीमी गति से बढ़ती है। एक झाड़ी तैयार होने में 7 से 8 वर्ष का समय लगता है, अतः जिस गति से फोग खत्म हो रहा है उस गति से वह उठ नहीं पा रहा है। विलायती बबूल ने भी थार रेगिस्तान की जैवविविधता को भी काफी हद तक प्रभावित किया है, इसका असर भी निश्चित तौर पर फोग पर पड़ा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर सीआर बाबू के अनुसार, "विलायती बबूल भारत में आने के बाद से अब तक देशी पेड़-पौधों की 500 प्रजातियों को खत्म कर चुका है।" विलायती बबूल के माध्यम से उत्पन्न संकट को समझते हुए नियमित तौर पर उरमूल सीमांत समिति, बज्जू में भी विलायती बबूल को बढ़ने से लगातार रोका जा रहा है।
फोग को बचाने का उपाय
मरुक्षेत्र में फोग के पर्यावरणीय एवं औषधीय मूल्यों को समझते हुए इसका संरक्षण बेहद आवश्यक है। फोग को बचाने के लिए सर्वप्रथम थार रेगिस्तान के किसानों को खेती के गलत तरीकों से बचना होगा। उन्हें यह समझाना होगा कि खेती की जमीन तैयार करने के लिए फोग के पौधे को खत्म करना कितना गलत है। फोग के ईंधन के रूप में अत्यधिक दोहन को कम करने की आवश्यकता है। इसका वैकल्पिक स्रोत विलायती बबूल है। इस प्रकार, हम फोग का संरक्षण तो करेंगे ही इसके साथ ही थार की जैवविविधता के लिए संकट विलायती बबूल को भी खत्म करने में भी सहायता मिलेगी।
(साथ में सूरज सिंह)