वन्य जीव एवं जैव विविधता

वन्य जीव कानून में खामियां, शामिल नहीं हैं कई जीवों की प्रजातियां

Ishan Kukreti

25 जुलाई, 2016 को केरल के पथानमथिट्टा जिले के वन विभाग ने जॉर्ज कुरियन से एक कछुआ बरामद किया। जांच में पता चला कि वह कछुआ इंडियन फ्लैपशेल प्रजाति का है, जिसका वैज्ञानिक नाम लिसेमिस पंक्टाटा है। जिला अदालत ने कछुए को अगले दिन मुक्त करने का आदेश दिया और वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत कुरियन को आरोपी बनाया गया। लेकिन, इस कानून में लिसेमिस पंक्टाटा का सामान्य नाम भारतीय सॉफ्टशेल कछुए के तौर पर गलत तरीके से सूचीबद्ध किया गया है।

कुरियन ने केरल हाई कोर्ट में आरोपों को इस आधार पर चुनौती दी कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची में भारतीय फ्लैपशेल कछुए का उल्लेख ही नहीं है, इसलिए उसके खिलाफ आरोपों को रद्द किया जाना चाहिए। 16 मार्च, 2018 को कोर्ट ने कुरियन के खिलाफ आरोपों को खारिज कर दिया। इसके बाद केरल वन विभाग ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 9 दिसंबर, 2020 को सुप्रीम कोर्ट भी उसी निष्कर्ष पर पहुंचा। शीर्ष अदालत ने कहा, “तथ्यों को देखते हुए पहली नजर में लगता है कि जब्त किए गए कछुए को अनुसूची-I के भाग-II में शामिल नहीं किया गया है।”

वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची में सूचीबद्ध प्रजातियों के नामों पर भ्रम इसलिए होता है, क्योंकि वैज्ञानिक और सामान्य नामों को कभी अपडेट नहीं किया गया। इस अधिनियम में प्रजातियों को उनकी नामावली के आधार पर अधिकतम सुरक्षा (अनुसूची-I) से न्यूनतम सुरक्षा (अनुसूची-IV) तक चार अनुसूचियों में सूचीबद्ध किया गया है।

बेंगलुरु स्थित शोध संस्थान सेंटर फॉर बायोडायवर्सिटी एंड कंजर्वेशन, अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के शोधार्थी अरविंद मध्यस्थ कहते हैं, “कनार्टक में किसी प्रजाति का सामान्य नाम कुछ और होगा और उत्तर प्रदेश में उसे किसी और नाम से पुकारा जाता होगा। इसीलिए वैज्ञानिक नामों को अधिक स्थिर माना जाता है।” यही नहीं, जब भी प्रजातियों के बारे में नई जानकारी सामने आती है, तब वैज्ञानिक नामों में भी बदलाव किया जाता है।

हालांकि, 1972 में लागू होने के बाद से वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के तहत नामों में किसी तरह का कोई संशोधन नहीं हुआ। हकीकत में प्रजातियों के नामकरण के साथ-साथ एक वर्ग के भीतर नई प्रजातियों की पहचान करने के संदर्भ में हुई विज्ञान की प्रगति भी वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में दिखाई नहीं देती।

बदलाव की जरूरत

बीते दशकों में प्रजातियों की पहचान और उनके नामकरण का विज्ञान बदल गया है। 1970 के दशक में प्रजातियों की पहचान का आधार उनकी रूपात्मक विशेषताएं थीं, जबकि अब डीएनए तकनीक के आधार पर उनकी शिनाख्त की जाती है। इसके साथ ही प्रजातियों का अध्ययन करने वाले शोधार्थियों की संख्या बढ़ने की वजह से पहचान और नामकरण की प्रक्रिया काफी कठिन हो गई है।

वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में कई बार संशोधन किए जा चुके हैं, लेकिन उनमें से किसी में भी वैज्ञानिक नामों पर ध्यान नहीं दिया गया। सीएसआईआर-सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्युलर बायोलॉजी, नई दिल्ली के सीनियर प्रिंसिपल साइंटिस्ट और हर्पिटोलॉजिस्ट कार्तिकेयन वासुदेवन कहते हैं, “मैं पर्यावरण, वन मंत्रालय एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ओर से स्थापित वनस्पति व पशु समितियों का हिस्सा रहा हूं और कई बार वैज्ञानिक नामों को अपडेट करने के मुद्दे को उठाया, लेकिन उस पर कभी अमल नहीं हुआ।” वासुदेवन कहते हैं कि प्रजातियों के नामकरण की प्रचलित व्यवस्था द्विपद है यानी दो हिस्सों वाले लैटिन नाम में वर्ग और प्रजाति शामिल होती है। वह कहते हैं, “मुझे नहीं पता कि अनुसूची में अंग्रेजी नाम क्यों भरे पड़े हैं, जबकि उनमें से कई अंग्रेजी नाम तो वहां बोले भी नहीं जाते जहां प्रजातियां पाई जाती हैं।”

नई प्रजातियां

मध्यस्थ कहते हैं, “हमने हाल के वर्षों में बहुत वैज्ञानिक प्रगति देखी है। डीएनए साक्ष्यों और आणविक विश्लेषण के जरिए हासिल हुई जानकारियों की वजह से न सिर्फ नई प्रजातियों की खोज संभव हो सकी है, बल्कि मौजूदा प्रजातियों के नामों में संशोधन भी किया गया है। विज्ञान के साथ कदमताल कर पाने में असफलता का मतलब है कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में अनुसूचित प्रजातियां भारत में नहीं पाई जाती हैं। जबकि, अब भी देश में कई ऐसी प्रजातियां मौजूद हैं, जिनका अनुसूची में कोई उल्लेख तक नहीं किया गया है।

लोरिस एक ऐसी ही प्रजाति है। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम की अनुसूची-I में इस छोटी-सी रात्रिचर स्ट्रेप्सिराइन प्राइमेट का वैज्ञानिक नाम लोरिस टार्डिग्रेडस लिखा है। हालांकि, जब पता चला कि लोरिस टार्डिग्रेडस एक अलग प्रजाति है, तब 1988 में इसका वैज्ञानिक नाम संशोधित कर दिया गया था। यह रेड स्लेंडर लोरिस श्रीलंका तक ही सीमित है। वहीं, भारत में पाई जाने वाली लोरिस का वैज्ञानिक नाम संशोधित करके लोरिस लिडेकेरिएनस रख दिया गया था। इस तरह, भारत में पाई जाने वाली प्रजाति अनुसूची में शामिल नहीं है।

कैसे रखते हैं प्रजाति का नाम

  • शोधार्थी एक संभावित नई प्रजाति की खोज करता है
  • शोधार्थी उस प्रजाति का वर्णन और उसकी पहचान करता है
  • वह नई प्रजाति का वर्णन करते हुए शोध पत्र लिखता है
  • जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जेडएसआई) या बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) को नमूना भेजा जाता है
  • जेडएसआई/बीएनएचएस उस नमूने के लिए एक नंबर जारी करता है
  • नमूना और स्टडी इंटरनैशनल कमिशन ऑन जूलॉजिकल नोमेनक्लेचर (आईसीजेडएन) या इंटरनैशनल कोड ऑफ बोटैनिकल नोमेनक्लेचर (आईसीबीएन) के पास भेजे जाते हैं
  • अगर प्रजाति दूसरों से अलग पाई जाती है, तो उसे आईसीजेडएन/आईसीबीएन के डेटाबेस में शामिल कर लिया जाता है

इसी तरह, अधिनियम की अनुसूची-I में माउस डियर का उल्लेख ट्रागुलस मेमिना के तौर पर किया गया है। 2005 तक यह अपने वर्ग की इकलौती प्रजाति मानी जाती थी। तब पता चला कि ट्रागुलस मेमिना श्रीलंका की स्थानीय प्रजाति है। फिर भारत में पाई जाने वाली प्रजाति का नाम बदलकर मोशियोला इंडिका रख दिया गया। यह भारतीय प्रजाति भी वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में सूचीबद्ध नहीं है।

इसके अतिरिक्त वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में कुछ प्रजातियों जैसे कि कछुए (टेस्टुडिनिडे, ट्रायोनिकिडे) के पूरे वर्ग को ही अनुसूची IV में सूचीबद्ध किया गया है। पशु कल्याण संगठन ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल के सुमंत बिंदुमाधव कहते हैं, “यह स्टार कछुए जैसी प्रजातियों के लिए बहुत ही गलत है, जो बड़े पैमाने पर व्यापार की बलि चढ़ाए जा रहे हैं। हर साल कई हजार कछुओं का कारोबार किया जाता है। लेकिन, अनुसूची IV में शामिल होने की वजह से उन्हें न के बराबर ही संरक्षण मिल पा रहा है, जबकि अधिनियम के तहत और अधिक सुरक्षा प्रदान करने की जरूरत है।”

यही नहीं, एक वर्ग के भीतर नई प्रजातियों की खोज भी की गई है, लेकिन वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में उनका कोई उल्लेख ही नहीं है। बिंदुमाधव कहते हैं कि यह खासकर छोटे वन्यजीवों जैसे छिपकली, मेंढक, पक्षियों और विभिन्न कीड़ों के मामले में सच है, क्योंकि स्तनधारियों के मामले में अब बड़ी खोजों की गुंजाइश काफी कम बची है। वह कहते हैं, “निमास्पिस वर्ग या गेकोएला वर्ग के तहत परिभाषित की गईं नई छिपकलियों को अधिनियम में स्थान नहीं मिल सका है। वे भारत में खोजी गई हैं और यहां की स्थानीय प्रजातियां हैं, इसलिए उन्हें संरक्षण दिया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो पूर्वोत्तर भारत की टोकाय गेको की तरह ही पशु व्यापारियों का शिकार हो जाएंगी।”

अधिनियम की अनुसूचियों में वर्गीकरण की इस कमी ने वन्यजीव संरक्षण के लिए परेशानियां पैदा कर दी हैं और आपराधिक न्याय व्यवस्था की धुंधली तस्वीर बना दी है। बिंदुमाधव कहते हैं, “जब प्रवर्तन एजेंसियों को पता चलता है कि कोई कानून में प्रजाति सूचीबद्ध नहीं है या फिर किसी और नाम से अनुसूची में दर्ज है, तो वे डर जाते हैं कि उन पर गलत तरीके से जब्ती का मुकदमा न कर दिया जाए।” वन्यजीव व्यापार निगरानी समूह ट्रैफिक इंडिया के प्रमुख साकेत बडोला कहते हैं, “बहुत बार स्थानीय वन कर्मचारी किसी प्रजाति को उसके प्रचलित नाम से ही दर्ज कर लेते हैं, लेकिन फिर इसे अदालत में साबित करना बहुत मुश्किल हो जाता है।”

नेशनल रेड लिस्ट

वैज्ञानिक नामों को बदलने की तत्काल आवश्यकता है, लेकिन यह भी गौरतलब है कि वैज्ञानिक खोजों और बदलाव की जो तेज रफ्तार बनी हुई है, उसकी वजह से इस कानून में संशोधन करना बहुत मुश्किल है। बडोला कहते हैं, “हमें डायनैमिक साइंटिफिक फील्ड में हो रहे बदलावों को सम्मिलित करने के लिए एक व्यवस्थित समाधान की जरूरत है।”

विशेषज्ञों के अनुसार, इस अधिनियम के लिए यह अलग तरह की समस्या है, क्योंकि यह एक अकेला अधिनियम है, जिसके एक छोर पर कानून है, तो दूसरे छोर पर नित नए खोजों के साथ विकसित होता विज्ञान खड़ा है। वासुदेवन कहते हैं, “सरकार को इस अधिनियम के कानूनी हिस्से को विज्ञान से अलग रखना चाहिए।” इस कानून की अनुमतियों, अपराधों और शक्तियों से निपटने वाली शाखा को अधिनियम में बनाए रखना चाहिए और अनुसूचियों को अलग कर उसे प्रजातियों की नेशनल रेड लिस्ट में बदल देना चाहिए।

वह आगे कहते हैं, “अधिनियम में अनुसूचियों का उल्लेख किया जा सकता है, लेकिन इनमें दर्ज प्रजातियों को एक ऐसे जीवंत वैज्ञानिक दस्तावेज के तौर पर सूचीबद्ध किया जाना चाहिए, जहां हर बार कानून में बदलाव किए बिना विशेषज्ञ संशोधन और अपडेट कर पाएं।” अब वक्त आ गया है कि हम इस प्रक्रिया की देखरेख के लिए एक नैशनल रेड लिस्ट अथॉरिटी के निर्माण के बारे मे विचार करें।