हिमालयी राज्य उत्तराखंड में टिहरी जिले के देवलसारी क्षेत्र में 28 वर्षीय अरुण गौड़ इकोटूरिज्म के ज़रिये अपने और अपने गांव के लोगों के लिए आजीविका हासिल कर रहे हैं। साथ ही, ये ग्रामीण अपने क्षेत्र की वन संपदा के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
''पर्यटक यहां हिमालयी पक्षियों की चहचहाहट सुनने के लिए आ रहे हैं। वे हमें घने जंगलों में ट्रैकिंग के लिए भुगतान कर रहे हैं। हम पक्षियों और तितलियों का त्योहार मना रहे हैं। इससे ग्रामीणों को रोजगार मिल रहा है। इसलिए वे भी अब इन पक्षियों, जंगलों और हिमालय को बचाने के लिए आगे आ रहे हैं''। अरुण अपने अनुभव से बताते हैं।
अरुण एक इकोप्रिन्योर यानी इको-उद्यमी हैं। ये उद्यमियों का एक नया वर्ग है, जो प्रकृति-आधारित आजीविका के ज़रिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हैं और जिनका कार्बन फुटप्रिंट बेहद कम होता है। इकोप्रिन्योर के लिए उत्तराखंड में अच्छी संभावनाएं हैं। प्रकृति आधारित रोजगार के अवसर तैयार करने के लिए अक्टूबर 2021 में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक लाख इकोप्रिन्योर तैयार करने की घोषणा की।
इसका उद्देश्य पर्वतीय क्षेत्रों में युवाओं के लिए रोजगार के इको-फ्रेंडली अवसर तैयार करना है। दुर्गम भौगोलिक क्षेत्र में रोजगार के सीमित अवसर के चलते पलायन एक बड़ी समस्या है। हालांकि कुछ विशेषज्ञ इस कार्यक्रम की प्रक्रिया के साथ-साथ एक लाख के आंकड़े पर सवाल उठाते हैं, जो राज्य की आबादी का लगभग 1% है।
इको-संभावना
उत्तराखंड में 34,650 वर्ग किलोमीटर जंगल है, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 64.8% है। छह राष्ट्रीय उद्यान, सात वन्यजीव अभयारण्य और चार संरक्षण रिजर्व के साथ, बाघों की संख्या के मामले में देश में दूसरे नंबर पर है। यहां अत्यधिक लुप्तप्राय प्रजातियां जैसे हिम तेंदुआ, कस्तूरी मृग, हाथी और किंगकोबरा भी मौजूद हैं। कुल मिलाकर 102 स्तनपायी प्रजातियां, 710 पक्षी, 124 मछलियां, 69 सरीसृप और 19 उभयचर जीवों की मौजूदगी है। यहां की जैव विविधता, जंगल, पर्वत चोटियां, नदियां और बुग्याल स्थानीय युवाओं के लिए अवसर प्रदान करते हैं।
इन अवसर को समझते हुए अरुण गौड़ ने वर्ष 2016 में टिहरी के देवलसारी क्षेत्र में देवदार इकोटूरिज्म सेंटर शुरू किया। वे यहां के 5 गांवों के सिविल वन में पर्यटन से जुड़ी गतिविधियां चलाते हैं।
गौड़ कहते हैं “अभी हमारे राज्य में मसूरी-नैनीताल जैसे मशहूर पर्यटन नगरी में अनियंत्रित पर्यटक आते हैं। जिसका असर वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर भी पड़ता है। हमारी कोशिश है कि हम ‘जिम्मेदार पर्यटन’ को आगे बढ़ाएं। हमने देवलसारी की जैव-विविधता से पर्यटकों को जोड़ा है और गांववालों को रोजगार दिया है”।
“हमारे सेंटर पर आने वाले पर्यटकों को हम गांव का भोजन परोसते हैं। गांव के खेतों से निकली राजमा, दालें, चावल, दूध, दही, पनीर का इस्तेमाल करते हैं। गांव का ही व्यक्ति पर्यटक के लिए भोजन बनाता है। गांव के युवा नेचर गाइड का काम करते हैं। पर्यटक को ट्रैकिंग के लिए ले जाते हैं। जरूरत पड़ने पर गांव के घोड़े-खच्चर या टैक्सी ली जाती है। इस तरह उन्हें रोजगार मिलता है”।
देवलसारी में पर्यटन को लेकर कार्य कर रहे स्थानीय युवा यहां की जैव-विविधता की सूची भी तैयार कर रहे हैं। यहां चिड़ियों की 210, तितलियों की 180 और पतंगों की 250 प्रजातियां रिकॉर्ड की जा चुकी हैं।
1722 मीटर की ऊंचाई पर बसा देवलसारी में देवदार के घने पेड़ों का जंगल है। तेंदुए और काले भालू सहित वन्यजीवों की समृद्ध संसार है। स्थानीय विशेषज्ञ बर्डवॉचर, नेचर गाइड और देवदार इकोटूरिज्म के बोर्ड सदस्य केसर सिंह का कहना है कि उन्होंने वहां के जंगलों में 210 पक्षी प्रजातियों की पहचान की है।
"यहां तितलियों की 180 प्रजातियां और पतंगों की लगभग 250 प्रजातियां हैं। टोनी रजा (Tawny Rajah) तितली उत्तराखंड में हमें पहली बार दिखाई दी। इस क्षेत्र में 125 साल बाद दुर्लभ दिन में उड़ने वाला पतंगा (Achelura Bifasciatawas) दर्ज किया गया।” वह कहते हैं कि वन विभाग को भी इस जैव-विविधता की जानकरी नहीं थी।
देवलसारी में दुर्लभ चिड़ियों और तितलियों की मौजूदगी को देखते हुए स्थानीय लोगों ने वन विभाग से इसे जैव-विविधता हैरिटेज साइट घोषित करने की मांग की। अरुण गौड़ ने जनवरी 2021 में स्थानीय ग्राम पंचायतों की ओर से वन विभाग को इसके लिए पत्र लिखा।
“इको-टूरिज्म में प्रकृति प्रेमियों के लिए रोजगार के अवसर तो हैं ही, यह प्रकृति के लिए भी संरक्षण की भावना पैदा करता है”। अरुण गौड़ के भाई और नेचर गाइड हरीश गौड़ बताते हैं “जंगली मुर्गे (कलिज पीजेंट), जंगली कबूतर, हिरन, सांभर जैसे वन्यजीवों का शिकार लोग भोजन के लिए करते थे। कुछ साल पहले तक ये जीव जंगल में दिखने बंद हो गए थे। लेकिन जब हमारे जंगल और वन्यजीवों को देखने के लिए पर्यटक आने लगे तो गांववालों में भी संरक्षण की भावना आई। शिकार बहुत कम हो गया”।
हरीश कहते हैं “जंगल में आग लगती थी तो किसी को परवाह नहीं होती थी। लेकिन अब गांववाले आग बुझाने के लिए दौड़ते हैं"।
एक लाख इकोप्रिन्योर, बड़ा आंकड़ा!
अरुण और हरीश जैसे इकोप्रिन्योर हिमालयी क्षेत्र में तेज़ी से बढ़ते पर्यटन से आजीविका हासिल कर रहे हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में 2018 में करीब 27 मिलियन पर्यटक आए। वर्ष 2025 तक ये संख्या 65 मिलियन होने का अनुमान है। जो राज्य की आबादी (तकरीबन 11.4 मिलियन) से बहुत अधिक है। वर्ष 2010 से 2015 तक सकल राज्य घरेलू उत्पाद में पर्यटन (व्यापार, होटल और रेस्तरां सहित) की हिस्सेदारी 20% से अधिक रही है। राज्य सरकार को उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में पर्यटन अर्थव्यवस्था में अधिक योगदान देगा।
पर्यटकों की इस बढ़ती संख्या को देखते हुए ही अक्टूबर 2021 में मुख्यमंत्री ने इकोप्रेन्योरशिप कार्यक्रम की घोषणा की। हालांकि उत्तराखंड वन विभाग पहले से ही बर्डवॉचिंग और नेचर गाइड प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर रहा था। लेकिन ये अपेक्षाकृत छोटे पैमाने पर था। एक लाख पर्यावरण उद्यमियों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य एक बड़ी चुनौती है।
राज्य के चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट (इकोटूरिज्म) पराग मधुकर धकाते बताते हैं “उत्तराखंड वन विभाग ने उत्पाद और सेवा आधारित 50 से अधिक इकोप्रिन्योरशिप से जुड़े क्षेत्रों की पहचान की है। गैर इमारती वन उत्पाद, लघु वन उत्पाद, वन्यजीव पर्यटन, होम स्टे, ड्रोन पायलट, नेचर गाइड, कुकिंग, ट्रेकिंग गाइड, प्लांट नर्सरी की स्थापना, पाइन नीडल प्रोसेसिंग आदि इसमें शामिल हैं”।
“3 वित्तीय वर्ष के दौरान एक लाख से अधिक व्यक्तियों को इकोप्रेन्योर बनाने के लिए चरणबद्ध तरीके से ट्रेनिंग दी जाएगी। मौजूदा समय में 200 से अधिक व्यक्तियों को वन विभाग के साथ नेचर गाइड, वाइल्ड लाइफ सफारी ड्राइवर, कुकिंग और हाउस कीपिंग के रूप में प्रशिक्षित किया गया है”।
वह बताते हैं “इकोप्रिन्योरशिप कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षण पाने वाले नेचर गाइड, बर्ड वॉचर्स जैसे लोगों का डाटा वन विभाग की वेबसाइट पर अपलोड करेंगे। बर्ड वॉचिंग ट्रैक्स, ट्रैकिंग रूट्स, हाईएल्टीट्यूड ट्रैक्स जैसी राज्य में पर्यटन से जुड़े स्पॉट्स की डिटेल भी वेबसाइट पर दी जाएगी। ये डाटाबेस पर्यटकों और इकोप्रिन्योर्स को जोड़ने का काम करेगा”।
धकाते कहते हैं इकोप्रिन्योर कार्यक्रम के लिए कोई निर्धारित बजट नहीं है। “अब तक कैंपा, जाइका, इकोटूरिज्म (CAMPA, JICA, Ecotourism ) जैसी वन विभाग की विभिन्न योजनाओं के ज़रिये अब तक इकोप्रिन्योरशिप विकास कार्यक्रम के लिए 45 लाख रुपये बजट की व्यवस्था की गई है। उत्तराखंड वन विभाग, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, इंस्टिट्यूट ऑफ ड्राइविंग एंड ट्रैफिक रिसर्च, आईआईएम काशीपुर जैसे विभिन्न संस्थानों के माध्यम से युवाओं को ट्रेनिंग दी गई है”।
सीसीएफ धकाते के मुताबिक वन विभाग की देखरेख में इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जा रहा है। अगले चरण में पर्यटन विभाग और उद्योग विभाग भी इससे जुड़ेगा।
इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की रिपोर्ट के मुताबिक समुदाय की भागीदारी से वन संरक्षण के प्रयासों को मिल सकती है सफलता
चुनौतियां
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) के नकुल छेत्री व उनके साथियों ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि हिंदुकुश हिमालय में संरक्षण के लिए भागीदारी और समुदाय-आधारित प्रयास का पारिस्थितिकीय, आर्थिक और सामाजिक तौर पर बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। स्थानीय समुदायों को स्थानीय वनों से जुड़े निर्णय लेने का अधिकार दिया जाता है, तो इससे वनों का कटान रोका जा सकता है और इन्हें पुर्नजीवित भी किया जा सकता है। वे कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में स्थायी आजीविका में निवेश महत्वपूर्ण है।
लेकिन यह उत्तराखंड की इकोप्रिन्योरशिप की महत्वाकांक्षाओं पर सवाल खड़ा करता है। इसके लिए कोई बजट, रणनीति या निगरानी योजना नहीं है। सीसीएफ धकाते के अनुसार वन विभाग की भूमिका प्रशिक्षण देने तक सीमित है। इकोप्रिन्योर युवाओं के व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए राज्य सरकार कोई सपोर्ट नहीं दे रही है। वे कहते हैं, ''बैंक से कर्ज लेने या अपना कारोबार रजिस्टर कराने जैसे मामलों में उन्हें सामान्य प्रक्रिया का पालन करना होगा''।
पर्यावरण संगठन ‘कल्पवृक्ष’ के संरक्षण और आजीविका कार्यक्रम की कॉर्डिनेटर नीमा पाठक उत्तराखंड में इकोप्रिन्योरशिप की काफी संभावनाएं देखती हैं। लेकिन उन्हें उत्तराखंड सरकार की कार्यशैली पर ज्यादा भरोसा नहीं है। "एक लाख ईकोप्रेन्योर बनाने के बजाय, हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि इकोप्रेन्योर युवाओं की क्या ज़रूरतें हैं," वह कहती हैं। "वे आपसे क्या सुविधाएँ चाहते हैं?"
देवलसारी के इकोप्रिन्योर अरुण गौड़
देहरादून स्थित गैर-सरकारी संगठन तितली ट्रस्ट के संस्थापक ट्रस्टी संजय सोढ़ी की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है। तितली ट्रस्ट कई वर्षों से वन विभाग के लिए राज्य भर में बर्डवॉचिंग और नेचर गाइड के लिए प्रशिक्षण दे रही है। केसर सिंह को भी इसी संगठन ने बर्ड वॉचिंग का प्रशिक्षण दिया है। संजय सोढी उन्हें राज्य के गढ़वाल क्षेत्र के सबसे अच्छे बर्ड वॉचर और नेचर गाइड मानते हैं। केसर भी अब वन विभाग में बतौर प्रशिक्षक जुड़े हैं।
सोढ़ी बताते हैं “इस समय उत्तरकाशी के गंगोत्री लैंडस्केप में बर्डवॉचिंग का ट्रेनिंग प्रोग्राम चल रहा है। एक साल में 3-4 दिनों की कुछ कार्यशालाएं होती हैं। इसमें पक्षियों-तितलियों को पहचानना, जैव-विविधता को डॉक्युमेंट करना, विजिटर के साथ कैसा व्यवहार करें, उस क्षेत्र की विशेषता, वहां से जुड़ी लोक-कहानियां, इन सबके बारे में बताया जाता है। हम उन्हें इसकी मार्केटिंग के तरीके भी बताते हैं”।
एक लाख इकोप्रिन्योर की घोषणा पर वह प्रतिक्रिया देते हैं “बड़े नंबर पर जाने की जगह हमें छोटे-छोटे पायलट प्रोजेक्ट्स तैयार करने चाहिए। एक प्रोजेक्ट सफल होता है दूसरे खुद-ब-खुद उससे प्रेरित होते हैं”।
“हमारी सबसे बड़ी चुनौती युवाओं की सोच बदलने की है। हमें इकोप्रिन्योर्स रोल मॉडल तैयार करने हैं। अभी ट्रेनिंग के लिए आने वालों में से सिर्फ 10 फीसदी युवा ही इसे रोजगार के तौर पर अपना रहे हैं। जबकि बर्डवॉचिंग, बटरफ्लाई फैस्टिवल, ट्रैकिंग जैसे इको टूरिज्म के लिए पर्यटक पैसे खर्च करने को तैयार हैं”।
(This story was produced with support from Internews’s Earth Journalism Network.)