मौजूदा दौर में जो राष्ट्रीय राजनैतिक विमर्श है उसका ज़ोर ‘विकास’ पर है। विकास के नाम पर वोट मांगे जाते हैं और राजनैतिक लड़ाइयां जीती (या हारी) जाती हैं। पर विकास किसका और किस कीमत पर, इस बारे में कम ही चर्चा होती है। और जिसे विकास कहा जा रहा है उसमें क्या विनाश भी निहित है, इसके बारे में कम ही सवाल उठते हैं।
भारत सरकार का वन और पर्यावरण मंत्रालय भी (राज्यों के ऐसे मंत्रालय भी) जंगलों की कटाई, नदियों में हो और बढ़ रहे प्रदूषण और उनमें प्रवाहित हो रहे औद्योगिक कचरे को लेकर लगभग आंखे मूंदे हुए है।
हालांकि तकनीकी कार्यवाहियां चलती रहती हैं। कई केंद्रीय सरकारों के कार्यकालों में `गंगा सफाई अभियान’ चल चुका है और ये अलग से कहने की जरूरत नहीं है वो कभी ठीक से चले ही नहीं। इसी तरह के कई और मसले हैं। भारतीय समाज में जिनका रिश्ता पर्यावरण के विभिन्न पक्षों से है। इनके बारे में मुख्यधारा का मीडिया और राजनीति लगभग मौन ही रहती है। कई राजनैतिक दलो को लगने लगा है कि विकास की उपेक्षा की तो वोट और सत्ता की राजनीति में पिछड़ जाएंगे। इस प्रक्रिया में विनाश का दुष्चक्र निर्मित होता रहता है।
वैसे ये सब बड़ा मसला है पर इसकी संक्षिप्त चर्चा यहां इसलिए की गई है कि उस परिप्रेक्ष्य को समझने में आसानी हो जो पर्यावरण और फिल्मों से जुड़ा है। हमारे यहां की ज्यादातर मुख्यधारा फिल्में एक तरह से बिजनेस हैं और उनकी सफलता और असफलता इस बात पर निर्भर करती है उनकी कमाई कितनी मोटी हुई है। और इसी कारण उनमें पर्यावरण-चेतना बहुत कम पायी जाती है।
फिर भी कोई भी चेतना मानव मन से कभी विस्मृत नहीं होती इसलिए बीच-बीच में, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर, पर ऐसी फिल्में भी आती रहती हैं, जिनमें सजग पर्यावरणीय चिंता होती है। ऐसी ही तीन भारतीय फिल्मों की चर्चा यहां की जा रही है।
पहली फिल्म है ‘भूमिका’ (2021) जिसके निर्देशक हैं रवींद्रन आर. प्रसाद। ये फिल्म तमिल में बनी है पर हिंदी और मलयालम में भी डब हुई है। ‘भूमिका’ वैसे तो एक हॉरर-फिल्म है और इसमें एक बड़े से हवेलीनुमा मकान में एक परिवार को रात में एक मृत लोगों द्वारा मोबाइल पर संदेश आने लगता है।
इसी कारण परिवार में भय व्याप्त हो जाता है। पर इस फिल्म का मूल मंतव्य दर्शकों को डराने की अनूभूति देना नही है। अंत की तरफ बढ़ते हुए ‘भूमिका’ का हॉरर वाला पक्ष धीरे-धीरे शिथिल और गौण होता जाता है और एक नया पहलू उभरने लगता है। वो है प्रकृति के दोहन का।
फिल्म धीरे धीरे भूमिका नाम की एक लड़की को कथा को सामने लाती है जो अपने छोटे से जीवन काल में ( उसकी रहस्यात्मक मृत्यु हुई थी और जिसकी आत्मा उस हवेलीनुमा मकान मे आती है) प्रकृति को लेकर बहुद संवेदनशील थी। वो ऑटिस्टिक थी यानी आत्मलीन थी इसलिए उसकी पढाई-लिखाई भी बाधित हुई थी। भूमिका कुछ असहज थी लेकिन एक जबर्दस्त पेंटर थी और अपने आसपास की प्रकृति का चित्रण करती थी।
एक पेड़ को काटे जाने से बचाने की कोशिश में ही उसकी रहस्यात्मक मौत हुई। और पेड़ को दूसरे पेड़ों के साथ इसलिए काटा जा रहा था कि इनके स्थान पर एक बिल्डर अपने लाभ के लिए एक परियोजना बना सके। एक जगह इस फिल्म का एक किरदार कहता है : ‘भूमिका’ अपने में प्रकृति थी। हॉरर फिल्म के रूप में ढीली-ढाली होते हुए भी ‘भूमिका’ में अहम पर्यावरणीय संदेश है और वो ये कि जब आप प्रकृति का विनाश करते हैं तो आप भी नष्ट होने लगते हैं।
इस फिल्म को देखने के दौरान कालिदास के ‘अभिज्ञान शांकुंतलम्’ और उसके एक श्लोक की याद आती है।
जब शकुंतला महर्षि कण्व का आश्रम छोड़कर दुष्यंत के यहां जा रही होती हैं तो उसे पालनेवाले यानी पिता कण्व अपने आश्रम के पेड़ों से कहते हैं :
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या
नादत्ते प्रियमंडनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्
आद्ये व: कुसुमप्रसूति समये यस्या भवत्युत्सव:
सेयं यानि शकुंतला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम्
हिंदी में इसका अर्थ ये हुआ कि शकुंतला अपने पति के घर को जा रही है जो पेड़ों को जल पिलाए बिना स्वयं जल नहीं पीती थी, जो आभूषण-प्रिय होने पर भी आपके पल्लवों को नहीं तोड़ती थी (अपने श्रृंगार के लिए) और जो आपके भीतर फूलों के आगमन पर उत्सव मनाती थी, उस शकुंतला को जाने की अनुमित दें।
इस श्लोक का और फिल्म `भूमिका’का संदेश यही है कि प्रकृति का अत्यधिक दोहन मत करो।
इस कड़ी में जिस दूसरी फिल्म की चर्चा यहां की जा रही है वो ‘शेरनी’ (निर्देशक – अमित वी मसुरकर) जो इसी साल यानी 2021 में प्रदर्शित हुई है। विद्याबालन ने इसमें विद्या विंसेंट नाम के एक वन विभाग के ऐसे अधिकारी की भूमिका निभाई है जो टी- 12 नाम (वन विभाग द्वारा दिया गया नाम) की एक शेरनी को बचाने की कोशिश करती है जिसको स्थानीय नेताओं, सरकारी अधिकारियों और पारंपरिक शिकारियों का एक संगठित गिरोह मारना चाहता है और इसमे सफल भी हो जाता है।
हालांकि कानून शेरनी (या शेर) को मारने की इजाजत नहीं देता फिर भी ऐसा हो जाता है। क्यों? इसलिए जंगलों के आसपास रहनेवाले किसान शेरनी से इस वजह से परेशान हैं कि वो उनके मवेशियों को खा जाती है, स्थानीय नेताओं को इन किसानों के वोट की चिंता सता रही है और शिकारी किस्म के लोगों को शेर का शिकार करने में मजा आता है और वे इसी बात का बखान करते रहते हैं कि उन्होंने या उनके बाप दादाओं ने कितने शेर मारे।
पर्यावरण बचाने के लिए जरूरी है वनों और वन्य जंतुओं को बचाया जाए। लेकिन वन्य जंतुओं को बचाने के लिए भोजन चाहिए। उनको भोजन कैसे मिले, ये समस्या बढ़ती जा रही है क्योंकि वनों का वास्तविक इलाका कम होता जा रहा है। जब उनको अपने भोजन की कमी पड़ जाती है तो वे इंसानी बस्तियों में आ जाते हैं और किसानों के पालतू जानवरों को खा जाते हैं। इससे किसान नाराज हो जाते हैं जिसका फायदा स्थानीय नेता उठाते हैं।
ऐसे में `मानव बनाम वन्य जंतु’ की बहस छिड़ जाती है। इस क्रम में इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है आखिर वन्य जंतु कहां जाएं? सरकार- राजनीति के गठजोड़ ने शेरों या दूसरे वन्य जंतुओं के इलाके यानी वनों का दोहन करने के लिए खनन करावाएं हैं जिससे शेरों और दूसरे वन्य प्राणियों की आवाजाही में बाधाएं पड़ती है।
‘शेरनी’ में ये बात भी उभरती है। टी-12 नाम की शेरनी जंगल में एक जगह से दूसरी जगह जाने में अवरोध का सामना इसलिए करती है कि तांबे की खदान की वजह से इतनी खुदाई हो गई है वो अपने बच्चों के साथ उसे पार नहीं कर सकती है। जब शेर या शेरनी को जंगल में एक जगह से दूसरी जगह जाने का रास्ता नही मिलेगा तो वह भोजन या शिकार की तलाश में इंसानी बस्तियों के करीब जाएगी ही और इससे जंगलों के आस पास रहनेवाले किसानों को समस्याएं होंगी।
अभी भी ऐसी कई खबरें आती हैं जिसमें भारत के कुछ इलाकों में हाथी फसलों को बर्बाद देते हैं। पर वे मुख्यत: इस कारण ऐसा करते हैं कि जंगलों में उनके लिए जगह कम बची है। देश में जंगलों के दोहन से जो समस्याएं पैदा हो रही है उसे ‘शेरनी’ बखूबी दिखाती है।
जिस तीसरी फिल्म की चर्चा यहां की जा रही वो है ‘भोपाल एक्सप्रेस’ (निर्देशक- महेश मथाई)। ये 1999 की फिल्म है और 1984 में भोपाल में हुई यूनियन कार्बाइड वाली जहरीली गैस त्रासदी पर केंद्रित है। नसीरुद्दीन शाह, केके मेनन, नेत्रा रघुरामन इसमें केंद्रीय चरित्रों में हैं।
केके मेनन और नेत्रा ने जिस वर्मा-तारा दंपति को किरदार को निभाया है उनके माध्यम से उस दुर्घटना को सामने लाया गया है, जिसमें आठ सौ लोगों की मृत्यु हुई और लगभग पांच लाख लोग कई तरह की बीमारियों के शिकार बने। इनमे कई तो असाध्य बीमारियों के शिकार बन गए।
औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से बड़े उद्योगों को सामंतवाद से मुक्ति का माध्यम माना गया। ये ठीक है कि औद्योगिक क्रांति की कई तरह की नई संभावनाएं पैदा कीं लेकिन अत्यधिक लाभ पाने के लालच के क्रम मे इसनें शोषण के नए औजार भी विकसित किए।
‘भोपाल गैस त्रासदी’ भी इसी कारण हुई थी जब अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड ने जरूरी सुरक्षात्मक सावधानियां नहीं बरती थीं। इसका खमियाजा भोपाल के लोग आज भी लोग भुगत रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ये भारत में औद्योगिक युग की आखिरी त्रासदी थी।
आज भी अपने देश मे परमाणु संयत्र और परियोजनाओं की वजह से कई तरह की लाइलाज बीमारियों के खतरे का अंदेशा है। कई देशों में भी इसके दुष्परिणाम सामने आए हैं।
पूर्व सोवियत संघ (आज के उक्रेन में) में 1986 में चेरनोबिल परमाणु संयंत्र में त्रासदी हुई थी, जिसमें तीस लोग तो कुछ ही दिनों के भीतर मारे गए थे पांच हजार लोग थायराइड-कैंसर के शिकार हो गए थे। साढें तीन लाख लोगों को वहां से विस्थापित होना पड़ा था और जिनका पुनर्वास पूरा आज तक पूरा नहीं हुआ है। 2019 में आई फिल्म ‘चेरनोबिल 86’ इसी हादसे की याद दिलाती है।
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं)