- राजू रंजन प्रसाद -
पर्यावरण शब्द ‘परि’ और ‘आवरण’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ हुआ हमारे ‘चारों ओर का आवरण’। मनुष्य प्रकृति में हवा, पहाड़, नदी, झरना, पेड़-पौधे और जीव-जंतुओं से घिरा हुआ है। सभ्यता और संस्कृति के आरंभिक दिनों में वह प्रकृति की गोद में बसता था। प्रकृति से अलग उसके जीवन की कल्पना भी असंभव थी। धीरे-धीरे वह इससे विलग होता गया। संस्कृति की हमारी कहानी इसी विलग होते जाने की अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो संस्कृति, प्रकृति के स्मृति में बदलते जाने की कहानी है। इस स्मृति को हमने भाषा और साहित्य में जीवित रखा है।
संस्कृत हमारी सबसे पुरानी भाषा है इसलिए उसके साहित्य में पर्यावरण की स्मृति का सबसे आदिम रूप है। अकारण नहीं कि हमारे आरंभिक साहित्य का एक बड़ा हिस्सा ‘आरण्यक’ है। तब पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी परिवार के अंग जैसे लगते हैं। ये मनुष्य के लिए जितने आवश्यक हैं मनुष्य भी उनके लिए उतने ही अपरिहार्य हैं। संस्कृत साहित्य से परिचय रखने वाले ‘कवि-समय’, ‘कवि प्रसिद्धि’ और ‘दोहद’ से परिचित होंगे। ‘दोहद’ शब्द का अर्थ ‘गर्भवती की इच्छा’ है अथवा जिन द्रव्यों और क्रियाओं से अकाल में ही पुष्पोद्गम कराया जाता है, उसे ‘दोहद’ कहते हैं। जिस प्रकार वृक्षदेवता स्त्रियों में ‘दोहद’ का संचार करते थे, उसी प्रकार सुंदरी स्त्रियों की अधिष्ठात्री यक्षिणियां स्त्री-अंग के स्पर्श से वृक्षों में भी ‘दोहद’ का संचार करती थीं।
संस्कृत काव्य में स्त्रियों के पदाघात से वृक्षों के पुष्पित होने की बहुत चर्चा है। मेघदूत में स्त्री के विभिन्न अंगों और क्रियाओं के संस्पर्श से प्रियंगु, बकुल, अशोक, तिलक, कुरबक, मंदार, चम्पक, आम, नमेरु तथा कर्णिकार आदि वृक्षों के पुष्पित होने की बात है। ‘कवि-प्रसिद्धि’ है कि सुंदरियों के पदाघात से अशोक में पुष्प खिल आते हैं। ‘मालविकाग्निमित्र’ के तृतीय अंक की सारी कथा मालविका के पदाघात से अशोक के वृक्ष को पुष्पित कर देने की क्रिया को केंद्र करके रचित हुई थी।
मेघदूत के यक्ष ने मेघ से अपने उद्यान के अशोक वृक्ष के वर्णन के सिलसिले में कहा है कि वह तुम्हारी सखी (यक्षिणी) के वामपाद का अभिलाषी है। ‘राजनिघंटु ’ के अनुसार अशोक का एक नाम ‘वामांघ्रिघातन’ भी है जिसका अर्थ ‘स्त्री का चरण’ है। संस्कृत में स्त्री को अंगना भी कहा जाता है और अंगनाप्रिय का मतलब है ‘अशोक का पेड़’। प्राचीन भारत का ‘मदनोत्सव’ अशोक वृक्ष से खास तौर से जुड़ा है। अंतःपुर में इसी वृक्ष के नीचे मदनदेव की पूजा संपन्न होती थी और तदुपरांत रानी ‘दोहद’ उत्पन्न करती थी। स्त्रियों की मुख-मदिरा से सिंचकर बकुल पुष्पित हो जाता है। कर्णिकार वृक्ष के आगे स्त्रियां अगर नृत्य करे तो वह पुष्पित हो जाता है। कुरबक स्त्रियों के आलिंगन से पुष्पित हो जाता है।
अशोक वृक्षों में दोहद-संचार करती हुई स्त्रियों की मूर्तियां भारतीय शिल्पकला की अति-परिचित बात है। मथुरा म्यूजियम में एक ऐसी उत्कीर्ण मूर्ति है जिसमें एक यक्षिणी अशोक वृक्ष की शाखा पकड़े खड़ी है और पदाघात से अशोक को कुसुमित कर रही है। तंजोर के सुब्रह्मण्यम मंदिर के द्वार पर एक यक्षिणी मूर्ति अशोक में दोहद उत्पन्न करती हुई उत्कीर्ण है। मथुरा की मकरवाहना यक्षिणी मूर्ति अशोक वृक्ष में दोहद संचार करती हुई उत्कीर्ण है। अशोकषष्ठी और अशोकाष्टमी व्रत में अशोक वृक्ष की पूजा संतान-कामिनी होकर करने का विधान है। ‘निर्णयसिंधु’ एवं ‘तिथितत्त्व’ के अनुसार चैत्र शुक्ला अष्टमी को अशोक की आठ कोमल पत्तियाँ भक्षण करने से दोहद-संचार होना सिद्ध है।
प्राचीन साहित्य में सर्वत्र जलाशयों में जल और जीवन के प्रतीक कमल का वर्णन किया गया है। जलाशयों में हंसों का वर्णन भी ‘कवि प्रसिद्धि’ है, क्योंकि हंस-मिथुन उर्वरता के प्रतीक हैं। इसीलिए प्राचीन काल में नववधू के परिधान-दुकूल पर हंस-मिथुन अंकित हुआ करते थे। भारतीय भाषाओं के काव्यग्रंथ इस चक्रवाक पक्षी के प्रणयाख्यान से भरे पड़े हैं। ‘कवि प्रसिद्धि’ यह भी है कि इस जोड़े की सारी रात वियोग में कटती है। अग्निवेश रामायण की कथा है कि स्त्री-वियोग में कातर राम को देखकर चक्रवाकों ने हंसी उड़ाई थी जिसके परिणामस्वरूप उन्हें इस प्रकार वियुक्त होने का अभिशाप-भागी होना पड़ा।
प्राचीन काल में पक्षी को जीवन का अनिवार्य अंग माना जाता था। वात्स्यायन ने कामसूत्र में नागरिकों को भोजन के बाद शुक-सारिका आलाप तथा लाव, कुक्कुट और मेषों के युद्ध देखने की व्यवस्था की है। भोजन के बाद प्रत्येक प्रतिष्ठित नागरक इन क्रीड़ाओं को अपने मित्रों के साथ देखता था। शुभ-अशुभ जानने के लिए भी पक्षियों की गतिविधि पर विशेष ध्यान दिया जाता था। वस्तुतः हिन्दी का ‘सगुन’ संस्कृत ‘शकुन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ पक्षी है। वराहमिहिर की वृहत्संहिता में श्यामा, श्येन, शशघ्न, वंजल, मयूर, श्रीकर्ण, चक्रवाक, चाष, भाण्डीरक, खंजन, शुक, काक, कपोत, भारद्वाज, कुलाल, कुक्कुट, खर, हारीत, गृद्ध, पूर्णकूट और चटक आदि को शकुनसूचक पक्षियों की श्रेणी में रखा गया है। संस्कृत साहित्य से इन पक्षियों के शकुन के कारण बड़ी-बड़ी घटनाओं के होने का साक्ष्य मिलता है। कभी-कभी शकुन मात्र से भावी राज्यक्रांति का अनुमान कर लिया जाता और तदनुसार रणनति बनती।
काग और कउआ जीवन के आगामी वृत्तांत बतलाने में भी निपुण माने गये हैं। तुलसीदास तक ने इस विद्या को पढ़ने की कोशिश की है। रामचरितमानस में वर्णन है कि ननिहाल से अयोध्या लौटने के क्रम में भरत जी जब नगर में प्रवेश करते हैं तो गलत जगह बैठे कौओं का बोलना अपशकुन हो गया-‘असगुन होहिं नगर पैठारा।/रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।।’ काग अगर दाहिनी ओर खेत में शोभायमान हो तो समझिए कि सब मंगल है- ‘दाहिन काग सुखेत सुहावा’। ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्यवाणी कहने के वांछनीय गुण से प्रेरित होकर ही कुल-ललनाओं ने अपने कोमल हृदय में इन्हें स्थान दिया है। जायसी ने भी ‘पद्मावत’ में नागमती के विलाप में काग को स्मरण किया है-‘होइ खर बान विरह तनु लागा,/जो पिऊ आवै उड़ै तो कागा।’
मनुष्य के सुख-दुख के साथ इन शुक-सारिकाओं का सुख-दुख इस प्रकार गुंथा हुआ था कि एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। खासकर स्त्रियों के दुखी जीवन की कहानी इन पक्षियों के बगैर अधूरी है। अमरुकशतक में एक मर्मस्पर्शी दृश्य है कि जब मानवती गृहदेवी के दुख से दुखी होकर प्रिय बाहर नख से जमीन कुरेद रहा है, सखियों ने खाना बंद कर दिया है, रोते-रोते उनकी आंखें सूज गई हैं और पिंजड़े के सुग्गे अज्ञात वेदना के कारण हँसना-पढ़ना बन्द किए सारे व्यापार को समझने की चेष्टा कर रहे हैं।
उत्तरी बिहार के एक लोकगीत में विरहिणी के अंतस्तल से करुण आवाज आती है-‘कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खइयो मास,/दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।/कागा नैन निकास दूँ, पिया पास ले जाय,/पहिले दरस दिखाइ कै, पीछे लीजौ खाय।’ एक मैथिल लोकगीत में विरहिणी ने गाया है, ‘रे काग, तू नित्य यही बोल कि मेरे प्रियतम आयेंगे। यदि आज मेरे प्राणनाथ मेरे उर-आँगन में आये तो कनक-कटोरे में खीर और पकवान भरकर मैं तुझे खाने को दूँगी। सोने में तेरी चोंच संवारूंगी, और तेरे चरण मढ़ाऊंगी। आगे कहती है कि मेरी बाईं आँख फड़क रही है और दाईं आँख रोती है। उन्हीं आंखों से तुझे नित्य निहारूँगी, और पहले से भी दूने प्रेम से तेरा प्रतिपाल करूँगी।’ फिर कहती है, ‘रे काग, तू भगवान श्रीकृष्ण की तरह मन को हरनेवाला है। तेरी बोली अत्यंत मीठी है। आज मेरी सारी अभिलाषाएं पूरी हो गईं।’
अपभ्रंश साहित्य में एक प्रसंग है कि विरहिणी ग्राम-वधू काक के शकुन पर अब विश्वास नहीं करती। सुनते-सुनते कान पक गए, पर प्रिय का आना नहीं हुआ और यह काग है कि बोलता ही जा रहा है। उसने इस मिथ्याभाषी काग को हाथ उठाकर उड़ाना चाहा। विरह के मारे दुबली हुई कलाइयों से चूड़ी निकलकर पृथ्वी पर गिरी लेकिन कागा की बात ठीक ही थी। अचानक प्रिय दिख गया। आधी चूड़ियां धरती पर गिर गई थीं। पर सहसा प्रियदर्शन से खुशी की लहर दौड़ी, दुबली कलाई फूलकर मोटी हुई और आधी चूड़ियां तड़ाक से टूटकर बिखर गईं।
अमरुकशतक में एक प्रसंग है कि रात को दंपति ने जो प्रेमालाप किया उसे नासमझ शुक ज्यों का त्यों प्रातःकाल गुरुजनों के सामने दुहराने लगा। बेचारी बहू लाजों गड़ गई और कोई उपाय न देखकर उसने अपने कर्णफूल में लगे लाल पद्मराग मणि को ही शुक के सामने रख दिया और वह उसे पका दाड़िम समझकर उसी में उलझ गया। इस भांति उसकी लाज बची।
प्राचीनकाल में ऋषियों के आश्रम में भी शुक-सारिकाओं का वास था। किसी वृक्ष के नीचे शुक-शावक के मुख से गिरे नीवार (वन्य धान) को देखकर ही दुष्यंत को यह समझने में देर नहीं लगी थी कि यहाँ किसी ऋषि का आश्रम है। शुक-सारिकाएँ विलासी नागरकों के बहिर्द्वार पर ही नहीं बल्कि पंडितों के अंतःपुर की भी शोभा बढ़ाती थीं। शंकराचार्य को मंडन मिश्र के घर का मार्ग बताते समय स्थानीय परिचारिका ने कहा था, जहाँ शुक-सारिकाएँ ‘स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं’ का शास्त्रार्थ कर रही हों, वही मंडन मिश्र का घर है। कवि वाणभट्ट ने अपने पूर्व-पुरुष कुबेरभट्ट का परिचय देते हुए बड़े गर्व से लिखा है कि उनके घर के शुकों और सारिकाओं ने समस्त वांग्मय का अभ्यास कर लिया था, और यजुर्वेद और सामवेद का पाठ करते समय पद-पद पर ये पक्षी विद्यार्थियों की गलती पकड़ा करते थे।
औद्योगिक क्रांति से उपजे मनुष्य ने पर्यावरण के बगैर जीवन को गले लगाने की भूल की है। ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ की घोषणा है-‘छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले, तेरे बाल-जाल में, कैसे उलझा दूं लोचन।’ प्रकृति से माया टूटी नहीं कि साहित्य ‘कंक्रीट का जंगल’ हो गया है।
आधुनिकता विलुप्त होे चुके पर्यावरण की स्मृति से आक्रांत है। आधुनिक साहित्य का बहुलांश ‘शोकगीत’ और ‘विदागीत’ से भरा है। अब किताबों के शीर्षक ‘यहां थी वह नदी’ और ‘घटती हुई ऑक्सीजन’ तथा ‘गौरैया नहीं आती अब’ हैं। कविताओं के शीर्षक भी ठीक-ठीक ‘शोकगीत’ और ‘विदागीत’ से बनते हैं, मसलन ‘बचे हुओं के लिए शोकगीत’। आज पर्यावरण और जीवन दोनों को खतरे में डाल दिया गया है-‘कंक्रीट के इस जंगल में/मौसम की निर्जनता/मुझे ही नहीं/इस घरेलू चिड़िया को भी खलेगी।’
सुखद है कि समकालीन कविता में पर्यावरण और जीवन की चिंता समान रूप से मुखर हुई है। ‘इतने दिनों से कोई फूल नहीं देखा’, ‘नदी मां का दुलार’, ‘चुपचाप’, ‘बचाओ’ तथा ‘पेड़’ आदि कविताओं में मनुष्य के एकाकीपन की पीड़ा को अत्यंत ही मार्मिक, आत्मीय और संवेदनशील तरीके से अभिव्यक्त करने की कोशिश की गई है।
इस अभिव्यक्ति में मनुष्य जाति की अपनी ‘असहायता से उत्पन्न’ एक अजीब छटपटाहट और बेचैनी भी शामिल है-‘किस ऋतु का फूल सुंघूं/किस हवा में सांस लूं/किस डाली का सेब खाऊं/किस सोते का जल पीऊं/पर्यावरण वैज्ञानिको!/कि बच जाऊं।’ दरअसल ‘कुएं सूखते चले गए’ के बाद ही हमें ‘पानी का मतलब’ समझ आया है। इसलिए समकालीन कविता में सर्वत्र बचाओ, बचाओ का करुण क्रन्दन है-‘बचा लो मेरी नानी का पहियों वाला काठ का नीला घोड़ा/संभाल कर रखो अपने लट्टू/पतंगे छुपा दो किसी सुरक्षित जगह पर/देखो, हिलता है पृथ्वी पर/अमरूद का अंतिम पेड़/उड़ते हैं आकाश में पृथ्वी के अंतिम तोते।’ जो ‘नदियों का पानी’ नहीं बचा सके अब ‘आंखों का पानी’ बचाने को अभिशप्त हैं। समकालीन कवि को इस बात का बोध हो चला है कि फूल, पेड़, चिडियां और कुएं का गायब होना महज पर्यावरण का संकट नहीं है। यह हमारी संवेदना के नष्ट होने के भी सबूत हैं।
पर्यावरण का संकट अंततः संवेदना का संकट भी है। सब के धागे आपस में एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। इसलिए मनुष्य की संवेदना को अगर समय रहते नहीं बचाया जा सका तो ‘कविता का अंत’ अब सिर्फ नारा नहीं रहेगा। कविता में अब भी थोड़ी-बहुत संवेदना बची हुई है। इसलिए कवि कविता को बचाने की कोशिश में है-‘इधर मैं एक बार फिर करता हूं प्रयत्न/कि बच सके तो बच जाये हिंदी में समकालीन कविता।’
आज के कवि के पास न तो कोई ‘दुविधा’ है, न सवाल करने की ‘सुविधा’ ही कि ‘जैसे चिड़ियों की उड़ान में/शामिल होते हैं पेड़/क्या मुसीबत में/कविताएं होंगी हमारे साथ’। स्पष्ट निर्णय लेने का वक्त है यह। जो अनिर्णय में होंगे, मारे जाएंगे।
(लेखक साहित्य और इतिहास के अध्येता हैं)