वन्य जीव एवं जैव विविधता

किसके लिए किया जाता है पर्यावरण प्रभाव का आकलन

क्या समाज को मालूम है कि जिन आदिवासियों के पुरखों की जमीनें खोदकर कोयला निकाला गया, जिनकी बस्तियां नेस्तनाबूद कर दी गई, आखिर वो अब कहां और किन हालातों में हैं ?

Ramesh Sharma

वर्तमान पीढ़ी का भावी पीढ़ियों के प्रति अनेक मानवीय दायित्व हैं जो दुनिया सहित भारत में पर्यावरण से संबंधित कानूनों और पर्यावरण प्रभाव के आकलन का बुनियादी वैज्ञानिक-दर्शन है। इस वैज्ञानिक दर्शन पर प्रतिपादित सिद्धांतों के अनुसार पर्यावरण प्रभाव के आकलन, कुछ महत्वपूर्ण आधार स्तंभों पर टिके हैं जो भावी पीढ़ियों के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रथमतः यह भावी पीढ़ी के अंतर्पीढ़ी अधिकारों (इंटर जनरेशनल राइट्स) को पूर्ण मान्यता देते हैं। अर्थात पर्यावरण से जुड़े हुए वे तमाम कारक, जो भावी पीढ़ियों के नैसर्गिक अधिकार हैं, बुनियादी तौर पर पर्यावरण प्रभाव के आकलन का प्रथम संदर्भ बिंदु है। दूसरे, यह किसी भी पर्यावरणीय क्षति को रोकने वाले उन सभी उपायों की संभावनाओं की वकालत करते हैं जो नकारात्मक प्रभावों को न्यूनतम करता है अथवा कर सकता है। पर्यावरण प्रभाव के आकलन के इन बुनियादी सिद्धांतों का सार्थक सारांश यही है कि मूलतः पर्यावरण के अधिकार और मानव अधिकार संपूरक हैं। अर्थात पर्यावरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करके मानवाधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती अथवा मानवाधिकारों का उल्लंघन समग्र पर्यावरण का भी नुकसान कर सकता है।

भारत में वर्ष 1976-77 के दौरान पहली बार जब भारत सरकार के योजना आयोग ने आधिकारिक तौर पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग को उन महत्वपूर्ण नदी-घाटी परियोजनाओं के समीक्षा का दायित्व दिया, जहां पर्यावरण और मानवधिकारों के उल्लंघन के प्रकरण सामने थे, तब उनका ध्येय मानवीय और पर्यावरणीय दोनों ही क्षतियों को समाप्त अथवा न्यूनतम करना था। विभाग के जमीनी आकलन में यह बात साफ थी कि वैधानिक मानकों के अभाव में प्रभावी रूप पर्यावरण और समाज दोनों के अधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती है। गौरतलब है कि यह उस समय की बात है जब जनहित, कुछ परिस्थितियों में देशहित अथवा समाजहित का पर्याय माना जाता था। यह जानना जरूरी है कि तब तक भारत में लगभग 2.4 करोड़ लोग जनहित की परियोजनाओं के परमार्थ के चलते बेजमीन हो चुके थे। यानि पर्यावरण सुरक्षा के क़ानून और पर्यावरण पर प्रभावों के आकलन के दौर आने से पहले ही विस्थापन और बेदखली की कहानी शुरू हो चुकी थी।

बाद के बरसों में इस समीक्षा के दायरे में उन समस्त परियोजनाओं को शामिल किया गया जिन्हें पब्लिक इन्वेस्टमेंट बोर्ड से अनुमति की प्रशासनिक आवश्यकता थी। अर्थात प्रारंभ में यह महज प्रशासनिक प्रक्रिया थी जिसे 23 मई 1986 को पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम लागू होने पर वैधानिक शर्तों के अंतर्गत लाने की कवायद शुरू हुई। 27 जनवरी 1994 को पर्यावरण प्रभाव के आकलन की प्रथम वैधानिक अधिसूचना जारी हुई। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2006 से 2018 के दौरान पर्यावरण प्रभावों के आकलन से संबंधित 45 आदेश/ निर्देश जारी किये गये। ये तमाम संशोधन और उसके पीछे की राजनीति / विज्ञान उन सभी कठिन सवालों का कागजी जवाब बने जो वंचित और विस्थापित समाज के अधिकारों के प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में खड़े किये गये और कल्याणकारी राज्य के द्वारा विकास के विवादास्पद तर्कों और सन्देहास्पद सहूलियतों के साथ दिये गये। कुल मिलाकर यह पर्यावरणीय और मानवीय नुकसानों के बीच (असहज और अमानवीय ) मध्यस्थता का दौर था /है।

मध्यस्थता के सैकड़ों उदाहरणों में से एक है तमनार की अपनी कथा। बात 1998 की है, जब छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के आदिवासी बहुल तमनार गांव के लोगों को बताया गया कि यहां ताप विद्युत योजना के जरिए विकास की महती आवश्यकता है। इस कहानी में रोजगार, संपन्नता, सम्मान और सक्षमता जैसे उन सभी जादुई तत्वों का घालमेल था, जो बेबस आदिवासी समाज को बुड़बक साबित करने के लिये पर्याप्त था। बावजूद तमाम तर्कों और तथ्यों के, ग्रामवासियों के दिलोदिमाग में भावी पीढ़ियों के अधिकारों को लेकर भय और आशंका थी। अंततः तमनार, धौराभाठा, टपरेंगा और डोंगामहुआ सहित 52 गावों के लोगों ने एकजुट होकर परियोजना का विरोध करने का सर्वसम्मत निर्णय लिया। उन्हें यह खुशफहमी थी कि नई नवेली 'पंचायत (विस्तार उपबंध) अधिनियम -1996’ के महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकारों के जोशो-खरोश में उनके आदिवासी पंचायतों के प्रस्ताव का सम्मान, सरकार और शेष समाज करेगी। बाद के कुछ ही बरसों में उनकी उम्मीदों की इस कथा का दुखांत बेरोजगारी, लूट, दमन और विपन्नता से हुआ। संयोगवश, पर्यावरण प्रभाव के आकलन और आदिवासी स्वशासन के वैधानिक प्रावधान तब तक सार्वजनिक रूप से घोषित किए जा चुके थे। किन्तु इसे धरातल में उतारने की तैयारी और साहस सरकार में तब थी और न आज है।

पर्यावरण और मानवाधिकारों के कानूनों की सबसे बड़ी त्रासदी केवल यह नहीं है कि इसे मजबूती के साथ लागू नहीं किया जा सका, बल्कि इस त्रासदी का दुखांत यह है कि इसका शिकार अब तक वो समाज ही होता रहा जिसे कायदे-कानूनों और कोरे योजनाओं की लालबुझक्कड़ी परिभाषाओं में विपन्न, कमजोर, गरीब और सीमान्त घोषित कर दिया गया है। विचित्र विरोधाभास है कि सरकार और समाज के द्वारा उनके जल, जंगल और जमीन के अधिग्रहण (और लूट) के फलस्वरूप जन्मी उनकी विपन्नता की कीमत पर खड़ी विकास की बुनियादें, तमाम पर्यावरण और मानवाधिकारों के उल्लंघन का इतिहास और वर्तमान दोनों है। छत्तीसगढ़ के तमनार, झारखण्ड के जादूगोड़ा, मध्यप्रदेश के डोमखेड़ी और उड़ीसा के बोरभाठा से चाहे जितने लोगों को देशहित के नाम पर बेजमीन किया गया हो उनके नाम अलग-अलग हो कर भी उनकी सरकारी पहचान अब केवल और केवल 'वंचित और कमजोर' वर्ग की रह गयी है।

ऐसे में आज पर्यावरण प्रभाव के आकलन के प्रस्तावित प्रावधान जब जनहित, देशहित और समाजहित में सुलझे-उलझे तर्क रखते हैं तो उस पूरे वंचित समाज की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है जिसने अब तक विकास के नाम पर केवल खोया ही है। विकास को अक्सर शेष समाज का विशेषाधिकार मान लिया गया। वास्तव में यह सार्वजनिक अनुसंधान होना बाकी है कि तथाकथित देशहित वाली तमाम परियोजनाओं के वास्तविक लाभार्थी आखिर कौन हैं ? क्या शेष समाज को मालूम है कि जिन आदिवासियों के आजा-पुरखा की जमीनें खोदकर कोयला निकाला गया और जिनकी बस्तियों को नेस्तनाबूद कर दिया गया आखिर वो अब कहां और किन हालातों में हैं ? क्या वे जानना चाहते हैं कि जिनकी पवित्र नदियों को प्रदूषित नालों में बदल दिया गया आखिर वे प्यासे लोग कहां चले गये? क्या वो उन सुखवासियों से मिलना चाहेंगे, जिनके जंगलों और खेतों को विकास की भट्ठियों में बदल दिया गया ? क्यों नहीं उस पूरे संपन्न समाज में इतनी ईमानदारी, इतनी मर्यादा और इतनी कुब्बत होनी ही चाहिये कि वो कम से कम अपने बच्चों को यह बताये कि उनके निजी संपन्नता की खातिर, सार्वजनिक विपन्नता के नेपथ्य में धकिया दिये गये गुमनाम लोग कौन हैं? और आखिर कौन इन सबके लिये जवाबदेह है ?

पर्यावरण प्रभाव के आकलन का मकसद यदि केवल कागजी कवायद है, तो जाहिर है इन अनुत्तरित सवालों के सरल-कठिन जवाबों की कोई जरूरत है ही नहीं। यदि पर्यावरण के प्रभाव के आकलन का उद्द्येश्य, केवल संभावित नुकसान की तकनीकी समीक्षा और राजनैतिक समाधान के रास्ते हैं, तब भी जवाबों का आग्रह बेमानी ही होगा। लेकिन यदि संशोधनों के केंद्र में, हाशिये पर धकेल दिये गये उन लाखों-करोड़ों लोगों के विपन्नता की मौलिक कथा में आज और अब उम्मीदों का नया संसार गढ़ना है तो समाज और सरकार दोनों के भीतर, केवल और केवल सत्य बोलने और स्वीकारने का साहस भर चाहिये। अधिकारों का नया अध्याय यहीं से शुरू होगा।

(लेखक एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)