डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के चार साल पूरे होने पर एक विशेषांक प्रकाशित किया गया है, जिसमें मौजूदा युग जिसे एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग कहा जा रहा है पर विस्तृत जानकारियां दी गई है। इस विशेष लेख के कुछ भाग वेबसाइट पर प्रकाशित किए जा रहे हैं। पहली कड़ी में आपने पढ़ा- नए युग में धरती : कहानी हमारे अत्याचारों की । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा- नए युग में धरती: वर्तमान और भूतकाल तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा - नए युग में धरती: नष्ट हो चुका है प्रकृति का मूल चरित्र । पढ़ें, चौथी कड़ी -
ऐसे में सवाल है कि क्या बड़े पैमाने पर हो रही विलुप्तियों को छठा मास एक्सटिंग्शन या महाविनाश भी माना जा सकता है? इसे समझने के लिए हमें 1980 के दशक में लौटना होगा, जब मास एक्सटिंग्शन को परिभाषित किया गया था। यह परिभाषा बताती है कि छोटे भूगर्भिक अंतराल में जब एक से अधिक भौगोलिक क्षेत्र में उल्लेखनीय विलुप्ति होती है और इसके कारण कम से कम विविधता अस्थायी रूप से खत्म हो जाती है, तब उसे मास एक्सटिंग्शन कहा जाता है। छोटे भूगर्भिक अंतराल को 28 लाख साल से कम अवधि के रूप में परिभाषित किया गया है। धरती पर जीवन का इतिहास नई प्रजातियों के विकास, उनके गुणात्मक विस्तार और विलुप्ति का मिश्रित रूप है।
धरती अब तक ऐसे पांच मास एक्सटिंग्शन की गवाह बन चुकी है और ये औसतन 1,000 साल में हुए हैं। ऐसी हर विलुप्ति की अवधि 50,000 से 27.6 लाख साल की रही है। नेशनल जियोग्राफिक के मुताबिक, “धरती पर आए 99 प्रतिशत से अधिक जीव विलुप्त हो चुके हैं। बदली हुई परिस्थितियों में नया जीव खुद का विकास करता है और पुराना जीव खत्म हो जाता है। लेकिन विलुप्ति की यह दर स्थिर नहीं है। पिछले 50 करोड़ वर्षों में 75 से 90 प्रतिशत से अधिक प्रजातियां विनाश की भेंट चढ़ चुकी हैं।” इसी व्यापक विनाश को हम मास एक्सटिंग्शन कहते हैं।
बहुत से अध्ययन बताते हैं कि 54 करोड़ साल पहले कैंब्रियन युग में धरती पर विभिन्न प्रकार के जीव और वनस्पतियां उत्पन्न हुईं। हम मान सकते हैं कि इसी युग में धरती पर जैव विविधता आई। इस युग के बाद से ही वैज्ञानिकों ने मास एक्सटिंग्शन की गणना की है। शुरुआती मास एक्सटिंग्शन के कई कारण रहे, जैसे गर्मी, हिमयुग और ज्वालामुखी का फटना। इसके हर चरण में उस समय की अधिकांश प्रजातियां खत्म हो गईं। वैज्ञानिकों ने इन्हीं जानकारियों के आधार पर यह पता लगाने की कोशिश की कि वर्तमान चरण में हो रही विलुप्तियों के पीछे कहीं मनुष्यों का हाथ तो नहीं है। हम पता लगा रहे हैं कि वर्तमान की अधिकांश विलुप्तियों के पीछे एक प्रजाति यानी होमो सेपियंस का कितना योगदान है।
आमतौर पर एक प्रजाति कितने समय में विलुप्त हो जाती है? शुरुआती विलुप्तियां और जीवाश्म रिकॉर्ड बताते हैं कि एक प्रजाति करीब 10 लाख वर्षों में खत्म हो जाती है। यह दर बैकग्राउंड एक्सटिंग्शन रेट यानी विलुप्ति की पृष्ठभूमि दर मानी जाती है। इस गणना के आधार पर हम जान सकते हैं कि वर्तमान में हो रही विलुप्तियां असामान्य हैं या तेज। फ्लिंडर्स विश्वविद्यालय के रिसर्च फैलो फ्रेडरिक साल्ट्रे और कोरी जेए ब्रैडशॉ के अनुसार, “अगर हम इस कसौटी पर वर्तमान विलुप्तियों को परखें तो पाएंगे कि मौजूदा दर बैकग्राउंड दर से 10 से 10,000 गुणा अधिक है।” वह आगे बताते हैं कि प्राकृतिक दर के मुकाबले विलुप्ति की मौजूदा दर सैकड़ों गुणा अधिक है। अगर हम सभी प्रजातियों को खतरे में, गंभीर खतरे में और संवेदनशील के रूप में वर्गीकृत करें तो ये सभी अगली शताब्दी में विलुप्त हो जाएंगी। अगर विलुप्ति की यह दर कम नहीं होती है तो हम अगले 240 से 540 वर्षों में मास एक्सटिंग्शन के चरण में पहुंच जाएंगे।
जुलाई 2019 में जारी आईपीबीईएस के आकलन से ठीक पहले इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने विलुप्तप्राय प्रजातियों की रेड लिस्ट को अपडेट किया था। इसके अनुसार, आकलन में शामिल अधिकांश प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट में कुल 1,05,732 प्रजातियों का अध्ययन किया गया। इससे पहले अधिकतम एक लाख प्रजातियों का अध्ययन हुआ था। अत: ताजा अध्ययन को सबसे व्यापक माना जा सकता है। आईयूसीएन के कार्यवाहक महानिदेशक ग्रेथेल एग्युलर के अनुसार, “आईयूसीएन की रेड लिस्ट में एक लाख से अधिक प्रजातियों का अध्ययन किया गया है। यह अपडेट साफ तौर पर बताता है कि दुनियाभर के मनुष्य किस स्तर पर वन्यजीवों का शोषण कर रहे हैं।” नए अपडेट के मुताबिक, 28,338 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा है।
नई लिस्ट चिंता में डालने वाली है क्योंकि यह बताती है कि मीठे पानी और गहरे समुद्र में रहने वाली प्रजातियां खतरनाक ढंग से कम होती जा रही हैं। उदाहरण के लिए जापान में पाई जाने वाली मीठे पानी की 50 प्रतिशत से अधिक मछलियां विलुप्तप्राय हो चुकी हैं। इसकी मुख्य वजह हैं, नदियों के निर्बाध प्रवाह में कमी, कृषि क्षेत्र और शहरों में बढ़ता प्रदूषण। दुनियाभर में मीठे पानी की 18,000 प्रजातियां विभिन्न कारणों से बेहद दबाव में हैं और तेजी से खत्म हो रही हैं। समुद्र में रहने वाली प्रजातियों की बात करें तो वेज और विशालकाय गिटार मछली पर सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है। इन मछलियों को संयुक्त रूप से गैंडे जैसे सींग के कारण राइनो रेज के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
आईयूसीएन के अध्ययन में शामिल करीब 50 प्रतिशत प्रजातियों को लीस्ट कन्सर्न (अधिक खतरा नहीं) की श्रेणी में डाला गया है। इसका अर्थ यह भी है कि शेष 50 प्रतिशत प्रजातियां घटने के विभिन्न चरणों में हैं। अध्ययन में शामिल प्रजातियों में 873 पहले ही विलुप्त हो चुकी हैं जबकि 6,127 घोर संकट में है। ग्लोबल स्ट्रेटजिक प्लान फॉर बायोडायवर्सिटी (2011-2020) के लक्ष्य 12 के अनुसार, विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी परिचित प्रजातियों को 2020 तक विलुप्त होने से रोकना है। ऐसा नहीं है कि केवल जंगली प्रजातियों पर ही तेजी से विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। बहुत-सी घरेलू नस्लें भी इस खतरे का सामना कर रही हैं। घरेलू स्तनधारियों की करीब 10 प्रतिशत नस्लें 2016 तक विलुप्त हो चुकी हैं।
जैव विविधता को इस कदर पहुंचे नुकसान की वजह से प्रकृति हमें गुणवत्ता युक्त जीवन देने में अक्षम हो गई है। वैज्ञानिकों ने गुणवत्ता युक्त जीवन में योगदान देने वाले 18 घटकों की पहचान की है, जैसे साफ पानी और वायु, सीक्वेस्टरिंग कार्बन यानी कार्बन को पृथक करना और पौधों का परागण आदि। पिछले 50 वर्षों में प्रकृति के इन घटकों में से 80 प्रतिशत ने गुणवत्ता युक्त जीवन में अपना योगदान नहीं दिया है।
धरती पर मौजूद समस्त प्रजातियों को जानना अब भी बाकी है। धरती के जीवों के प्रति हमारी समझ और जानकारी बहुत सीमित है। वैज्ञानिक प्रतिदिन कोई न कोई नई प्रजाति खोज रहे हैं। अभी हमारे पास प्रजातियों की अंतिम सूची नहीं है। बहुत से अध्ययन बताते हैं कि धरती पर मौजूद जीवों की प्रजातियां 30 लाख से 10 करोड़ से अधिक हो सकती है। जो प्रजातियां चिन्हित हो चुकी हैं और जिनका नामकरण हो गया है, उनकी भी कोई सूची नहीं है। इसके लिए हमें केवल अनुमानों के भरोसे रहना पड़ता है। और ये अनुमान बताते हैं कि हम अब तक 17 लाख प्रजातियों को ही जान पाएं हैं। आईपीबीईएस के दस्तावेज बताते हैं कि हर साल 10,000 से 15,000 नई प्रजातियों की जानकारी सामने आती है। अपने आकलन में आईपीबीईएस ने 81 लाख पशु और पौधों की प्रजातियों के आंकड़े का उल्लेख किया है। वैज्ञानिकों के ये अनुमानित आंकड़े साल 2011 तक के हैं।
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