वन्य जीव एवं जैव विविधता

नए युग में धरती: नष्ट हो चुका है प्रकृति का मूल चरित्र

Richard Mahapatra, Anil Ashwani Sharma, Bhagirath, Raju Sajwan

डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के चार साल पूरे होने पर एक विशेषांक प्रकाशित किया गया है, जिसमें मौजूदा युग जिसे एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग कहा जा रहा है पर विस्तृत जानकारियां दी गई है। इस विशेष लेख के कुछ भाग वेबसाइट पर प्रकाशित किए जा रहे हैं। पहली कड़ी में आपने पढ़ा- नए युग में धरती : कहानी हमारे अत्याचारों की । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा- नए युग में धरती: वर्तमान और भूतकाल  पढ़ें, तीसरी कड़ी - 

इस नए एंथ्रोपोसीन युग की जो शक्ल उभरकर आ रही है उसे पर्यावरण संकटों के अलावा नैतिकता, सौंदर्यशास्त्र एवं राजनीति के सवालों से भी दो-चार होना होगा। इस नई दुनिया के निर्माण का खर्च कौन उठाएगा, यह वर्तमान में एक प्रमुख राजनैतिक प्रश्न बनकर उभरा है। क्या एंथ्रोपोसीन के आगमन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार विकसित देशों को विकासशील देशों में रह रहे नागरिकों को मुआवजा देना चाहिए? आखिर जलवायु परिवर्तन में सबसे अधिक भूमिका विकसित देशों की ही तो है या चीन और भारत जैसी नई आर्थिक शक्तियों को उसी पारिस्थितिक रूप से आत्मघाती रास्ते को अपनाना चाहिए जिसने हम सभी को इस दलदल में धकेल दिया है?

लेकिन कई और व्यावहारिक सवाल भी हैं, जैसे कि क्या हम विलुप्ति की दहलीज पर खड़ी प्रजातियों को बचा सकते हैं? क्या हम अपनी धरती के कायाकल्प के लिए विज्ञान पर भरोसा कर सकते हैं? या अब समय आ चला है जब हम विकास की इस अंधी दौड़ से निकलकर अपनी आकांक्षाओं पर लगाम लगाएं और एक संवहनीय जीवन जिएं? इस विषय को लेकर अभी सुझावों की भरमार है और मछली बाजार जैसा माहौल बन चुका है। लेकिन ऐसा होना अवश्यंभावी है क्योंकि हम एंथ्रोपोसीन की बात तो करते हैं लेकिन मानवता को कोई निश्चित स्वरूप नहीं है। जैसा कि पर्डी लिखते हैं, यह कहना कि हम एंथ्रोपोसीन में रहते हैं, इसका अर्थ होता है कि हम इस दुनिया की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते क्योंकि हमने ही इसे बनाया है। अब तक सब ठीक है। परेशानी तब शुरू होती है जब एंथ्रोपोसीन का यह करिश्माई, सर्वव्यापी विचार एक प्रोजेक्शन स्क्रीन बन जाता है और “धरती की जिम्मेदारी” लेने की होड़ में सब अपने एजेंडे को प्राथमिकता देते हैं।

नेचर कंजरवेंसी के मुख्य वैज्ञानिक पीटर कारेवा का ही उदाहरण ले लें। पीटर यथास्थितिवादी हैं और उनका मानना है कि हम पूंजीवाद से नाता तोड़ने की अवस्था में नहीं हैं। वह कहते हैं, “संरक्षणकर्ताओं को चाहिए कि वे पूंजीवाद का विरोध करने के बजाय इन कंपनियों को अपने कार्यकलापों में प्रकृति पर आधारित प्रयास करने हेतु प्रोत्साहित करें ताकि वे उसका लाभ ले सकें।” साफ शब्दों में, वह कहना चाहते हैं कि प्रकृति का मूल चरित्र नष्ट हो चुका है और जो बचे खुचे अवशेष हैं हम उनका मूल्य निर्धारित करके उन्हें बाजार के हवाले कर दें। आप उन पर गलतबयानी का आरोप नहीं लगा सकते क्योंकि अंततः नेचर कंजरवेंसी भी डाव, मोनसेंटो, कोका-कोला, पेप्सी, गोल्डमैन सैक्स और खदान कंपनी रियो टिनटो जैसी पर्यावरण के लिए खतरनाक कंपनियों की श्रेणी में आता है। इसके बाद आते हैं कारेवा के वाम में स्थित इकोमोडरनिस्ट जो वैज्ञानिकों एवं पर्यावरणविदों का एक मिला-जुला समूह है। उनका मानना है कि “आधुनिक प्रौद्योगिकियां, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र प्रवाह और सेवाओं का अधिक कुशलता से उपयोग करके, जैवमंडल पर मानव प्रभावों की समग्रता को कम करने का एक मौका प्रदान करती हैं। इन तकनीकों को अपनाना ही एक अच्छे एंथ्रोपोसीन के लिए मार्ग खोजना है।”

इनसे थोड़ा और वाम में आपको स्माॅल-इज-ब्यूटीफुल, थिंक-ग्लोबल-ऐक्ट-लोकल किस्म के पर्यावरणविद मिलेंगे। ये वाम एवं दक्षिण, दोनों पंथों से ताल्लुक रखते हैं और इनका मानना है कि एक संवहनीय एंथ्रोपोसीन का निर्माण उच्च श्रम उत्पादन, जिम्मेदार उपभोग और पीढ़ी दर पीढ़ी समुचित वितरण के माध्यम से ही संभव है। एंथ्रोपोसीन पाठकों के इस स्पेक्ट्रम में आपको कुछ ऐसे लोग भी मिलेंगे जो एंथ्रोपोसीन के आधार पर ही सवाल उठाते हैं। उदाहरण के लिए पर्यावरणविद एवं इतिहासकार जेम्स डब्ल्यू मूर को ही ले लें जिनका मानना है कि प्रौद्योगिकी अथवा मानव हस्तक्षेप बलि के बकरे मात्र हैं। उनका दावा है कि असली अपराधी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थान हैं, जिनका पर्यावरण एवं अन्य संस्कृतियों के प्रति बेतकल्लुफी वाला रवैया इस माहौल के लिए जिम्मेदार है। वे वर्तमान युग को कैपिटलोसीन कहना पसंद करते हैं। उनका मानना है कि हमें सबसे पहले अपने समाज के असंगत “पावर रिलेशन” में आधारभूत परिवर्तन लाने होंगे। अंत में आते हैं दिवंगत जर्मन समाजशास्त्री उलरिक बेक और टेक्नो-ह्यूमन कंडीशन के लेखक जैसे लोग जिनका मानना है कि धरती अब हमारे नियंत्रण से बाहर जा चुकी है। बेक का मानना है कि “विज्ञान, राजनीति, मास मीडिया, व्यापार, कानून और यहां तक कि सेना भी जोखिमों को तर्कसंगत रूप से परिभाषित या नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं हैं।”

तो फिर ऐसी वैचारिक अराजकता का सामना कैसे किया जाए? क्या किसी यूटोपियन फंतासी की शरण में जाना ही इसका एकमात्र उपाय है? यह संभव है कि एंथ्रोपोसीन में जो राजनीतिक, नैतिक एवं अन्य मूल्य दांव पर लगे हैं उन्हें बचाने का यह एकमात्र तरीका हो। जैसा कि जेडेडाया लिखते हैं, एंथ्रोपोसीन का कोई भी पुनर्मूल्यांकन इस सवाल का जवाब देगा कि जीवन का क्या मूल्य है, हम एक-दूसरे पर कितना निर्भर हैं और दुनिया में क्या कमाल का या सुंदर है जो संरक्षित करने या फिर से बनाए जाने योग्य है। यह उत्तर या तो मौजूद असमानता को और बढ़ाएंगे या एक नए “पावर रिलेशन” की शुरुआत करेंगे। एंथ्रोपोसीन या तो लोकतांत्रिक होगा या फिर भयावह।” ऐसे हालात में हम बस यह उम्मीद ही कर सकते हैं कि एंथ्रोपोसीन का यह नया चेहरा कम से कम लोकतांत्रिक हो। पर्डी के ही शब्दों में, “यह कार्यकर्ताओं, विचारकों एवं नेताओं पर निर्भर है कि वे कैसी दुनिया का निर्माण करते हैं।”

जैव विविधता का हाल

एंथ्रोपोसीन का बड़ा और नकारात्मक पहलू जैव विविधता के क्षरण के रूप में दिखाई दे रहा है। धरती अब गुणवत्ता युक्त जीवन देने में अक्षम हो गई है

अब बात एक अकल्पनीय गणना की। इस गणना में धरती पर मौजूद कुल 550 गीगाटन बायोमास यानी जैव भार की संरचना का पता लगाया गया। 550 गीगाटन धरती पर जीवन शुरू होने के बाद से अब तक का कुल बायोमास है। यह कई रूपों में हमारे सामने है। वैज्ञानिकों ने इसकी संरचना का पहले कभी अध्ययन नहीं किया था। यह गणना हमें जीवमंडल की स्थिति से अवगत कराती है। साथ ही यह भी बताती है कि जैव विविधिता की क्या स्थिति है और अंदरखाने क्या चल रहा है। यह गणना इजराइल के वाइजमन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिक रोन माइलो और इनोन एम बार-ऑन की कोशिशों का नतीजा है। बायोमास की यह गणना 2019 में जारी की गई। इसके नतीजे चौंकाने वाले थे। इस गणना में न केवल धरती की जैव विविधता में विनाशकारी परिवर्तन दिखे बल्कि एंथ्रोपोसीन का प्रभाव भी नजर आया। खुद रोन माइलो के मुताबिक, “यह वाकई हैरान करने वाली बात है, हमारी धरती में स्थितियां विषम हो रही हैं।”

अब नजर डालते हैं धरती की पहली बायोमास गणना के नतीजों पर। इसके अनुसार, 760 करोड़ मनुष्य धरती के कुल बायोमास का केवल 0.01 प्रतिशत हिस्सा हैं। अब इसकी तुलना धरती पर मौजूद उन प्रजातियों से करते हैं जिन्हें हम बमुश्किल देख पाते हैं। उदाहरण के लिए बैक्टीरिया को ही लीजिए। धरती के कुल बायोमास में बैक्टीरिया की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत है। कुल बायोमास में पेड़-पौधों की हिस्सेदारी सबसे अधिक 83 प्रतिशत है। अन्य सभी प्रकार के जीवों की हिस्सेदारी महज 5 प्रतिशत के आसपास है।

गणना में मनुष्यों के ऐसे नकारात्मक प्रभाव देखे गए जिनकी भरपाई संभव नहीं है। वैज्ञानिकों ने पाया कि 83 प्रतिशत जंगली स्तनधारियों और आधे पेड़-पौधों की विलुप्ति की वजह मनुष्य हैं। मनुष्य केवल प्रजातियों के विलुप्ति की वजह ही नहीं है बल्कि वह यह भी तय करता है कि कौन-सी प्रजाति जीवित रहेगी और आगे बढ़ेगी। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि दुनिया में शेष बचे पक्षियों में 70 प्रतिशत पोल्ट्री मुर्गियां या अन्य घरेलू पक्षी हैं (पढ़ें, मानव युग का प्रतीक है बॉयलर चिकन )। वहीं दुनिया में बचे स्तनधारियों में 60 प्रतिशत मवेशी हैं, 36 प्रतिशत सुअर हैं और केवल 4 प्रतिशत जंगली पशु हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल मनुष्य के लिए उपयोगी पशु ही बच रहे हैं, शेष तेजी से खत्म हो रहे हैं। रोन गणना के नतीजों को समझाते हुए बताते हैं, “जब मैं अपनी बेटी के साथ पहेलियां हल करता हूं, तब आमतौर पर हाथी के बाद जिराफ और फिर गैंडे का चित्र दिखता है। अगर वास्तविक चित्रण करना पड़े तो गाय के बाद गाय, फिर गाय और उसके बाद मुर्गी होगी।” उनका अध्ययन आंकड़ों में आए इस हैरान करने वाले परिवर्तन को प्रतिबिंबित करता है। मनुष्यों और पालतू मवेशियों का बायोमास जंगली स्तनधारियों को बहुत पीछे छोड़ चुका है। इसी तरह पोल्ट्री बायोमास (मुख्यत: चिकन) जंगली पक्षियों से तीन गुणा अधिक है। इसी तरह 40 प्रतिशत उभयचर प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

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