वन्य जीव एवं जैव विविधता

नए युग में धरती: वर्तमान और भूतकाल

एंथ्रोपोसीन की परिकल्पना अपने पथरीले जन्मस्थान से निकलकर सांस्कृतिक और राजनैतिक बहस के खुले आकाश का हिस्सा बन चुकी है

Richard Mahapatra, Anil Ashwani Sharma, Bhagirath, Raju Sajwan

डाउन टू अर्थ, हिंदी मासिक पत्रिका के चार साल पूरे होने पर एक विशेषांक प्रकाशित किया गया है, जिसमें मौजूदा युग जिसे एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग कहा जा रहा है पर विस्तृत जानकारियां दी गई है। इस विशेष लेख के कुछ भाग वेबसाइट पर प्रकाशित किए जा रहे हैं। पहली कड़ी में आपने पढ़ा- नए युग में धरती : कहानी हमारे अत्याचारों की । दूसरी कड़ी पढ़ें,  

धरती पर युग के बदलने का निर्णय पृथ्वी के ही अंदर मिले कुछ विश्वव्यापी संकेतों के माध्यम से किया जाता है। धरती की अंदरूनी परतों में पाए जाने वाले कुछ विशेष पदार्थों के स्तरों में वृद्धि ऐसा ही एक संकेत है। हालांकि रेडियोधर्मी तत्वों का प्रसार इस तरह का सबसे अच्छा संकेत है लेकिन कई अन्य नए, मानव निर्मित पदार्थ भी हैं जो इन “टेक्नोफोसिल” की श्रेणी में आते हैं। एल्युमिनियम, कंक्रीट, प्लास्टिक इत्यादि इस तेजी से विकसित होते समूह के कुछ सदस्य हैं। रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग के फलस्वरूप उत्पन्न नाइट्रोजन, ध्रुवीय बर्फ में जमा कार्बन, पेड़ों के छल्लों और आइस कोर में अवशोषित ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि एवं पृथ्वी की सतह में पाए जाने वाले प्लास्टिक एवं माइक्रो-प्लास्टिक कुछ अन्य संकेत हैं जो ऐसे परिवर्तन का मजबूत समर्थन करते हैं। अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस द्वारा जनवरी, 2016 में प्रकाशित एक पत्र में पहली बार यह विस्तार से बताया गया कि वर्तमान युग होलोसीन से क्यों और कैसे अलग है। इसके अलावा यह पत्र एक “अर्ली एंथ्रोपोसीन” काल की भी बात करता है जिसकी शुरुआत खेती के प्रसार एवं वनों की कटाई से हुई। पुरानी दुनिया और नई दुनिया की प्रजातियों के बीच हुआ “कोलम्बियन एक्सचेंज” (कोलंबियन एक्सचेंज को कोलंबियन इंटरचेंज के नाम से भी जाना जाता है और इसका नाम क्रिस्टोफर कोलंबस पर रखा गया था। 15वीं एवं 16वीं शताब्दी में उत्तर व दक्षिण अमेरिका, पश्चिमी अफ्रीका और यूरोप के बीच हुए पौधों, जानवरों, संस्कृतियों, इंसानों, तकनीक, बीमारियों एवं विचारों के आदान-प्रदान को यह नाम दिया गया था) औद्योगिक क्रांति और बीसवीं शताब्दी के मध्य में जनसंख्या वृद्धि और औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में हुआ “ग्रेट एक्सेलेरेशन” इसके अन्य पहलू हैं। औद्योगिक मुर्गी पालन के फलस्वरूप मुर्गों के उत्पादन और प्रसार में भयावह वृद्धि हुई है और उनके जीवाश्म भी नए युग के संकेतों की दौड़ में शामिल हैं।

युग परिवर्तन के संकेतों के बारे में भूविज्ञान में एक आम सहमति प्राप्त करना बहुत कठिन है, भले ही होलोसीन को औपचारिक रूप से 1885 में एक युग के रूप में स्वीकार किया गया था, लेकिन भूवैज्ञानिकों को इसके गोल्डन स्पाइक पर सहमत होने में 76 साल लग गए। वैसे भी, एंथ्रोपोसीन के भाग्य का फैसला एडब्ल्यूजी के हाथ में नहीं है। इसकी सिफारिशों का अध्ययन और उनकी जांच भूविज्ञान के क्षेत्र की तीन शीर्षतम संस्थाओं, द सब्मिशन ऑन क्वार्टनेरी स्ट्रैटीग्राफी, द इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्ट्रैटीग्राफी एवं अंत में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ जियोलाजिकल साइंस द्वारा की जाएगी। हालांकि, कुछ स्ट्रेटिग्राफर मानते हैं कि एडब्ल्यूजी ने एंथ्रोपोसीन को भूवैज्ञानिक आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करके सही नहीं किया है क्योंकि मानवीय गतिविधियों के अवशेष चट्टानों में मिलें ही, ऐसा आवश्यक नहीं है। जैसा कि लेखक जेम्स वेस्टकॉट ने कहा, “जब हमारे पास ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अलावा हार्ड ड्राइव और सीडी पर जानकारी उपलब्ध है तो फिर चट्टानों के पीछे जुनूनी बनने की आवश्यकता ही क्या है?”

प्रतिष्ठित भूवैज्ञानिक चाहे एडब्ल्यूजी के प्रस्ताव को मानें या न मानें, यह तो निश्चय है कि एंथ्रोपोसीन की परिकल्पना अपने पथरीले जन्मस्थान से निकलकर सांस्कृतिक और राजनैतिक बहस के खुले आकाश का हिस्सा बन चुकी है। यहां डरहम विश्वविद्यालय के टिमोथी क्लार्क के शब्द बिल्कुल सटीक प्रतीत होते हैं, “यह सांस्कृतिक, नैतिक, सौंदर्यवादी, दार्शनिक और राजनीतिक-पर्यावरणीय मुद्दों को एक स्थान पर लाता है, बिल्कुल एक वैश्विक पैमाने पर।”

उदाहरण के लिए राइस विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर टिमोथी मॉर्टन ने वर्ष 2013 में अपनी पुस्तक “हाइपरऑब्जेक्ट्स” में, एंथ्रोपोसीन को मानव इतिहास और स्थलीय भूविज्ञान के एक चुनौतीपूर्ण एवं भयानक संयोग के रूप में वर्णित किया है। उनका मानना है कि मानवों को आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन, प्लास्टिक एवं रेडियोधर्मी प्लूटॉनियम जैसे हाइपरऑब्जेक्ट्स का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रोफेसर मॉर्टन कहते हैं कि ये हाइपरऑब्जेक्ट्स हमारे चारों ओर फैले हुए हैं और उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करना और उन्हें समझ पाना मुश्किल है। इसी तरह, 2011 की अपनी पुस्तक “द टेक्नो ह्यूमन कंडीशन” में डेनियल सारेविट्ज और ब्रेडेन एलेन्बी एंथ्रोपोसीन की व्याख्या किसी भी तकनीक के जटिल जीवन-पथ की भविष्यवाणी करने में मानवों की विफलता के अनपेक्षित प्रभाव के रूप में करते हैं। वे मोटरकारों का उदाहरण देते हैं। यह एक ऐसी तकनीक है जिसने इंसानों को स्वतंत्रता एवं आराम तो दिलाया लेकिन साथ ही वातावरण को भयानक नुकसान भी पहुंचाया। “एकोक्रिटिसिज्म ऑन द एज” के लेखक टिमोथी क्लार्क का मानना है कि एंथ्रोपोसीन ने उन श्रेणियों को धुंधला कर दिया है जिससे लोगों को अपनी दुनिया और अपने जीवन का बोध होता था। यह “संस्कृति और प्रकृति, तथ्य और मूल्य एवं मानव और भूवैज्ञानिक या मौसम विज्ञान के बीच की सीमाओं को संकट में डालता है।”

हालांकि इतनी सारी परिभाषाओं के बावजूद जो एक बात खुलकर सामने आती है वह यह है कि एंथ्रोपोसीन मानवों एवं प्रकृति के बीच की विभाजन रेखा के स्थायी ध्वंस को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में, नए युग में प्राकृतिक वातावरण का कोई मतलब नहीं रह जाता क्योंकि इस धरती पर सजीव या निर्जीव, ऐसा कुछ नहीं बचा जिसके साथ मानवों ने छेड़छाड़ न की हो। ड्यूक यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर और “आफ्टर नेचर: ए पॉलिटिक्स फॉर द एंथ्रोपोसीन” के लेखक जेडेडाया पर्डी के शब्दों में, “सवाल यह नहीं है कि प्राकृतिक दुनिया को मानव घुसपैठ से कैसे बचाया जाए, सवाल यह है कि हम इस नई दुनिया को कैसा आकार देंगे क्योंकि हम इसे परिवर्तित किए बिना नहीं रह सकते।”


ऐसे बना एंथ्रोपोसीन शब्द

एंथ्रोपोसीन शब्द 2000 में नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुटजन द्वारा गढ़ा गया था लेकिन वर्किंग ग्रुप ऑफ एंथ्रोपोसीन (डब्ल्यूजीए ) का गठन 2009 में किया गया था। डब्ल्यूजीए के 35 वैज्ञानिकों में से 30 ने एंथ्रोपोसीन को औपचारिक रूप से नामित करने के पक्ष में मतदान किया (2016)। अगले कुछ वर्षों में, डब्ल्यूजीए के सदस्य तय करेंगे कि कौन से संकेत एक युगांतरकारी बदलाव के सबसे तेज और सबसे मजबूत संकेतक हैं। चूंकि भूवैज्ञानिक विभाजन चट्टानों या बर्फ में सीमा परतों के आधार पर बनाए जाते हैं, इसलिए वैज्ञानिकों का कार्य नए युग का सीमांकन करने के लिए पृथ्वी की पपड़ी में एक स्थान का निर्धारण करना भी होगा। डेटा के विश्लेषण के बाद, इसे एंथ्रोपोसीन की मंजूरी और आधिकारिक अनुमोदन के लिए स्ट्रेटिग्राफिक अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

औपचारिक मान्यता अंततः इंटरनेशनल कमीशन ऑन स्ट्रेटिग्राफी (आईसीएस) द्वारा प्रदान की जाती है। आयोग एक अंतरराष्ट्रीय क्रोनोस्ट्रेटिग्राफिक चार्ट तैयार करता है, जो ग्रह के 450 करोड़ वर्ष के विकास के दौरान हुए सत्यापित परिवर्तनों का वर्णन करता है। आमतौर पर इस तरह की प्रक्रिया कई दशकों तक चलती है लेकिन जिस तेजी से एंथ्रोपोसीन को अपनाया जा रहा है, उससे लगता है कि यह 5 साल से भी कम समय में पूरा हो जाएगा। युग परिवर्तन के मार्कर के बारे में भूविज्ञान में एक आम सहमति प्राप्त करना कठिन है, भले ही होलोसीन को 1885 में औपचारिक रूप से एक युग के रूप में स्वीकार किया गया था लेकिन भूवैज्ञानिकों को इसके गोल्डन स्पाइक पर सहमत होने में 76 साल लग गए। इस परिवर्तन का विरोध कई वैचारिक एवं राजनैतिक स्तरों पर होगा, ऐसी संभावना नजर आ रही है। विकसित देशों में ऐसा होने की अधिक संभावना है क्योंकि उनके उपभोग एवं उत्पादन के तरीके निश्चय ही सवालों के घेरे में आएंगे।

मानव जनसंख्या में वृद्धि एवं विलुप्ति

हम पृथ्वी की छठी व्यापक विलुप्ति के मध्य में हैं। हार्वर्ड जीवविज्ञानी ईओ विल्सन का अनुमान है कि प्रति वर्ष 30,000 प्रजातियां (या प्रति घंटे तीन प्रजातियां) विलुप्त हो रही हैं। धरती की प्राकृतिक विलुप्ति दर प्रति दस लाख प्रजातियां, प्रति वर्ष है (देखें, धरती की सबसे बड़ी विलुप्तियां, पेज 32)। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि संकट कितना गहरा है।

वर्तमान विलुप्ति बाकी विलुप्तियों से अलग है क्योंकि इसके लिए एकमात्र प्रजाति जिम्मेदार है। जैसे-जैसे मानव नई जगहों पर गए हैं, विलुप्ति की घटनाओं में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। उपनिवेशवाद एवं विलुप्ति के बीच का संबंध इस बात से समझ जा सकता है कि 2,000 साल पहले जैसे ही मनुष्यों ने मेडागास्कर को अपना उपनिवेश बनाया, हिप्पो, लंगूर एवं कई बड़े पक्षी विलुप्त हो गए। बड़े रीढ़दार प्राणी सबसे पहले विलुप्त होने वालों में थे क्योंकि मनुष्यों ने उनका शिकार किया। दूसरी विलुप्ति लहर 10,000 साल पहले शुरू हुई जब कृषि की खोज के कारण आबादी में इजाफा हुआ जिसके फलस्वरूप जंगल कटे, नदियों पर बांध बने और जानवरों के झुंड के झुंड पालतू बनाए गए। तीसरी और सबसे बड़ी लहर 1800 में जीवाश्म ईंधन के दोहन के साथ शुरू हुई। सस्ती ऊर्जा की उपलब्धि के फलस्वरूप मानव आबादी 1800 में 1 अरब से आज बढ़कर 7.5 अरब तक पहुंच गई है। यदि वर्तमान तरीके में बदलाव नहीं किया गया है, तो हम 2020 तक 8 अरब और 2050 तक 9 से 15 अरब तक पहुंच जाएंगे। मनुष्य प्रतिवर्ष पृथ्वी की स्थलीय शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता का 42 प्रतिशत, समुद्री शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता का 30 प्रतिशत और मीठे पानी का 50 प्रतिशत इस्तेमाल कर जाते हैं। धरती की कुल भूमि का 40 प्रतिशत मानवों के भोजन की आपूर्ति के लिए समर्पित है। 1700 में यह 7 प्रतिशत था। धरती का आधा हिसा मानव उपयोग के लिए रूपांतरित कर दिया गया है। मनुष्य अकेले ही बाकी सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं जितनी नाइट्रोजन उत्सर्जित करते हैं।



“ह्यूमन डॉमिनेशन ऑफ अर्थ इकोसिस्टम्स” के लेखक, जिनमें नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के वर्तमान निदेशक भी शामिल हैं, का निष्कर्ष है कि इन सभी अलग प्रतीत होने वाली घटनाओं का एक ही कारण है, मानवीय गतिविधियों में हो रही वृद्धि। हम मानव वर्चस्व वाले ग्रह पर रहते हैं और मानव जनसंख्या वृद्धि की गति दुनिया के अधिकांश देशों के आर्थिक विकास के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करता है कि हमारा प्रभुत्व और बढ़ेगा।

जैव विविधता, प्रजातियों का वितरण, जलवायु, वनस्पति, आवास के खतरे, आक्रामक प्रजातियों, खपत के पैटर्न और अधिनियमित संरक्षण उपायों में अंतर के कारण स्थानीय विलुप्ति की दर का अनुमान लगाना जटिल है। हालांकि मानवीय प्रभाव हर जगह उपस्थित है। 114 देशों के एक अध्ययन में पाया गया कि मानव जनसंख्या घनत्व 88 प्रतिशत सटीकता के साथ लुप्तप्राय पक्षियों और स्तनधारियों की संख्या की भविष्यवाणी करता है। वर्तमान जनसंख्या वृद्धि के रुझान बताते हैं कि अगले 20 वर्षों में संकटग्रस्त प्रजातियों की संख्या 7 प्रतिशत और 2050 तक 14 प्रतिशत हो जाएगी।

अध्ययन के लेखकों में से एक, जेफरी मैकी ने कहा, “जनसंख्या घनत्व प्रजातियों के खतरों का एक महत्वपूर्ण कारक है। अगर स्तनधारियों और पक्षियों की तरह यह बढ़ती गईं तो हमें अपनी बढ़ती मानव आबादी के साथ वैश्विक जैव विविधता के लिए एक गंभीर खतरे का सामना करना पड़ सकता है।” 7.5 बिलियन मानवों की तुलना में वन्यजीव आज कहां खड़े हैं? दुनियाभर में, 12 प्रतिशत स्तनधारियों, 12 प्रतिशत पक्षियों, 31 प्रतिशत सरीसृपों, 30 प्रतिशत उभयचरों और 37 प्रतिशत मछलियों पर विलुप्त होने का खतरा विद्यमान है। पौधों एवं बिना मेरुदंड वाले जीवों का आकलन अभी नहीं हुआ है लेकिन हम मान सकते हैं कि उन पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है। विलुप्ति मानव आबादी का सबसे गंभीर और अपरिवर्तनीय प्रभाव है, लेकिन दुर्भाग्यवश एक संवहनीय मानव आबादी की जरूरतों की बात जब भी होती है, तब हम केवल पर्याप्त भोजन और पानी की ही बात करते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि मनुष्य खुद तो पृथ्वी पर मजे में रहेंगे ही, साथ ही औरों को भी रहने देंगे, लेकिन क्या हमारे पास इतने संसाधन हैं?